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दयानन्द का राजनीतिक चिन्तन

दयानन्द का राजनीतिक चिन्तन

(POLITICAL PHILOSOPHY OF DAYANAND)

“स्वामी दयानन्द निःसन्देह मानवतावादी साघुगे, पर साथ ही ये वेश-भक्त और राजनीतिज्ञ भी थे।”

-चमुपति

दयानन्द का राजनीतिक चिन्तन

स्वामी दयानन्द ने एक राजनीतिक चिन्तक के रूप में किन्हीं राजनीतिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन नहीं किया, लेकिन देश की राजनीतिक परिस्थितियों, देशवासियों की राजनीतिक परतन्त्रता के प्रति वे पूर्णतः जागरूक थे। अतः उन्होंने समय-समय पर अपने भाषणों में जो विचार व्यक्त किए और अपनी कृतियों में राजनीति से सम्बन्धित जो कुछ भी लिखा-उसका अन्तिम उद्देश्य यही था कि वे कारण दूर हों जिनसे देश पराधीन हुआ है, सामाजिक फूट समाप्त होकर एकता को सम्बल मिले और हिन्दू समाज में स्वतन्त्रता, समानता तथा बन्धुत्व के विचार प्रस्थापित हों। धार्मिक और सामाजिक जागरण लाकर, मानसिक परतन्त्रता मिटाकर दयानन्द राजनीतिक स्वतन्त्रता का मार्ग प्रशस्त करना चाहते थे, भारतीय राष्ट्रवाद का बिगुल फूंकना चाहते थे।

प्रजातन्त्र के पोषक

स्वामी दयानन्द लोकतन्त्रवादी थे और प्राचीन भारत की राजनीतिक परम्परा में, जो लोकतान्त्रिक आदर्शों पर आधारित थी, उनकी पूर्ण निष्ठा थी । लोकतन्त्र के प्रति दयानन्द का अनुराग निम्न बातों से स्पष्ट सिद्ध होता है-

प्रथम, “जिस आर्य समाज की दयानन्द ने स्थापना की उसका संगठन चुनाव पर आधारित था। नीचे से ऊपर तक के वे सभी व्यक्ति चुने जाते थे जो पदाधिकारियों अथवा किसी परिषद् के सदस्यों के रूप में कार्य करतेrajtant। निर्वाचन के सिद्धान्त को अपनाना हिन्दू धार्मिक व्यवस्था में एक क्रान्तिकारी कदम था ।”

दूसरे, “जिस आदर्श राज्यन्त्र की रूपरेखा दयानन्द ने प्रस्तुत की उसकी सरकार के सभी स्वीकृत और विधिक अंगों के निर्माण के लिए उन्होंने निर्वाचन के लोकतान्त्रिक सिद्धान्त को स्वीकार किया। उन्होंने ‘धर्मार्य-सभा’, ‘विद्यार्य-सभा’ तथा ‘राजार्य-सभा’ नामक तीन निकायों के संगठन तथा कार्य निश्चित कर दिए। इन निकायों को नियन्त्रण तथा सन्तुलन के सिद्धान्त का पालन करना था ।” स्वामी दयानन्द के अनुसार इसका आशय यह था कि किसी एक व्यक्ति ही में, चाहे वह कितना ही अच्छा क्यों न हो, सत्ता केन्द्रीभूत नहीं होनी चाहिए। किसी भी व्यक्ति को निरंकुश सत्ता नहीं दी जानी चाहिए। राजा को परिषद् की अध्यक्षता करनी चाहिए और उसे अपनी इच्छाओं को परिषद् की इच्छाओं के अधीन रखना चाहिए । राजा और परिषद् दोनों को ही जनता की इच्छा का सम्मान करना चाहिए जबकि जनता को परिषद् के कानूनों और आदेशों का पालन करना चाहिए।

