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इस्लामिक चिंतन के आधार

इस्लामिक चिंतन के आधार

इस्लामिक चिंतन के आधार

इस्लामिक राजनीतिक संगठन के तीन मुख्य आधार हैं-

  1. शरियत और सुन्ना,
  2. खलीफा, और
  3. उम्मा

ये आधार इस प्रकार हैं। शरियत और सुन्ना पवित्र कुरान की ओर से निर्धारित आचरण और पैगम्बर द्वारा स्थापित एवं स्वीकृत परम्परायें हैं। खलीफा से अभिप्राय उस संस्था के प्रतिनिधि से है जिसमें धार्मिक एवं सियासी शक्तियाँ निहित हैं। उम्मा में अभिप्राय समाज अथवा जाति से है जिसके सदस्य अल्ला को मानने वाले हैं एवं सही रास्ते पर चलते हैं। वस्तुत: राज्य शरियत को कार्यान्वित करने के लिए है जिसमें खलीफा और उम्मा की अपनी अपनी भूमिकायें हैं।

कुरान लौकिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में अन्तर नहीं करती। इसका अर्थ यह हुआ कि राजनीति और धर्म में कोई अन्तर नहीं है। पवित्र कुरान ही राजनीति का स्रोत है यद्यपि राजनीति का कोई सर्वमान्य निर्धारित स्वरूप नहीं है। कुरान में राज्य की कोई अवधारणा वर्णित नहीं है, केवल समाज का स्वरूप ही दिया हुआ है। इस्लामिक राजनीति और प्रशासन के स्वरूप की व्याख्या कुरान में वर्णित दो उदाहरणों द्वारा की जा सकती है।

ईश्वर ने तुम्हें इस पृथ्वी पर उत्तराधिकारी बनाया है। तुममे से किन्हीं को अन्य लोगों की तुलना में उच्च पदों पर भी बिठाया है। तुम ईश्वर द्वारा निर्धारित परीक्षा में सफल सिद्ध हो।

यदि कोई तीन आदमी अपने को असमंजस की स्थिति में पायें तो उनमें से किसी एक को नेता चुने बिना उसका साथ रहना उचित नहीं है।

इसकी राजनीतिक शब्दावली में इस प्रकार की व्याख्या की जा सकती है। एक व्यवस्थित समाज के बिना इस्लाम नहीं है, नेता के बिना समाज नहीं है और आज्ञा पालन के बिना नेतृत्व नहीं है। आदमियों का नेता शरीर में आत्मा की भाँति है।

यहाँ समाज, धर्म और नेता तीनों का समन्वय हो जाता है। दूसरे शब्दों में, धर्म सर्वोपरि है और नेता के मार्गदर्शन में समाज का संचालन इस प्रकार होना चाहिये जिससे धर्म के अनुसार आचरण हो सके। नेता का अस्तित्व ईश्वर सम्मत है। ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में स्वयं पैगाम्बर ने मदीना में कबाइली व्यवस्था को एक राजनीतिक समुदाय का स्वरूप प्रदान किया और एक प्रकार से यही राज्य की उत्पति का आधार बन गया। इस्लाम ने कभी सांसारिक सरकार की स्थापना पर बल नहीं दिया। यह अल्ला के मानने वालों पर छोड़ दिया गया कि वह कैसी व्यवस्था चाहते हैं जो कि कुरान के आदेश के अनुरूप हो। किसी सांसारिक आदमी में इतनी शक्ति नहीं कि वह कानून बनाये। इसलिये सम्प्रभुता अल्लाह में निवास करती है और कुरान ही सर्वोच्च विधि है।

चूँकि सम्प्रभुता अल्लाह में निवास करती है और कुरान ही सर्वोच्च विधि है अत: सांसारिक शासन निरंकुश नहीं हो सकता। वह कानून से ऊपर नहीं है। उसका कर्तव्य है कि वह कानून के मुताबित ही काम करे, वह कानून से बंधा हुआ है। हजरत अबू बेकर ने जो मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी थे, अपने चयन के उपरान्त उपस्थित लोगों को कहा ‘मुझे आप लोगों की सलाह और सहायता चाहिये। यदि मैं ठीक काम कर रहा हूँ तो मुझे समर्थन दीजिये। यदि मैं त्रुटि करता हूँ तो सलाह दीजिये। शासक को सच बोलना चाहिये और सत्य को छुपाना राजद्रोह है। मेरी नजर में शक्तिशाली और निर्बल समाज है और मुझे दोनों के प्रति न्याय करना है। जैसे मैं ईश्वर और उसके पैगम्बर की आज्ञा पालन करता हूँ वैसे तुम मेरी आज्ञा का पालन करो। यदि मैं ईश्वर और उसके पैगम्बर के कानूनों की अवज्ञा करता हूँ तो मुझे कोई अधिकार नहीं है कि मैं तुम्हें मेरी आज्ञा मानने के लिए कहूँ। उमर ने जो कि द्वितीय खलीफा थे, अपने साथियों को सम्बोधित करते हुए कहा कि ‘मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि राज्य संचालन के बोझ को ढोहने में हाथ बटाओ, जिसे तुमने मेरे कन्धों पर डाल दिया है। मैं तुम में से एक हूँ और इसलिये जो मैं कहूँ उससे प्रभावित मत हो जाओ। तुम स्थिति को समझकर अपनी राय दो।

