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फजल के राज्य, राजा एवं राजसत्ता संबंधी विचार

फजल

फजल के राज्य, राजा एवं राजसत्ता संबंधी विचार

फजल केन्द्रीकृत प्रशासन के पक्षधर हैं। वह राजा से यही अपेक्षा करते हैं कि वह राज्य कार्य में सक्रिय रुचि ले, जनहित को सर्वोपरि रखे, अधिकारियों और कर्मचारियों पर निगरानी रखे और समस्त प्रशासन पर प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करे ताकि कोई गलत काम न हो। यद्यपि अधिकारियों में पद सोपान अवश्य होता है, लेकिन राजा को प्रत्येक से व्यक्तिगत सम्पर्क ही होना चाहिये। मनसबदार, नाजिम, सुबेदार, परगना अधिकारी, जागीरदार, काजी एवं अन्य अधिकारियों के बीच तालमेल आवश्यक है। इन अधिकारियों के निजी जीवन और उनकी अन्य प्रवृत्तियों की जानकारी हेतु यह आवश्यक था कि राजा मेलों, बाजारों और भोजों का आयोजन कराये ताकि प्रजा और अधिकारियों की प्रतिक्रिया का पता चल सके और यह जनसम्पर्क राज्य की भलाई के लिए सहायक होता है।

अबुल फजल ने समाज को चार भागों में बाँटा-प्रथम स्थान शासकों और योद्धाओं को; द्वितीय विद्वानों, दार्शनिकों एवं लेखकों को; तृतीय स्थान व्यापारियों और कलाकारों को और अन्तिम स्थान कृषकों एवं श्रमिकों को दिया गया। समाज के इस विभाजन की हिन्दू वर्ण व्यवस्था से तुलना की जा सकती है। हिन्दू वर्ण व्यवस्था में जहाँ ब्राह्मण को सर्वोच्च स्थान है वहाँ फजल के द्वारा वर्णित व्यवस्था में क्षत्रिय को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। प्लेटो द्वारा वर्णित व्यवस्था हिन्दू वर्ण व्यवस्था से ज्यादा मिलती-जुलती है। यद्यपि वह केवल तीन ही वर्गों की बात करते हैं। प्लेटो के चिन्तन और हिन्दू चिन्तन में दार्शनिकों, चिन्तकों, ऋषियों को उच्चतम स्थान दिया गया है।

अबुल फजल की सबसे बड़ी विशेषता उनके धर्म निरपेक्ष एवं समन्वयवादी चिन्तन में है। बर्नी की भांति वह इस्लामिक राज्य की बात नहीं कहते और न ही राज्य का कार्य गैर मुसलमानों का बलात धर्म परिवर्तन बताते हैं। वह न्याय की स्थापना हेतु परम्परागत विधि पर ही बल देते हैं, जिसका अर्थ यह हुआ कि राज्य समाज के मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप न करे। लेकिन साथ ही वह यह भी चाहते हैं कि राज्य उन परिस्थितियों का निर्माण करे, जिसमें धार्मिक और सामाजिक सहिष्णुता एवं सौहार्द्र बना रहे। यहाँ वह राज्य का सकारात्मक सहयोग चाहते हैं।

फजल राजा को ईश्वर की रोशनी मानते हैं और इसलिये वह केवल ईश्वरीय कानून की परिधि में ही आबद्ध हैं, मानवीय कानून से वह ऊपर है। फजल का मानना है कि जब ईश्वर किसी पर अपनी कृपा की बौछार करता है, तो उसे संप्रभुता प्रदान करता है और इसके साथ उसे बुद्धि, धैर्य, दूरदर्शिता और न्यायप्रियता भी देता है ताकि वह जनहित में कार्य करे और परिचित मित्रों और अजनबियों के बीच सन्तुलन स्थापित कर सके। उनके साथ एक सा ही बर्ताव करे ताकि यह न लगे कि उसमें प्रतिशोध की भावना और पूर्वाग्रह है।

