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कौटिल्य की प्रशासनिक-व्यवस्था

कौटिल्य की प्रशासनिक-व्यवस्था

कौटिल्य की प्रशासनिक-व्यवस्था

(Administrative System of Kautilya)

राजा तथा मन्त्रिपरिषद् के अतिरिक्त प्रशासनिक-व्यवस्था के व्यावहारिक संचालन के सम्बन्ध में भी कौटिल्य ने स्पष्ट और निश्चित विचार व्यक्त किया है। उसके ये विचार उसकी व्यावहारिक प्रशासन सम्बन्धी सूझ बूझ के परिचायक हैं। कौटिल्य का राज्य बहुत कुछ सीमा तक एक कल्याणकारी राज्य है और उसने प्रशासनिक व्यवस्था का विषद् विवेचन किया है। उसके अनुसार सम्पूर्ण प्रशासन को राजस्व, सेना, वाणिज्य, व्यापार, कृषि, वन और शिल्पकला आदि विभिन्न विभागों में विभक्त किया जाना चाहिए और प्रत्येक विभाग का एक अध्यक्ष होना चाहिए। राज्य के प्रमुख मन्त्रियों, अमात्यों, विभागाध्यक्षों एवं अधिकारी वर्गों को कौटिल्य अष्टादश (18) तीर्थों की संज्ञा देते हैं। ये तीर्थ मन्त्री, पुरोहित, सेनापति, युवराज, द्वापारिक, अन्तर्वेशिक (अंगरक्षक तथा अन्तपुर का रक्षक), समाहर्बी (Collector General), सन्निधात्री (मुख्य कोषाध्यक्ष), प्रवेष्ट्री (आयुक्त), नायक (नगर रक्षक), पौर (नगर का प्रधान), व्यावहारिक (दीवानी न्यायाधिकारी), कार्यान्तिक (कारखानों का अध्यक्ष), मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष, विभागाध्यक्ष, दण्डपाल (सेना विभाग का अधिकारी) तथा दुर्गपाल होते थे। कौटिल्य ने अनेक प्रशासनिक विभागों के अध्यक्षों का उल्लेख करते हुए उनके कर्त्तव्यों की विशद् व्याख्या की है।

कौटिल्य के अनुसार प्रशासनिक कार्य अत्यन्त योग्य अधिकारियों द्वारा किया जाना चाहिए और राजा द्वारा इन अधिकारियों के कार्यों तथा चरित्र पर कड़ी निगरानी रखी जानी चाहिए। इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि इन अधिकारियों में न तो बहुत अधिक संगठन और न ही संघर्ष; वरन् इन अधिकारियों में सामान्य सम्बन्ध होने चाहिए। यदि उनमें संगठन हो जाता है तो वे राजा के विरुद्ध विद्रोह की चेष्टा कर सकते हैं, और यदि उनमें संघर्ष रहता है तो वे प्रशासनिक व्यवस्था का संचालन असम्भव कर देंगे।

कौटिल्य ने यह व्यवस्था दी है कि राज्य के उच्चस्तीय अधिकारी वर्ग को अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के कार्यों तथा आचरण पर पूर्ण निगरानी रखनी चाहिए, जिससे वे अपने पद तथा अधिकारी को भ्रष्ट तरीके अपनाकर दुरुपयोग न करें और राज्य की आय तथा प्रजा के कल्याण को आघात पहुँचाकर स्वयं अपनी स्वार्थसिद्धि में न लग सकें। इन कर्मचारियों पर केवल उच्चस्तरीय अधिकारी वर्ग का ही नियन्त्रण नहीं है, वरन् उनके कार्यों तथा आचरण का निरन्तर परीक्षण करने के लिए कौटिल्य ने व्यापक गुप्तचर व्यवस्था का विधान भी किया है।

गुप्तचर व्यवस्था

कौटिल्य ने अपनी प्रशासिनक-व्यवस्था में गुप्तचर व्यवस्था को बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। गुप्तचरों के माध्यम से राजा के द्वारा तीर्थों सहित समस्त राजकर्मचारियों के आचरण तथा कार्य-कलापों का सही-सही ज्ञान रखा जाना चाहिए। उसे यह जानते रहना चाहिए कि सामान्य प्रजाजन और सरकारी कर्मचारी उसके प्रति क्या भाव रखते हैं। गुप्तचरों की सहायता से शासन के उच्च अधिकारियों के कार्यों पर तो विशेष निगरानी रखी चाहिए, क्योंकि उन्हीं पर राज्य की सुरक्षा तथा समृद्धि निर्भर करती है। कौटिल्य ने इन गुप्तचरों को अनेक श्रेणियों में विभाजित किया है तथा कापटिक, उदास्थित, गृहपातक, तापस, वैदेहक, मन्त्री, तीक्ष्ण, रसद तथा भिक्षुकी । उसके अनुसार चरों में पुरुष तथा महिला दोनों हो सकते हैं तथा इनको साधु, भिक्षुक, ज्योतिषी और अन्य प्रकार के वेषों में विचरण करना चाहिए। उन्हें सार्वजनिक स्थानों पर राजा के प्रति भावों को लेकर बनावटी झगड़े करना चाहिए, जिससे अन्य लोगों के विचार जाने जा सकें। राजा का किसी गुप्तचर पर भी पूरा विश्वास नहीं करना चाहिए। प्रत्येक गुप्तचर की देखभाल के लिए एक अन्य गुप्तचर रखे जाने चाहिए। गुप्तचर व्यवस्था का संगठन एक विभाग के रूप में किया जाना चाहिए और चरों से प्राप्त सूचना के आधार पर विभाग का अध्यक्ष समस्त सूचनाएँ राजा को देता रहे।

कौटिल्य ने चर-व्यवस्था के समस्त कार्य-संचालन में गोपनीयता बरतने का विशेष सुझाव दिया है। इस उद्देश्य से उसने चर विभागों के कार्यों के निमित्त सांकेतिक लिपि तथा भाषा के प्रयोग की महत्ता बतायी है, जिसे विभागीय व्यक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई न समझ सके । झूठे या गलत समाचार वाले चरों के लिए दण्ड की व्यवस्था भी की गयी है।

मूल्यांकन

कौटिल्य के द्वारा जिस प्रकार के व्यापक प्रशासनिक तन्त्र की व्यवस्था की गयी है और उसे कार्यकुशल बनाने के लिए जो सुझाव दिये गये हैं, उससे व्यावहारिक प्रशासन के रूप में उसके ज्ञान और उसकी दूरदर्शिता नितान्त स्पष्ट हो जाती है। इस सम्बन्ध में डॉ० बेनी प्रसाद ने विचार व्यक्त किया है कि, “अर्थशास्त्र में वर्णित प्रशासनिक व्यवस्था हिन्दू साहित्य में सर्वोत्कृष्ट है, जिसमें किसी प्रकार की कमी नहीं रह गयी है ।” प्रो० अल्तेकर का तो निष्कर्ष है कि, “इस दृष्टि से कौटिल्य का अर्थशास्त्र चिन्तनात्मक राजनीति का ग्रन्थ होने की अपेक्षा एक प्रशासक के मार्गदर्शन हेतु लिखी गयी प्रशासनिक संहिता अधिक सिद्ध होती है।”

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