तीसरे, यह दयानन्द की लोकतान्त्रिक अनुभूति ही थी कि उन्होंने जनता से स्वतन्त्र राजा को उपयुक्त अनुभव नहीं किया। उन्होंने स्पष्ट लिखा कि यदि राजवर्ग प्रजा से स्वतन्त्र रहता है तो इससे प्रजा नाश की ओर उन्मुख होती है। अकेला स्वाधीन और उन्मत्त राजा प्रजा का नाशक होता है। अतः राज्य में किसी एक को पूर्ण स्वाधीन (निरंकुश) नहीं करना चाहिए अन्यथा वैसी स्थिति हो सकती है जैसी कि वन में हो जाती है जहाँ सिंह पशुओं को मारकर खा जाता है। स्वामी दयानन्द ने न्यायप्रिय, अन्याय-नाशक, दुट नाशक शासक की कामना की। अन्याय का लोप और न्याय की स्थापना का यह विचार निःसन्देह लोकतान्त्रिक ही था।

चौथे, यह भी दयानन्द की लोकतान्त्रिक अनुभूति थी कि उन्होंने अमर्यादित दण्ड की व्यवस्था नहीं की। उन्होंने लिखा कि जो दण्ड सुविचारित होता है वह प्रजा को आनन्दित करता है और जो बिना सोचे विचारे स्थापित किया जाता है वह राजा को अर्थात् शासकों को चारों ओर से विनाश की ओर ले जाता है। यदि शासक सोच-विचार कर अच्छे ढंग से दण्ड की व्यवस्था करता है तो राज्य में धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि होती है और यदि राजा अपने न्याय में लम्पट, ईर्ष्यालु और क्षुद्र होता है तो दण्ड ही उसकी मृत्यु का कारण बनता है।

पाँचवें, महर्षि दयानन्द ने स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व के आधारभूत लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों में पूरा विश्वास प्रकट किया। उन्होंने अपने लोकतन्त्रको वर्ग-विशेष अथवा जाति-विशेष का समर्थक नहीं बनाया अपितु तथकथित अस्पृश्यों के लिए भी उसके द्वार खुले रखे । दयानन्द का लोकतन्त्र व्यक्ति की उपेक्षा नहीं करता वरन् व्यक्ति को स्वतन्त्र विकास का अवसर प्रदान करता है। समाज के सावयवी सिद्धान्त में आस्था रखते हुए भी दयानन्द ने व्यक्ति के गौरव और व्यक्तित्व के मूल्य को समझा और यह माना कि व्यक्ति के गौरव में विश्वास किए बिना कोई अपने को लोकतन्त्रवादी नहीं बना सकता। उन्होंने यह भी स्पष्ट रूप से घोषित किया कि राज्य का अस्तित्व व्यक्ति के लिए है न कि व्यक्ति का अस्तित्व राज्य के लिए। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति का मूल्यांकन उसके गुणों के आधार पर करने का सन्देश दिया, न कि जन्म अथवा सामाजिक स्थिति के संयोग पर। उनकी लोकतान्त्रिक आस्था इतनी गहन थी कि दुराचार के लिए वे राजा को भी उसी प्रकार ताड़ना दे सकते थे जिस प्रकार साधारण व्यक्ति को। उन्होंने अपने द्वारा संस्थापित सभी संस्थाओं के द्वार सभी लोगों के लिए खोल रखे थे, चाहे वे किसी जाति या धर्म के मानने वाले हों। उन्होंने अपने आर्य समाज में सभी सदस्यों को समान स्तर पर रखा और यह आग्रह किया कि शुभ जीवन के लिए आवश्यक सभी अधिकार, लिंग, जन्म, सम्पत्ति आदि के भेदभाव के बिना सभी व्यक्तियों को प्राप्त होने चाहिए।

