राजनीतिक चिन्तन
राजनीतिक चिन्तन में कौटिल्य का योगदान
(KAUTILYA’S CONTRIBUTION TO POLITICAL THOUGHT)
पश्चिमी राजदर्शन के जनक अरस्तू के समान ही कौटिल्य को भारतीय राजदर्शन का जनक कहा जा सकता है। सालेटोर के इस विचार में तनिक भी अतिश्योक्ति नहीं है कि “प्राचीन भारत की राजनीतिक विचारधाराओं में सबसे अधिक ध्यान देने योग्य कौटिल्य की विचारधारा है।”
मैक्समूलर, ब्लूमफील्ड, डनिंग इत्यादि लेखकों के अनुसार भारतवर्ष में राजनीतिक दर्शन की स्वतन्त्र रूप से उत्पत्ति नहीं हुई। भारतीय लेखक केवल धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों की ही उच्चता प्राप्त कर सके । परन्तु 1915 ई० में जब पहली बार कौटिल्य के अर्थशास्त्र का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया गया तो भारतीय और पाश्चात्य राज चिन्तन के क्षेत्र में हल-चल मच गयी। ईसा के लगभग 300 वर्ष पूर्व लिखा हुआ यह ग्रन्थ मैक्समूलर, डनिंग आदि लेखकों के कथन की असत्यता को प्रकट करता है। कौटिल्य ने राजनीति को एक पूर्ण विज्ञान मानकर उसका पृथक् वर्णन किया है।
राजनीतिक चिन्तन को कौटिल्य का अर्थशास्त्र सभी पूर्वगामी अर्थशास्त्रों अर्थात् राजनीतिक विचारों का सार है। यद्यपि कौटिल्य के पूर्व भी भारत के अनेक राजनीतिक विचारक हुए जिनमें वृहस्पति, भारद्वाज और वातव्याधि का नाम प्रमुखतया लिया जा सकता है और कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में इन विचारकों का उल्लेख किया है। किन्तु इनकी विचारधारा यत्र तत्र बिखरी हुई थी और इनमें से किसी के भी द्वारा विषय का वैज्ञानिक ढंग से विवेचन नहीं किया गया है। रामास्वामी का कथन है कि “कौटिल्य का अर्थशास्त्र कौटिल्य से पूर्व की रचनाओं में इधर-उधर बिखरी हुई राजनीतिक बुद्धिमत्ता और शासन कला के सिद्धान्तों एवं कला का संग्रह है, कौटिल्य ने शासन कला से एक पृथक् और विशिष्ट विज्ञान की रचना करने के प्रयास में उनका नवीन रूप में विवेचन किया है।”
द्वितीय, कौटिल्य के पूर्व भारत में जो राजनीतिक विचारक हुए, वे सभी धर्मप्रधान दृष्टिकोण वाले थे और उनके द्वारा धर्म तथा नैतिकता की पृष्ठभूमि में ही राजनीतिक विचारों की विवेचना करने का कार्य किया था। किन्तु कौटिल्य ही प्रथम विचारक है, जिसने राजनीति की एक स्वतन्त्र विषय के रूप में विवेचना की और इस प्रकार राजनीति को वह स्थान प्रदान किया, जिसकी वह वस्तुतः अधिकारिणी थी। इस प्रकार कौटिल्य ने भारत में वही कार्य किया, जो कार्य उसके समकालीन विचारक अरस्तू यूनान में कर रहे थे। कौटिल्य ने राजनीति की एक स्वतन्त्र विषय के रूप में जो विवेचना की, उसका भारतीयों के मानस पर अत्यन्त स्वस्थ प्रभाव पड़ा और जैसा कि श्री कृष्णराव ने कहा है, “अर्थशास्त्र का सर्वाधिक महत्व इस बात में है कि इसने भारतीय स्वभाव और चरित्र की पारलौकिकता की ओर अधिक झुके होने की प्रवृत्ति के दोष को सुधारने का कार्य किया।”
तृतीय, कौटिल्य एक यथार्थवादी विचारक था और उसने शासन व्यवस्था, सेना, युद्ध, दूत और राजस्व आदि विषयों की विवेचना की। वह ‘अर्थशास्त्र’ को एक सर्वांगीण कृति और कौटिल्य को एक यथार्थवादी विचारक सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। कौटिल्य की यह धारणा थी कि राजा को अपना शासन ऐसे मन्त्रियों के परामर्श से चलाना चाहिए; जो निःस्वार्थ, त्यागी और योग्य हों, आज भी नितान्त सत्य है। कौटिल्य ने राज्य के लोकहितकारी कार्यों की जो व्यवस्था की है, उससे वह लोकल्याणकारी व्यवस्था के जनक के रूप में हमारे सामने आता है। कौटिल्य का राजा को यह उपदेश करना कि शासकों को प्रजा के धर्म में कभी हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को धर्मपालन की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए, इस बात को सिद्ध करती है कि धर्मनिरपेक्ष राज्य का आदर्श रूप कोई आज के युग की देन नहीं है। कूटनीति और राज्य के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में उसने जो कुछ कहा है, वह आज भी चरितार्थ हो रहा है। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में व्यक्त ये भी विचार स्थायी मूल के हैं, जिनकी आज भी अवहेलना नहीं की जा सकती। इस दृष्टि से कौटिल्य नं केवल एक यथार्थवादी वरन् अत्यन्त दूरदर्शी विचारक है।