आइने अकबरी के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि अकबर के समय में भी सत्ता केन्द्रीकृत ही थी, लेकिन राजा का सामाजिक व्यवस्था में कोई खास दखल नहीं था। अकबर के समय मनसबदारी व्यवस्था थी, जो कि फारस की नकल पर थी, लेकिन ग्रामीण व्यवस्था में न्याय प्राय: पंचायतों द्वारा ही किया जाता था और केन्द्रीय सत्ता का इस पर कोई विशेष प्रभाव प्रतीत नहीं होता। भू-व्यवस्था के बारे में भी यह कहा जा सकता है कि चाहे सिद्धान्त में खेती की जमीन राजा की थी, लेकिन व्यवहार में जमीन का जोतने वाला ही उसका स्वामी था। हाँ, निर्धारित राजस्व जरूरं उसे देना पड़ता था। विकेन्द्रित सत्ता होने के कारण राजनीति, शहरों, बड़े कस्बों एवं कुछ प्रमुख घरानों तक ही सीमित थी, राज्य का कार्य प्राय: कानून और व्यवस्था तक ही सीमित था। आध्यात्म के क्षेत्र में उसकी दखल नहीं थी ! तुलसीदास की रामायण में इसकी स्पष्ट झलक देखने को मिलती है। अबुल फजल लिखते हैं कि राजा को मिलने वाला कर एक प्रकार से उसका वेतन है, जो जनता पर सुशासन करने और न्याय करने के एवज में मिलता है। यहाँ अनुबन्ध सिद्धान्त की झलक अवश्य मिलती है, लेकिन यह फजल का मन्तव्य संभवतः नहीं था। वह दैविक सिद्धान्त के प्रतिपादक भी नहीं हैं। जब वह कहते हैं कि राजा पृथ्वी पर ईश्वर की रोशनी है, इसका मतलब यह नहीं है कि ईश्वर ने प्रजा पर शासन करने के लिए उसका निर्माण किया है। इसका मतलब केवल यही है कि ईश्वर की भांति उसमें दया, करुणा, सहिष्णुता एवं न्याय करने की भावना होनी चाहिये। ईश्वर की कृपा से ही उसे यह पद प्राप्त होता है।

अबुल फजल का समस्त चिन्तन अकबर के व्यक्तित्व से प्रभावित प्रतीत होता है। जैसा कि कहा जा चुका कि अकबर फजल का नायक, एक आदर्श राजा एवं तेजस्वी पुरुष है। वह न्याय प्रिय है। वह सौम्य एवं सहिष्णु है। फजल का अकबर के नेतृत्व में मुगल साम्राज्य का आकलन यह है कि वह समन्वय, सौहार्द्र, स्थायित्व एवं सुशासन लिये हुए है। इसमें शान्ति, सुरक्षा, धार्मिक सहिष्णुता एवं स्वतंत्रता है। इसमें आर्थिक प्रगति है। फजल ऐसे लोक कल्याणकारी राज्य के भौगोलिक विस्तार की कामना करते हैं ताकि अधिकाधिक लोगों को इससे लाभ प्राप्त हो सके। यह लोगों के धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक हितों के अनुकूल है। वस्तुत: फजल मुगल साम्राज्य के नैतिक और बौद्धिक आधार को स्पष्ट करते हैं।

यह बात सही है कि फजल अकबर के व्यक्तित्व के आधार पर ही राजा के पद की आवश्यकता और उसमें निहित गुणों का वर्णन करते हैं। उनके अनुसार राजा का पद अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना समाज के परस्पर विरोधी तत्त्व एक-दूसरे को नष्ट करने के लिए संघर्षरत रहेंगे। अत: उसका कर्तव्य है कि वह इन तत्त्वों को नियंत्रण में रखकर समाज में शांति और व्यवस्था की स्थापना करे। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वह निरंकुश बनकर राजसत्ता के माध्यम से अपनी वासना की तृप्ति करे और सत्ता सुख में मदान्ध हो जाये। उसका मुख्य कार्य जनता की भलाई करना है। राजा को न्यायप्रिय, बुद्धिमान, बहादुर और आकर्षक व्यक्तित्व वाला होना चाहिये। उसमें सहिष्णुता, खुला दिमाग और न्याय करने की क्षमता होनी चाहिये। फजल को ये सारे गुण अकबर में मिले।

फजल की कट्टर मुस्लिम समुदाय ने कड़ी आलोचना की। उन्हें नास्तिक, अधार्मिक एवं मुस्लिम विरोधी तक कहा गया। उसके कई समकालीन लोगों ने उसकी कड़े शब्दों में भर्त्सना की। खान-ए-आजम ने तो यहाँ तक कह दिया कि फजल ने पैगम्बर के विरुद्ध ही बगावत कर दी। उनके बारे में जहाँगीर ने भी इस बात का समर्थन किया है और यही एक बड़ा कारण रहा हो, जिसकी वजह से उसके इशारे पर फजल की हत्या की गयी। उनके बारे में कहा गया कि वह अग्नि पूजक हिन्दू है। फजल ने स्वयं आइने अकबरी में अपने विरोधियों द्वारा उनकी की गयी भर्त्सना का वर्णन किया है। लेकिन फजल बड़े साहस और निर्भीकता के साथ अपने विचारों पर डटे रहे और पुरातन पंथियों और परम्परावादियों की आलोचना करते रहे। फजल ने बताया कि जो चीज विदेक सम्मत नहीं है, उसको स्वीकार कैसे किया जा सकता है। कालान्तर में पुस्तकों में लिखी बात पुरानी पड़ जाती है और इसलिए उन्हें स्वीकार करने के पूर्व उन पर विचार करना आवश्यक है। यद्यपि वह स्वयं धार्मिक पुरुष थे, लेकिन धर्म को उन्होंने कभी कट्टरपनऔर संकीर्णता से नहीं जोड़ा। जो मनुष्य को अन्धकार से प्रकाश की ओर नहीं ले जाये। वह धर्म हो ही नहीं सकता। विवेक और तर्क का कहीं धर्म से विरोध नहीं है।

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