प्रबुद्ध राजतन्त्र

पूर्वोक्त वर्णन महर्षि दयानन्द के प्रबुद्ध राजतन्त्र (Enlightened Monarchy) के विचार की झलक देता है। उनका राजनीतिक दर्शन मनुस्मृति और वेदों के विचारों का सम्मिश्रण था। इन दोनों से ही उन्होंने अपने राजदर्शन की आधारभूमि बनाई। मनुस्मृति से उन्होंने ऐसे राज्य की धारणा ग्रहण की जिसकी जड़ें धर्म-पालन में निहित हों। मनु ने इस विचार का प्रतिपादन किया था कि वही राजा श्रेष्ठ है जो धर्म के अनुरूप करे तथा राजकार्य में मन्त्रिगण का सहयोग ले। धर्म की अवहेलना करने वाला राजा तो निरंकुश, अनैतिक और अधर्मी है। मनुस्मृति के दर्शन से प्रेरित स्वामी दयानन्द ने राजा के निश्चित गुणों की अनिवार्यता के प्रति संकेत करके राजतन्त्र को मर्यादित किया और उसे जन-इच्छा को सम्मान देते हुए राज काज चलाने की प्रेरणा देकर राजतन्त्र को प्रबुद्ध अथवा जागरूक बनाया । दयानन्द ने धर्म को संकीर्ण नहीं वरन् उदात्त रूप में ग्रहण किया और मानव धर्म में आस्था रखते हुए समानता तथा न्याय का पोषण किया। लोकतन्त्रान्त्रिक शासन-व्यवस्था के बीज दयानन्द ने वेदों से ग्रहण किए जिनमें राजाओं के चुनाव का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। वैदिक संस्कृति के अनुसार “राजनीतिक सत्ता को आध्यात्मिक और नैतिक सत्ता (ब्रह्म) की सहायता से कार्य करना चाहिए, अत: दयानन्द ने नैतिक पुनरुत्थान को प्राथमिकता दी। उनका आग्रह था कि राजनीतिक कारणों को नैतिक कारणों से पृथक् करने की अनुमति कभी नहीं दी जा सकती। उन्होंने सदैव इस बात का अनुरोध किया कि राजनीतिक शासकों को आध्यात्मिक नेताओं के निर्देशन में कार्य करना चाहिए अतः यह कहा जा सकता है कि दयानन्द ने धर्मनिरपेक्ष तथा भौतिकवादी मान्यताओं पर आधारित राष्ट्रवाद को सदैव ही सन्देह की दृष्टि से देखा । चूँकि वे संस्कृत की प्रसिद्ध सूक्ति ‘परोपकाराय सतां विभूतयः’ के मानने वाले थे, इसलिए मानव-कल्याण की भावना से शून्य राजनीतिक उद्देश्यों को वे सदैव ही बुरा मानते थे।”

ग्राम-प्रशासन

स्वामी दयानन्द में राजनीतिक दूरदर्शिता थी। उन्होंने अपने राज-तन्त्र की कल्पना में भारत की प्रशासनिक इकाई के रूप में ग्राम को ही मान्यता दी और गाँवों की राजनीतिक तथा आर्थिक बस्था के प्रति अपनी चिन्ता और जागरूकता प्रदर्शित की। ग्राम-प्रशासन के सम्बन्ध में दयानन्द के विचार स्पष्टतः मनुस्मृति से प्रभावित थे। अपने ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में उन्होंने व्यवस्था दी है कि दो, तीन, पाँच और सौ ग्रामों के पीछे एक प्रशासनिक कार्यालय की स्थापना होनी चाहिए जिसमें प्रशासनिक कार्य के सुसंचालन की दृष्टि से योग्य अधिकारियों की नियुक्ति होनी चाहिए। यह व्यवस्था होनी चाहिए कि एक अधिकारी एक गाँव के मुखिया के रूप में काम करे, एक अन्य अधिकारी दस गाँवों के मुखिया के रूप में काम करे, तीसरा अधिकारी बीस गाँवों के पीछे हो, चौथा सौ गाँवों और पाँचवाँ एक हजार गाँवों के पीछे हो। इसके अतिरिक्त प्रत्येक दस गाँवों के पीछे एक पुलिस स्टेशन की शाखा हो और ऐसी दो शाखाओं के साथ एक मुख्य पुलिस स्टेशन बनाया जाय । इस प्रकार के पाँच मुख्य पुलिस स्टेशनों के ऊपर एक तहसील हो और दस तहसीलों के साथ एक जिला । एक गाँव का अधिकारी या प्रशासक दस गाँवों के अधिकारी को प्रतिदिन अपने गाँवों में हुए अपराधों आदि की सूचना दे। इसी तरह दस गाँवों सौ गाँवों के अधिकारी अपनी रिपोर्ट बीस गाँवों के अधिकारी के सम्मुख रखे और बीस गाँवों का अधिकारी सौ गाँवों के अधिकारी से एवं सौ गाँवों के अधिकारी हजार गाँवों के अधिकारी से और हजार गाँवों का अधिकारी दस हजार गाँवों के अधिकारी से मिले । दस हजार गाँवों का अधिकारी अपनी रिपोर्ट उस सभा के सम्मुख प्रस्तुत करे जो लाख कस्बों का शासन करती है और ऐसी सब सभाएँ उस सर्वोच्च अन्तर्राष्ट्रीय परिषद् को रिपोर्ट दें जो सारे संसार का प्रतिनिधित्व करती हो । प्रत्येक दस हजार गाँवों पर दो ऐसे अधिकारी हों जिनमें एक सभा का सभापतित्व करे और दूसरा सम्पूर्ण देश का भ्रमण करे और सभी मजस्ट्रेिटों व अन्य अधिकारियों के कार्यों का योग्यतापूर्ण निरीक्षण करे।”