चतुर्थ, कौटिल्य ने न केवल राजनीतिक विचारों का प्रतिपादन किया वरन् अपने व्यावहारिक कार्यों के आधार पर देश को एक सुदृढ़ व केन्द्रीकृत शासन प्रदान किया, जैसा कि उसके पूर्व भारतीयों ने कभी भी नहीं जाना था। उसने विशाल मौर्य साम्राज्य की स्थापना की और साम्राज्य के महामन्त्री के रूप में अपने प्रशासनिक सिद्धान्तों को सफलतापूर्वक क्रियान्वित किया। इस दृष्टि से कौटिल्य राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित ही नहीं, वरन् भारत के महान् पुत्र और भारतीय इतिहास के महान् नायक के रूप में हमारे सामने आता है। एक अत्यन्त कठिन समय में उसने अपने देश की महती सेवा की है। बन्द्योपाध्याय ने ठीक ही लिखा है कि, “महाकाव्यों तथा पुराणों के वीर पुरुषों के बाद भारतीयों का अन्य किसी नाम से इतना परिचय नहीं है जितना कि चाणक्य के नाम से। सम्पूर्ण भारत में शासन कला तथा कूटनीति का अध्ययन आरम्भ करने वालों को अभी तक उनके नाम से सम्बन्धित नीतियाँ सिखायी जाती हैं।”
पंचम, कौटिल्य ने राज्य के अन्य कार्यों में से मुख्य कार्य यह बताया है कि उसकी सीमाओं का विस्तार हो । अर्थात शासक की सफलता इस बात पर भी निर्भर है कि वह अपना साम्राज्य विस्तार करने में कहाँ तक सफल है। कौटिल्य के साम्राज्य विस्तार के विचारों से भले नैतिकता के पुजारी सहमत न हों, परन्तु आदि काल से लेकर आधुनिक युग में राज्यों का विस्तार उन्हीं उपायों द्वारा किया गया है जो कौटिल्य ने बताये हैं। कौटिल्य ने स्वयं ही एक विशाल राज्य का निर्माण किया था। प्लेटो और अरस्तू को सैद्धान्तिक जगत् से व्यावहारिक जगत् में आते ही असफलता का सामना करना पड़ा परन्तु कौटिल्य राजनीति विचारक के अतिरिक्त व्यावहारिक राजनीतिज्ञ भी था। वह अपने आदर्शों को यथार्थ में परिणत करना जानता था। उसने मानव स्वभाव को पहचानने में न तो प्लेटो की तरह धोखा खाया और न हॉब्स आदि की तरह वह बहका।
षष्ठ, जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि कौटिल्य राज्य की उन्नति, प्रगति और विस्तार को राज्य के कार्यों को एक आवश्यक अंग मानता है और ऐसा करने के लिए वह साम, दाम, दण्ड, भेद सभी उपायों को उचित बताता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि व्यावहारिकता के क्षेत्र में आते ही वह राजनीति और नैतिकता में सम्बन्ध विच्छेद कर देता है। मैकियावेली को, जिसने कौटिल्य के ही समान नैतिकता और राजनीति में सम्बन्ध विच्छेद किया, राजनीति दर्शन में आधुनिक युग का पिता होने का श्रेय प्राप्त है। मैकियावेली ने अपने ग्रन्थों की रचना 16वीं शताब्दी में की। कौटिल्य की दूरदर्शिता इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि जो कुछ मैकियावेली ने 16वीं शताब्दी में लिखा, कौटिल्य उसको लगभग 2,000 वर्ष पूर्व लिख चुका था।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र एक ऐतिहासिक वस्तु है। इसका मूल महत्व इस तथ्य में है कि यह कोरी आदर्शवादी रचना नहीं प्रत्युत सम्पूर्ण उपयोगितावादी व्यावहारिक रचना है। इससे भारतीय मन की रचनात्मकता का आभास मिलता है। यह ग्रन्थ सर्वप्रथम 1909 ई० में श्याम शास्त्री द्वारा प्रकाश में लाया गया और तभी से सारे संसार में राजनीतिक चर्चा का विषय बन गया है।
पाश्चात्य राजनीति में जो कार्य अरस्तू, मैकियावेली और बेकन ने मिलकर किया भारत में वह अकेले चाणक्य ने सम्पादित किया-यहाँ तक कि उसके बाद यहाँ राजनीतिक विचार-चिन्तन के लिए कोई तथ्य ही छूटा हुआ नहीं लगा और इसलिए उसके बाद इस चिन्तन की यह धारा एक तरह से सूख ही सी गयी।
व्यक्तिगत मत जो कुछ भी हो किन्तु कौटिल्य की विदेश नीति के सिद्धान्तों का आज की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति और समस्याओं में बहुत अधिक मूल्य है।
अन्त में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कौटिल्य एक व्यावहारिक राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने जो भी सिद्धान्त बनाये उन्हें स्वयं प्रयोग करके देखा । मौर्य साम्राज्य के बाद भारत में जब तक राजागण कौटिल्य के सिद्धान्तों का पालन करते रहे तब तक भारत उन्नति के चरम शिखर पर चढ़ता रहा उसके बाद हिन्दू साम्राज्य का धीरे-धीरे पतन शुरू हो गया।
कौटिल्य कल्याणकारी राज्य समर्थक था, वह निरंकुश राज्य नहीं चाहता था। कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित राजनीति के सिद्धान्त उच्च कोटि के तथा मौलिक हैं। वह हमारे समक्ष राजनीति को एक विज्ञान के दृष्टिकोण में रखता है या यदि हम यह कहें कि अर्थश, 7 के द्वारा कौटिल्य राजनीति का पुर्ननिर्माण करता है अतिश्योक्ति न होगी। घोषाल के अनुसार, “It involves a virtual reconstruction of the science.” संक्षेप में, कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ राजनीति पर, आज तक लिखे गये उच्च श्रेणी के ग्रन्थों में रखा जा सकता है।
महत्वपूर्ण लिंक
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