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महाभारत काल में अंतरराज्यीय संबंध और राजनीतिक नैतिकता

महाभारत काल में अन्तर्राज्यीय संबंध 

महाभारत काल में अंतरराज्यीय संबंध 

महाभारत काल में अंतरराज्यीय सम्बन्धों और राजनीतिक क्रियाकलापों में नैतिकता का विवरण हमें आदि पर्व के अन्तर्गत मिलता है। इस समय अधिकांश राज्यों का शासनाधार राजतंत्र शासन प्रणाली प्रचलित थी। कुछ गणराज्यों का भी उल्लेख ऐसा प्रतीत होता है कि इन सभी गणराज्यों ने परस्पर मिलकर एक संघ बना लिया था जिसके प्रधान श्रीकृष्ण थे। वस्तुतः महाभारत काल में विशाल राज्यों की स्थापना पर विशेष ध्यान दिया जाता था। राजा साम्राज्यवादी भावना से परिपूर्ण थे और ‘अर्द्धराज्य’, ‘महाराजाधिराज’ ‘सम्राट’ की उपाधि धारण करते थे। ‘चक्रवर्ती’ सम्राट बनना और अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करवाना राजा का मुख्य लक्ष्य होता था। महाभारत में युधिष्ठिर का उल्लेख चक्रवर्ती सम्राट के रूप में मिलता है।

महाभारत काल में राज्यों के आपसी सम्बन्धों का उल्लेख आदि पर्व के अनुसार दो तरह से किया गया है-राजनीतिक सम्बन्ध और आर्थिक या व्यापारिक सम्बन्ध । जहाँ तक राजनीतिक सम्बन्धों का प्रश्न है, इस युग में राजनीतिक सम्बन्ध भी दो प्रकार के थे- मित्रतापूर्ण सम्बन्ध और राज्यों की तटस्थतापूर्ण स्थिति । राज्यों के मित्रतापूर्ण सम्बन्ध किसी विशेष मैत्री-संधि के माध्यम से अथवा वैवाहिक सम्बन्धों के माध्यम से स्थापित होते थे। महाभारत के आदि पर्व के अनुसार मैत्री-संधियाँ सामान्यतः समान स्थिति वाले राज्यों के बीच सम्पन्न होती थी। ऐसी संधियों का मुख्य उद्देश्य परस्पर राजनीतिक सम्प्रभुता शक्ति को मान्यता देना और आवश्यकता के अनुसार एक दूसरे की सहायता करना होता था। इस प्रकार की मैत्री-संधियों का युद्धकाल में विशेष महत्व होता था । महाभारत काल में राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के अन्तर्गत तटस्थता की स्थिति का भी विशेष महत्व था। विशाल राज्य युद्ध के महत्व की दृष्टि से अपने पड़ोसी राज्यों को शक्ति के आधार पर अथवा प्रलोभन के आधार पर अथवा अन्य प्रकार से तटस्थ रहने के लिए सम्बन्ध बनाते थे। इस प्रकार के पारस्परिक सम्बन्ध अस्थायी होते थे और युद्ध की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो जाते थे। राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के अन्तर्गत वैवाहिक सम्बन्धों का उल्लेख भी महाभारत काल में मिलत है। युद्ध के समय पराजित होने पर विजयी राजा के साथ अथवा युद्ध से बचने के लिए विशाल राज्यों के राजाओं के साथ कमजोर राजा अपनी पुत्री का विवाह सम्बन्ध स्थापित कर लेते थे। श्रीकृष्ण ने रुक्म को पराजित कर रुक्मिणी से विवाह कर लिया था। इस प्रकार महाभारत काल में राज्यों के पारस्परिक सम्बन्ध राजनीतिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण होते थे।

महाभारत काल में आदि पर्व के अन्तर्गत हमें तत्कालीन अन्तर्राज्यों तथा विदेशों से उनके व्यापार सम्बन्धों का पता चलता है। आदि पर्व के अनुसार पाण्डवों को पूर्वी देशों से हाथी, पश्चिमी देशों से ऊँट, कम्बोज से ऊनी वस्त्र, सिन्धु देश से शाल आदि उपहार में मिले थे। महाभारत में समुद्री यात्राओं, द्वीपों, जलपोतों, नौकाओं आदि का उल्लेख है। स्पष्ट है कि इस काल में विदेशों से और देशी राज्यों से अनेक तरह के व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित थे। इस काल में यद्यपि उद्योग व्यापार का कार्य मुख्यतः वणिकों के हाथ में था, तथापि राज्य द्वारा उन्हें पर्याप्त संरक्षण और सुविधा दी जाती थी और विशेष रूप से विदेशी एवं अन्य राज्यों से आर्थिक सम्बन्ध बनाये रखने का प्रयास किया जाता था। इस प्रकार महाभारत काल में राज्यों के पारस्परिक सम्बन्ध आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से अत्यधिक सुदृढ़ और स्थायी थे।

महाभारत काल में राजनीतिक नैतिकता

महाभारत काल में राजनीतिक नैतिकता, राज्य व्यवस्था और शासन प्रबंध एवं स्वयं राजा के लिए अत्यधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण होती थी। महाभारत के शांतिपर्व के अनुसार राजा ही प्राणियों का रक्षक व विनाशक होता था। ‘चरित्रेण राजन्ते इति राजा’ की मान्यता के अनुसार राजा में चारित्रिक गुणों का रहना आवश्यक माना जाता था। इन्हीं चारित्रिक गुणों की असाधारणता के कारण राजा को देव समान समझा जाता था। महाभारत के शंतिपर्व में राजनीति तथा मानवीय अस्वार का उपदेश दिया गया है। वस्तुतः महाभारत काल में राजवंशों के लिए जिस शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था थी, उसमें नैतिक शिक्षा पर विशेष बल दिया जाता था। तत्कालीन हिाक्षा-व्यवस्था में गुरु से आशा की जाती थी कि वह शिष्य के नैतिक बल में वृद्धि करे, निष्पक्ष भावना से कार्य करे और अपने आचरण एवं व्यवहार में त्याग तथा नैतिक आदर्शों का पालन करे। महाभारत के अनुसार स्वयं गुरु को भी पवित्रता, नैतिकता और सदाचार के नियमों का पालन करना आवश्यक बताया गया है।