उल्लेखनीय है कि यद्यपि दयानन्द ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में अनेक स्थलों पर चक्रवर्ती राज्य की धारणा अभिव्यक्त की है और अपनी कुछ प्रार्थनाओं में आर्यों के लिए विश्व-साम्राज्य के उपहार की याचना की है, लेकिन उनका यह भाव प्रतीत नहीं होता कि ये भारतीयों को साम्राज्यवाद के पथ पर अग्रसर करना चाहते थे अथवा वे विश्व-विजय की राजनीतिक कामना से प्रेरित थे। स्वामी दयानन्द नैतिकता के पुजारी थे और भारत की नैतिक विजय में उनकी गहन आस्था थी, अतः उनके साम्राज्य का स्वरूप नैतिक और आध्यात्मिक ही हो सकता था, राजनीतिक नहीं। हाँ, उन्हें इस गौरव की अनुभूति निःसन्देह थी और होनी भी चाहिए थी कि प्राचीन भारत में बहुत से चक्रवर्ती शासक उत्पन्न हुए थे, प्राचीन भारत की गौरव-पताका विदेशों के लिए ईर्ष्या की वस्तु थी। दयानन्द को इस बात का हार्दिक क्लेश था कि वही भारत अब विदेशियों से पदाक्रान्त था और देशवासी अपनी महान् संस्कृति को विस्मृत कर पश्चिम की भौतिकवादी संस्कृति के पीछे भाग रहे थे।