एक बार स्वयं मोहम्मद ने अपने दो विश्वासी सहयोगियों अबु बेकर और उमर को कहा यदि तुम दोनों किसी एक बात पर सहमत हो तो मैं तुमसे अहमत नहीं होऊंगा ।

अन्त में हम प्रोफेसर कमरूद्दीन द्वारा इस्लामिक राज्य के बारे में दिये गये विचारों को प्रस्तुत करते हैं-

  1. पवित्र कुरान या सुन्ना में मुसलमानों को राज्य की स्थापना करने का कोई आदेश नहीं है।
  2. पवित्र कुरान या सुन्ना में संवैधानिक विधि या राजनीतिक सिद्धान्त का कोई प्रावधान नहीं है, वह शान्तिमय है।
  3. पैगम्बर मोहम्मद ने एक राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना अवश्य की, लेकिन यह उनका ध्येय नहीं था, यह तो ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज थी।
  4. इस्लाम का राजनीतिक सिद्धान्त कुरान या सुन्ना पर आधारित नहीं है बल्कि पैगम्बर के साथियों की सहमति एवं खलीफाओं के अमल पर आधारित था। यह ऐतिहासिक परिस्थितियों में उत्पन्न हुआ था और इसलिये इसके पीझे कोई धार्मिक मान्यता नहीं है।
  5. प्रतिनिधित्व, हस्तान्तरण एवं दैविक संप्रभुता केवल काल्पनिक है। इनका कुरान या सुन्ना में कोई आधार नहीं है।
  6. राज्य समाज की केवल एक गतिविधि है और इसके लिए अनिवार्य नहीं है। अत: इस्लामिक समाज राज्य के साथ या राज्य के बिना भी कार्य कर सकता है। भारत, श्रीलंका, सोवियत यूनियन, बर्मा, थाईलैंड, फिलीपीन्स एवं अनेक अफ्रीकी देशों में बहुत बड़ा मुस्लिम समुदाय रहता है। इन देशों में इस्लाम केवल धार्मिक आन्दोलन के रूप में कार्य कर सकता है न कि राजनीतिक शक्ति के रूप में।
  7. इस्लाम का ध्येय महत्वपूर्ण और सुपरिभाषित मूल्यों के आधार पर अपने ढंग की सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है। कोई भी मुसलमानों द्वारा स्थापित राज्य जो समाज में इन मूल्यों का निर्माण करता है, इस्लामिक राज्य है, चाहे इसके ढाँचा या प्रकार कैसा भी हो।
  8. कुरान इन मूल्यों को बताती है, न कि राज्य के ढाँचे को।
  9. स्थाई इस्लामिक संविधान जैसी कोई वस्तु नहीं है। इस्लामिक राजनैतिक सिद्धान्त बदलता और विकसित होता रहता है।

सार रूप में यह कहा जा सकता है कि इस्लाम का शास्त्रीय सिद्धान्त पैगम्बर और उनके बाद खलीफाओं के इर्दगिर्द अवस्थित है जिनमें लौकिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार की शक्तिययाँ निहित थी। इन्होंने उस आधारशिला की स्थापना की जिसके अनुसार समाज का जीवन संचालित होने को था। यद्यपि इनका मुख्य कार्य आध्यात्मिक था, लेकिन लौकिक पक्ष को इससे पृथक् नहीं किया जा सकता था।

इस प्रकार ये लोग शासक, न्यायाधीश और सेनाध्यक्ष सभी कुछ थे। शुद्ध इस्लाम एक प्रकार से शास्त्रीय हिन्दू धर्म से मिलता जुलता है क्योंकि हिन्दू धर्म भी लौकिक जीवन को आध्यात्मिकता के अधीन करता है। लेकिन दोनों में एक बड़ा अन्तर भी है। जहाँ इस्लाम एक ही व्यक्ति में समस्त शक्तियाँ केन्द्रित कर देता है वहाँ हिन्दू धर्म ये कार्य दो भिन्न प्रकार के समुदायों को देता है। ब्राह्मण आध्यात्मिक नेता होने के कारण यद्यपि क्षत्रिय से ऊपर है, लेकिन वह सांसारिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता। इस प्रकार हिन्दू धर्म शक्तियों के विभाजन के पक्ष में है और एक दूसरे के कर्त्तव्य (धर्म) में हस्तक्षेप करने के विरुद्ध है।

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