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जैन तथा बौद्धकालीन गणराज्यों की शासन-व्यवस्था और उनके पतन के कारण

जैन तथा बौद्धकालीन गणराज्य 

जैन तथा बौद्धकालीन गणराज्य

बौद्ध साहित्य में वर्णित महाजनपदों के अतिरिक्त ईसा पूर्व छठीं-शताब्दी में कुछ प्रमुख गणराज्यों का भी उल्लेख मिलता है, जो इस प्रकार है-

  1. कपिलवस्तु के शाक्य,
  2. वैशाली के लिच्छवि,
  3. रामग्राम के कोलिय,
  4. पिप्पलिवन के मोरिय,
  5. कुशीनगर के मल्ल,
  6. पावा के मल्ल,
  7. मिथिला का विदेह गणराज्य,
  8. सुमसुमार गिरि के मग्ग,
  9. केसपुत के कलाम, और
  10. अल्लकल्प का बुलि गणराज्य।

तत्कालीन इन सभी गणराज्यों को दो श्रेणियों में रखा गया था- राजशब्दोपजीविनः और वार्ताशस्त्रोपजीविनः। प्रथम श्रेणी के गणराज्य राजशब्दोपजीविनः के अन्तर्गत वे गणराज्य थे, जिनमें गणराज्यों के प्रधान को राजा शब्द से सम्बोधित किया जाता था, अर्थात् जिनके अध्यक्ष राजा कहलाते थे और उनका निर्वाचन करने वाले भी स्वयं को राजा कहते थे। इस श्रेणी में लिच्छवि, पांचाल, मल्ल आदि गणराज्य थे। द्वितीय श्रेणी में वे गणराज्य थे जिनके नागरिक कृषि कार्य तथा सैन्य-निपुणता, दोनों को साथ-साथ महत्व देते थे। तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था के अनुसार सभी नागरिकों के लिए सैनिक कार्यों में निपुण होना आवश्यक था। ऐसा प्रतीत होता है कि राजशब्दोपजीविनः गणराज्य में एक नियमित एवं वैतनिक सेवा रहती थी, इसके विपरीत वार्ताशस्त्रोपजीविनः गणराज्य में उनके सभी नागरिक सैनिक माने जाते थे। वे एक ही साथ कृषि भी करते थे तथा सैनिक कार्यों में भी निपुण होते थे। पालि ग्रंथों के अनुसार इनको ‘आयुधजीवि’ भी कहा जाता था। कन्नौज तथा यौधेय राज्य इसी श्रेणी में आते थे।

शासन-व्यवस्था

जैन तथा बौद्ध कालीन राज्य व्यवस्था के अन्तर्गत उक्त गणराज्यों में शासन का स्वरूप इस प्रकार था-

नागरिकता

ईसा पूर्व छठी शताब्दी की शासन-व्यवस्था के अन्तर्गत गणराज्यों में प्रत्येक व्यक्ति जन्म से समान माना जाता था और समस्त कुल भी समान माने जाते थे। यहाँ कुल-राज्यों से तात्पर्य राजा के वंश से है तथा राजा के वंश से तात्पर्य उन क्षत्रिय कुलों से है जिनका शासन के लिए अभिषेक होता था और जो स्वयं को राजा कहते थे। इन कुलों के प्रतिनिधि या सदस्य राजा की सर्वोच्च व्यवस्थापिका के सदस्य होते थे। राज्य के महत्वपूर्ण पदों पर कुलपुत्रों की नियुक्ति की जाती थी अर्थात् प्रशासकीय अधिकार कुलपुत्रों के हाथ में ही था। कुलपुत्रों को भी इसके लिए अपनी योग्यता और क्षमता सिद्ध करनी पड़ती थी। कुलपुत्र एक वर्गविशेष के प्रतिनिधि होने पर भी स्वयं को संघ या गणराज्य के प्रतिनिधि मानते थे। यह तथा उनके प्रजातंत्रात्मक दृष्टिकोण का परिचायक है। गणराज्यों में सभी नागरिकों को स्वतंत्रता तथा समानता प्राप्त थी। गणराज्यों में सभी प्रशासकीय पदों पर अधिकारियों की नियुक्ति योग्यता एवं क्षमता के आधार पर करते थे। स्पष्ट है कि इन गणराज्यों में व्यक्ति के स्थान पर गुणों का आदर किया जाता था।