अन्तर्राष्ट्रीयतावाद

दयानन्द हिन्दू पुनरुत्थानवाद के प्रतीक थे, भारतीय राष्ट्रवाद के पुजारी थे, लेकिन उनकी ये धारणाएँ स्वस्थ अन्तर्राष्ट्रीयतावाद का खण्डन नहीं करती थी। हिन्दुओं को अपनी पतनोन्मुख अवस्था से ऊपर उठाने की प्रबल उत्कंठा दयानन्द में थी, लेकिन उनके हृदय में सम्पूर्ण विश्व के लिए सद्भाव था। लॉर्ड लिटन द्वारा दिल्ली में दरबार आयोजित करने के अवसर पर उन्होंने धर्मों की सभा का संयोजन किया और हिन्दुओं तथा मुसलमानों की एकता पर बल दिया । स्वामी जी ने कहा कि दोनों जातियों को परस्पर मिल-जुलकर देश के लिए कार्य करना चाहिए। उन्होंने एक धर्म द्वारा दूसरे धर्म पर आक्रमण की प्रवृत्ति को उकसाने के स्थान पर यही उपदेश दिया कि सभी धर्म अपनी विभिन्न मान्यताओं के साथ जीवित रह सकते हैं। दयानन्द की आपत्ति तो इस बात पर थी कि इस्लामी और ईसाई तत्व हिन्दू धर्म पर आक्रमण करने से बाज नहीं आ रहे थे, और इसलिए अपने धर्म के बचाव में उन्होंने प्रत्याक्रमण का सहारा लिया ताकि हिन्दू धर्म पर हमले की बजाय “उन्हें अपनी स्थिति बचाने की फिक्र हो।” वैसे, दयानन्द का मूल विश्वास था कि सभी धर्मों का शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व सम्भव है। “दयानन्द धार्मिक एकता के आधार पर विश्व एकता के आकाँक्षी थे और अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने देश के विभिन्न धार्मिक नेताओं से विचार-विमर्श किये।” नैतिक और आध्यात्मिक धरातल पर स्वामी दयानन्द पूर्व और पश्चिम की एकता के निमित्त धर्मोपदेश देने से कतराए नहीं। दयानन्द में मानवता और विश्व-बन्धुत्व के प्रति अद्भुत लगन थी और उसकी पूर्ति की दिशा में काम करने में उन्हें सदैव प्रसन्नता होती थी।

अहिंसा, दैविक नियमों की श्रेष्ठता आदि

स्वामी दयानन्द ने अहिंसा की एक व्यावहारिक धारणा प्रस्तुत की। उन्होंने पूर्ण अहिंसा को अव्यावहारिक मानते हुए राजनीतिक मामलों में दण्ड-व्यवस्था की अनिवार्यता को स्वीकार किया और कहा कि अपराधियों को शारीरिक दण्ड मिलना ही चाहिए। यदि राज्याधिकारी किसी हत्यारे अथवा डाकू को शारीरिक दण्ड देते हैं तो इसमें दुःख की कोई बात नहीं है, आखिर भगवान् भी तो पापियों को दण्डित करते ही हैं। न्याय के संस्थापन के लिए सार्वजनिक जीवन में दण्ड व्यवस्था अपर्याप्त है पर दयानन्द ने अपने व्यक्तिगत जीवन में इतने ऊँचे दर्जे की अहिंसा का पाठ ग्रहण किया कि विष देकर मारने का प्रयत्न करने वाले को भी उन्होंने क्षमा कर दिया। “उसके रसोइये जगन्नाथ को धन का प्रलोभन देकर उन्हें दूध के साथ विष दे दिया गया “महर्षि ने उसे 200 रु० दिये और ब्रिटिश राज्य को छोड़कर नेपाल चले जाने को कहा ताकि दूसरे राज्य में जाकर वह कानून के पाश से बच सके। अपने प्राणघाती को भी जीवन-दान देना उनके हृदय की महानता को प्रकट करता है ।” दयानन्द बहुत ही व्यावहारिक विचारक थे, अतः उन्होंने पूर्ण अहिंसा को अपने व्यक्तिगत जीवन तक ही सीमित रखना उचित समझा, किन्तु सार्वजनिक जीवन के लिए पूर्ण अहिंसा पर बल नहीं दिया।

दयानन्द आध्यात्मिक पुरुष थे, अत: दैविक नियमों की श्रेष्ठता में उनका विश्वास स्वाभाविक था। उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में केवल ईश्वर की प्रभुसत्ता को ही स्वीकार किया, अन्य किसी सत्ता को अपने व्यक्तिगत जीवन में महत्व नहीं दिया, लेकिन सामाजिक जीवन में राज्य के महत्व में विश्वास प्रकट करते हुए कहा कि बिना राज्य के किसी प्रकार के समाज में व्यवस्था नहीं रह सकती। दयानन्द ने राज्य को पूर्णतः समाप्त कर देने की बात कभी नहीं की। ईश्वरीय कानून और राजकीय कानून में उन्होंने ईश्वरीय कानून की श्रेष्ठता प्रदान की और ईश्वरीय सार्वभौमिक सत्ता को स्वीकार किया।

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