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कौटिल्य की दण्ड व्यवस्था

कौटिल्य की दण्ड व्यवस्था

कौटिल्य की दण्ड व्यवस्था

(THE THEORY OF PUNISHMENT)

कौटिल्य ने न्याय-व्यवस्था के साथ-साथ दण्ड-व्यवस्था का भी विवेचन किया है। दण्ड के सम्बन्ध में कौटिल्य ने इस बात पर बल दिया है कि जनता को सही मार्ग पर लाने के लिए राजा द्वारा दिया गया दण्ड न तो आवश्यकता और औचित्य से अधिक होना चाहिए और न ही कम । राजा को सोच-समझकर उचित दण्ड की ही व्यवस्था करनी चाहिए।

दण्ड के सम्बन्ध में कौटिल्य समानता के सिद्धान्त को नहीं मानते। इस सम्बन्ध में उनके द्वारा महिलाओं और बालकों की निर्बल स्थिति को ध्यान में रखते हुए उनके लिए अपेक्षाकृत कम दण्ड की व्यवस्था की गयी है और इस सम्बन्ध में वर्ण व्यवस्था के आधार पर भी भेद किया गया है। कौटिल्य का विचार है कि दण्ड अपराध के अनुकूल हो। चाहिए तथा दण्ड वर्ग, लिंग तथा अवस्था एवं अपराध की परिस्थितियों का समुचित ज्ञान करके दिया जाना चाहिए।

उसने अपराधियों के लिए तीन प्रकार के दण्डों की व्यवस्था की है शारीरिक दण्ड, आर्थिक दण्ड तथा कारागार । शारीरिक दण्ड के अन्तर्गत कोड़े मारना, अंग छेदन, हाथ-पैर बाँधकर उल्टा लटकाना, ब्राह्मण तथा उच्च वर्गों के अपराधियों के माथे पर अपराधसूचक चिह्न अंकित करना तथा भीषण अपराधों के लिए प्राणदण्ड की व्यवस्था की गयी है। आर्थिक दण्ड को मुख्यतया तीन श्रेणियों में रखा गया है : प्रथम, मध्यम तथा उत्तम साहस दण्ड । प्रथम साहस दण्ड की सीमा 48 से 96 पण तक, मध्यम की 200 से 500 पण तक तथा उत्तम की 500 से 1,000 पण तक बतायी गयी है। इसके अतिरिक्त विविध छोटे छोटे अपराधों के लिए अलग-अलग राशि के अर्थ दण्डों का विधान यत्र-तत्र किया गया है। उसने कारागारों की समुचित व्यवस्था करने पर भी बल दिया है।

इस प्रकार कौटिल्य के द्वारा कठोर दण्डों की व्यवस्था की गयी है, विशेषतया शारीरिक दण्ड के रूप में अंग छेदन, कोड़े लगाने और उल्टे लटकाने आदि के दण्ड अमानुषिक प्रकृति के लगते हैं; किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि प्राचीन भारत में दण्ड की ये विधियाँ प्रचलित थीं और प्राचीन भारत के अन्य आचार्यों द्वारा भी कठोर दण्डों का ही समर्थन किया है। अतः यही कहना होगा कि दण्ड-व्यवस्था करने में कौटिल्य आदर्शवादी की अपेक्षा व्यावहारिक ही अधिक है।

कौटिल्य की अर्थ-व्यवस्था

(ECONOMIC SYSTEM)

एक यथार्थवादी राजशास्त्री होने के नाते कौटिल्य की राजनीतिक विचारधारा में अर्थ-व्यवस्था को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। कौटिल्य का विचार है कि जब तक राज्य पर्याप्त समृद्धशाली नहीं होता, तब तक उसके द्वारा अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती है। कौटिल्य ने कोष को राज्य का एक प्रमुख तत्व माना है किन्तु साथ ही वह चेतावनी देता है कि कोष वृद्धि के साधनों को अपनाते हुए राजा मनमाने ढंग से जनता का शोषण न करे। डॉ० श्यामलाल पाण्डेय के अनुसार कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित आर्थिक नीति के तीन मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं :

  1. राज्य के अत्यन्त महत्वपूर्ण उद्योगों पर शासन का प्रत्यक्ष स्वामित्व हो,
  2. अन्य उद्योगों पर जनता के निजी स्वामित्व को बनाये रखा जाए,
  3. व्यक्ति द्वारा व्यक्ति के शोषण को रोकने के लिए राज्य में अर्थ व उत्पादन, वितरण तथा उपभोग पर राज्य का नियन्त्रण हो।

कर-व्यवस्था

कौटिल्य के अनुसार आय प्राप्ति का प्रमुख साधन कर व्यवस्था है और कर व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि राज्य में व्यापार और उद्योग आधिकाधिक फले-फूले । कर लगाने में सम्बन्धित पक्ष की आय की तथा कर देने की क्षमता को दृष्टि में रखा जाना चाहिए। उद्योग के शैशवकाल में ही उस पर अधिक कर नहीं लगाया जाना चाहिए, अन्यथा वह उद्योग विकसित नहीं हो सकेगा। राज्य की जनता के लिए नितान्त आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन या आयात पर बहुत ही कम लेकिन आवश्यक तथा सुख-ऐश्वर्य के लिए आयातित वस्तुओं पर अधिकाधिक कर लगाये जाने चाहिए। धार्मिक संस्कारों से सम्बन्धित पदार्थों पर उत्पादित तथा आयात कर नहीं लगाया जाना चाहिए।

कौटिल्य ने खर्च की प्रमुख मदों का भी उल्लेख किया है। ये हैं राज कर्मचारियों की विशाल संख्या को दिया जाने वाला, राजा के द्वारा देव तथा पितृ पूजन, दान, शाही मह का व्यय, दूत, कोष्ठागार, पण्य गृह, चतुरंगिणी सेना का व्यय, जीव-जन्तुओं के संग्रह में व्यय, उद्यान, तालाब, मार्ग आदि के निर्माण का व्यय, जन कल्याण के लिए किये जाने वाले विविध कार्यों का व्यय, आदि । कौटिल्य ने राजकीय करों की वसूली नियमित ढंग से करने और राजकीय आय-व्यय का लेखा जोखा नियमित ढंग से रखने पर बल दिया है। कौटिल्य ने वित्तीय लेखे की व्यवस्था का भी विवेचन किया है। इस प्रकार कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में वर्णित वित्तीय व्यवस्था भी उतनी ही व्यापक और यथार्थवादी है, जितनी कि प्रशासनिक व्यवस्था की विवेचना है।

वैदेशिक सम्बन्ध या परराष्ट्र नीति

(EXTERNAL AFFAIRS OF THE STATE)

एक राजनीतिक विचारक के रूप में कौटिल्य का विशेष महत्व यह है कि उसने न केवल राज्य के आन्तरिक प्रशासन के सिद्धान्तों का वर्णन किया है वरन् उसने उन सिद्धान्तों का भी उल्लेख किया है जिनके आधार पर एक राज्य द्वारा दूसरे राज्यों के साथ अपने सम्बन्ध निर्धारित किये जाने चाहिए। उसने ‘अर्थशास्त्र’ में विदेश नीति का विशद् विवेचन किया है तथा विदेशों में राजदूत और गुप्तचर रखने के विषय पर भी विचार किया है। इस क्षेत्र में कौटिल्य प्लेटो और अरस्तू से निश्चित रूप से आगे है। दूसरे राज्यों के साथ व्यवहार के सम्बन्ध में उसने दो सिद्धान्तों का विवेचन किया है-पड़ोसी राज्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए मण्डल सिद्धान्त और अन्य राज्यों के साथ व्यवहार निश्चित करने के लिए 9 लक्षणों वाली षाड्गुण्य नीति।

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