शासन का स्वरूप-

बौद्धकालीन गणराज्यों में शासन एवं सत्ता का अधिकार व्यक्ति विशेष के हाथों में केन्द्रीभूत न होकर जनता के विभिन्न प्रतिनिधियों के हाथ में रहता था। प्रशासन के सूत्र वंशपरम्परागत किसी व्यक्ति के हाथ में नहीं, अपितु गणराज्यों के परिषदों के हाथों में होता था। इस परिषद के सदस्य उच्चवर्ग के कुलीन लोग होते थे। राज्य का सर्वोच्च अधिकारी गणराज्य में राज्य का नायक, प्रधान या राष्ट्राध्यक्ष माना जाता था। उसका उत्तरदायित्व शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित करना था। इसका निर्वाचन गण या संघ की सभा द्वारा निर्वाचित होता था। उसकी आवश्यक योग्यता में पौरुष, साहस, बुद्धि-विवेक, अनुभव और धर्मशास्त्रियों का ज्ञान आवश्यक रूप में होता था । वह गणराज्य की सभा के अधिवेशनों में सभा की अध्यक्षता करता था।

मंत्रिपरिषद-

गणराज्यों में दैनिक शासन के संचालन के लिए एक मंत्रिपरिषद होती थी। सामान्य कार्यकारिणी की शक्तियाँ परिषद के मंत्रियों के हाथ में रहती थी। परिषद के सदस्यों की संख्या गणराज्य के विस्तार के आधार पर निर्भर करती थी। मंत्रियों की संख्या प्रायः सीमित होती थी। लिच्छवि गणराज्य में मंत्रिपरिषद में नौ सदस्य तथा मल्लों की मंत्रिपरिषद में केवल चार सदस्य थे। शासन के विभिन्न विभाग इन मंत्रियों को दिये जाते थे।

व्यवस्थापिका सभा-

प्रत्येक गणराज्य की एक व्यवस्थापिका सभा होती थी जिसे संथागार कहते थे। इसमें सभी वर्गों के प्रतिनिधि सदस्य होते थे जो चरित्रवान एवं प्रतिछित कुल के होते थे। इन सदस्यों को राजा तथा उनके पुत्रों को उपराजा की उपाधि दी जाती थी। सम्भवतः संथागार में उनके ग्राम तथा नगर-सभाओं के नागरिकों द्वारा निर्वाचित अध्यक्ष भी सदस्य होते | इस व्यवस्थापिका सभा में विभिन्न संघों के भी प्रतिनिधि होते थे। बड़े एवं विशाल गणराज्यों में केन्द्रीय संथागार, प्रान्तीय संथागार तथा नगरीय संथागार भी होते थे, परन्तु छोटे गणराज्यों में केवल केन्द्रीय संथागार ही होते थे। इन संथागारों के अधिकार व्यापक होते थे। यह संस्था राज्य के सर्वोच्च अधिकारी यथा-राष्ट्राध्यक्ष, सेनापति, मंत्रियों और प्रशासकीय अधिकारियों की नियुक्ति एवं अनुमोदन करती थी।

संथागार गणराज्य की विभिन्न समस्याओं पर विचार-विमर्श करती थी। यह राज्य की शासन-नीति निर्धारित करती थी और राजनीतिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करती थी। इसके अतिरिक्त यह विदेशनीति का निर्धारण, संधि-विग्रह का निर्णय, राजदूतों की नियुक्ति आदि भी करती थी। संथागार राज्यों के कानूनों, शासनविधियों तथा नीतियों का निर्माण करती थी और उन्हें व्यवहारिक रूप देती । संथागार का निर्णय बहुमत के आधार पर होता था।

न्याय-व्यवस्था-

गणराज्य में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए न्याय की समुचित व्यवस्था थी। विभिन्न अपराधों की रोकथाम होती थी। प्रारम्भ में अपराधी बन्दी बनाकर ‘विनिश्चिय महामात्र’ के पास भेजा जाता था, जो अपराध की जाँच करता था। यदि वह अपराधी को निर्दोष पाता तो उसे मुक्त कर देता था, परन्तु यदि अपराधी को दोषी पाया जाता, तो ‘व्यावहारिक नामक अधिकारी के पास भेज देता था जो उसे दण्डित करता था। तत्कालीन न्याय व्यवस्था में व्यवहारिक, सूत्रधार, अठ्ठकुलक, उपराजा तथा राजा मुख्य अधिकारी होते थे। अपराध की गम्भीरता के आधार पर अपराधियों को दण्ड दिया जाता था। ‘पवेणि-पोत्थक’ नामक कर्मचारी दण्ड की व्यवस्था करता था। इस काल में दण्ड-विधान कठोर था।

गणराज्यों में न्याय व्यवस्था का स्वरूप प्रजातांत्रिक था। अपराधी को अपने को निर्दोष सिद्ध करने का पूरा अवसर दिया जाता था। व्यक्ति के पूर्णता अपराधी सिद्ध होने पर ही दण्ड दिया जाता था । न्यायाधीश के पक्षपातपूर्ण निर्णय को रोकने के लिए न्याय के आठ अधिकारियों (अठ्ठकुलक) के सामूहिक निर्णय की व्यवस्था थी। गणराज्यों मेंबऔद्योगिक क्षेत्र से सम्बद्ध विवादों में न्याय के लिए ‘पूग’ तथा ‘श्रेणी’ नामक संस्थायें थीं।