महाभारत काल में राजनीतिक दृष्टि से नैतिकता और सदाचार का सम्बन्ध राजा के मूल कार्यों से जुड़ा हुआ था। महाभारत में नैतिक आदर्शों और सत्य के पालन के लिए ‘भीष्म की प्रतिज्ञा’, युधिष्ठिर की अनेक स्थानों पर पराजय और कर्त्तव्य-पालन के फलस्वरूप अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा। इस सन्दर्भ में यह कहना समीचीन होगा कि सम्पूर्ण महाभारत का युद्ध पांडवों द्वारा नैतिक नियमों के पालन और सत्य की रक्षा करने का ही परिणाम था। यह नैतिकता का ही परिणाम था कि महाभारत युद्ध में पांडवों के मामा राजा शल्य पांडवों के पक्ष से युद्ध करने जा रहे थे, परन्तु धोखे से कौरवों द्वारा प्रस्तुत रात्रि विश्राम का भोजन ग्रहण कर लेने के पश्चात् ये कौरव-सेना में सम्मिलित हो गये। नैतिक मान्यता के आधार पर ही महाभारत युद्ध में भीष्मपितामह द्रोणाचार्य आदि ने कौरव सेना की ओर से युद्ध किया।

महाभारत काल का रण-विधान भी पूर्णतः नैतिक था। क्षत्रिय यशोपार्जन, वीरगति तथा अपने स्वामी और अपने नेता के लिए युद्ध करते थे। तत्कालीन समय में युद्धकालीन कुछ नैतिक व्यवस्थाएँ थीं। पतित, कायर, स्त्री, स्त्रीनामधेय, नपुंसक, पराजित या घायल व्यक्ति, शरणागत, शस्त्रहीन, कवचहीन आदि पर प्रहार नहीं किया जाता था। युद्ध प्रायः दिन में होते थे एवं सूर्यास्त के बाद युद्ध बन्द कर दिया जाता था। नियमानुसार युद्ध की घोषणा होती थी। आक्रमण या प्रहार करने के पूर्व विरोधी अथवा शत्रु को सूचित करना नैतिक मान्यता थी। विश्वास देकर धोखा करना अथवा घबराहट में डाल कर प्रहार करना अथवा छलना अनुचित माना जाता था। परन्तु शत्रु प्रदेश को नष्ट करना अथवा उसे अग्नि से भस्म कर देना नीतिपूर्ण माना जाता था। इसी प्रकार शत्रु की सेना में फूट डालना अथवा द्वेष फैलाकर उसकी शक्ति क्षीण कर देना राजनीति मानी जाती थी। कभी-कभी कूटनीति और छलनीति से भी शत्रु का दमन किया जाता था। महाभारत काल में युद्ध में पराजित व्यक्तियों को कभी कभी दास के रूप में परिणित कर दिया जाता था। यदि कोई विजेता अपने विरोधी या पराजित व्यक्तियों को कैद कर लेता था, तो वह एक निश्चित अवधि तक उसका दास रहता था। यदि विजेता ऐसे व्यक्ति को अपनी दासता से मुक्त कर देता था तो वह उसे गुरु या पिता के समान ही मानता था। महाभारत काल में आत्मसमर्पण का रूप दांतों में तृण दबाकर विजेता के सामने उपस्थित हो जाना पड़ता था। इस तरह के आत्मसमर्पण का तात्पर्य विजेता की प्रभुसत्ता तथा युद्ध में अपनी पराजय को स्वीकार करना होता था।

महाभारत के युद्ध में दुर्योधन ने अनीति, छलकपट और कूटनीति आदि से अपने शत्रु पांडवों को पराजित करने और उनका सर्वनाश करने के लिए अनेक प्रयास किये। कृष्ण ने द्रोणाचार्य का बध कराने के लिए सत्यवादी युधिष्ठिर से मिथ्या भाषण कराया, कौरवों के सैनिकों तथा सेना अधिकारियों ने छल-कपट से अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु का वध किया । कूटनीति, छलनीति, अनीति के प्रयोग के बाद भी योद्धाओं और सैनिकों के कुछ युद्ध सम्बन्धी नैतिक नियम थे जिन्हें तत्कालीन योद्धा पूर्णतः मानते और उसका पालन करते तो । क्षत्रिय युद्ध करना अपना जातिगत कर्त्तव्य समझते थे और युद्धभूमि में युद्ध करते हुए मृत्यु को प्राप्त करना श्रेष्ठ धर्म मानते थे। परन्तु युद्धपामि से भाग जाना अथवा युद्ध में पीठ दिखाना अत्यधिक लज्जाजनक और अपमानजनक माना जाता था। इसी प्रकार अतिथि सत्कार करना, शरणागत की रक्षा करना, स्त्रियों की रक्षा करना, धर्म और ब्राह्मणों की रक्षा करना, कृतज्ञता प्रगट करना तथा द्यूतक्रीड़ा की चुनौती को स्वीकार करना क्षत्रियों और योद्धाओं का धर्म माना जाता था।

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