पुलिस-व्यवस्था-

अपराधी प्रवृत्ति के दमन हेतु पुलिस व्यवस्था थी। पुलिस को ‘रक्षिण’ कहते थे। रक्षिण का कार्य अवैध वस्तुओं तथा अस्त्र-शस्त्रों को रखने वालों को पकड़ना तथा अन्य प्रकार के अपराधी को रोकना था। अग्निकांड को रोकना भी इसका प्रमुख कार्य था। इसके लिए अनेक महत्वपूर्ण स्थानों पर जलकुंडों की व्यवस्था होती थी। यदि किसी व्यक्ति की असावधानी से आग लगती थी, तो उस पर 54 पण का जुर्माना किया जाता था। यदि जानबूझकर कोई व्यक्ति आग लगाता था तो उसे जीवित ही आग में झोंक दिया जाता था।

गणराज्यों के पतन के कारण

जैन तथा बौद्धकालीन गणराज्यों को ईसापूर्व तीसरी और चौथी शताब्दी तक पार्श्ववर्ती राजाओं ने अपने राज्य में मिला लिया था और वे प्रायः लुप्त हो गये । इन गणराज्यों के पतन के निम्न कारण थे-

  1. गणराज्यों में पारस्परिक राजनीतिक ईर्ष्या-द्वेष अधिक था, जिसके फलस्वरूप उनमें संघर्ष तथा युद्ध होते रहे तथा उनकी शक्ति क्षीण होती गई।
  2. गणराज्यों की व्यवस्थापिकाओं एवं संथागारों में गुटबन्दी व्याप्त होने से उसके सदस्य में एकता एवं संगठन का अभाव हो गया। उनके नेता एवं सदस्यगण राज्य के हितों की अपेक्षा व्यक्तिगत हितों को अधिक महत्व देने लगे थे।
  3. तत्कालीन गणराज्यों में राष्ट्रीय भावना का अभाव हो गया। राजतंत्रात्मक गणराज्यों में राजाओं की स्वेच्छाचारिता के कारण भारतीय जीवन में नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ और सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन क्षेत्र के आदर्श लुप्त हो गये। इन सबके फलस्वरूप गणराज्यों की जीवन-पद्धति में भी नैतिकता और आदर्श लुप्त हो गये।
  4. ईसा पूर्व पाँचवीं और चौथी शताब्दी के बाद से राजाओं के स्वेच्छाचारी आचरण के कारण प्रजा-प्रतिनिधियों की शक्ति क्षीण हो गई और राज्यपक्ष के समर्थक-सामन्तों की शक्ति बढ़ने लगी, जिससे गणतंत्रों को आघात पहुँचा ।
  5. ईसा पूर्व छठी शताब्दी के बाद ऐसे बड़े गणराज्यों-मगध, अवन्ति, कोसल आदि का उदय हो रहा था जिनमें राजतंत्र अधिक लोकप्रिय हो गया। तत्कालीन राजागण अपने पौरुष, विजय और प्रजावत्सलता के कारण सामान्य जनता में अधिक जनप्रिय हो रहे थे और उन्हें देवतुल्य मान्यता प्राप्त होने लगी थी। इस प्रकार उनके देवत्व एवं श्रेष्ठ राजनीतिक आदर्शों ने गणराज्यों के प्रतिनिधियों और अध्यक्षों की अपेक्षा सामान्य व्यक्तियों को अपनी ओर अधिक आकृष्ट किया।
  6. कालान्तर में राजतंत्र के दृढ़ एवं सफल शासन, सुदृढ़ एवं स्थायी विदेशनीति तथा राज्य-विस्तार की प्रवृत्ति के फलस्वरूप गणराज्यों की अपेक्षा राजतंत्र को अधिक लोकप्रिय बनाया। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के बाद भारतीय राजनीति में लोकतंत्रीय विधान के स्थान पर ‘शक्ति-विधान’ को मान्यता मिली और राष्ट्रीय जीवन का स्थान ‘स्थानीयता’ ने ले लिया, जिसके फलस्वरूप नये राज्य स्थापित हुए और इनमें अपने अस्तित्व की रक्षा तथा सीमा-विस्तार लिए परस्पर संघर्ष होने लगा। इस तरह राजनीतिक क्षेत्र से प्रजातंत्रात्मक भावना समाप्त हो गई और उनके स्थान पर राजतंत्र शक्तिशाली हो गया।

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