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इस्लामिक चिंतन में प्रभुसत्ता की अवधारणा

इस्लामिक चिंतन में प्रभुसत्ता की अवधारणा

इस्लामिक चिंतन में संप्रभुता की अवधारणा

जैसाकि पहले उल्लेख किया जा चुका है कि इस्लामिक संप्रभुता की अवधारणा यह है कि इसका निवास अल्लाह में है। इसके मूल में यह है कि सब मनुष्य बराबर हैं और इसलिये बादशाह भी संप्रभुता नहीं हो सकता क्योंकि वह भी एक मनुष्य ही तो है। प्राकृतिक कानून जिस पर इस्लाम कई अर्थो में आधारित भी है यह कहता है कि सभी मनुष्य एक ही तरीके से जन्मते और मरते हैं। प्राकृतिक कानून शाश्वत कानून भी है और यह कुरान की अनेक आयतों में प्रतिलक्षित होता है। मनुष्य कहीं भी रहे, किसी भी देश और जलवायु में रहे, इतिहास के किसी भी काल में रहे, एकसा ही है। इस प्रकार इस्लाम एक ही झटके में जाति, रंग, देश, जलवायु के भेदभाव के बिना सभी को समान घोषित करता है।

स्वयं पैगम्बर ने 7 मार्च 632 ई० में प्रसिद्ध विदाई के संदेश में मुसलमानों के एक बड़े जलसे को सम्बोधित करते हुए कहाँ कि आज के बाद एक अरब और गैर अरब के मध्य कोई अन्तर नहीं होगा और न उनमें कोई छोटा या बड़ा होगा। इस्लाम ने आचरण संबंधी कुछ सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जिनके अनुसार छोटे से छोटा आदमी भी जीवन में उच्चतम स्थान प्राप्त कर सकता है। इसालम द्वारा निर्धारित समाज वर्गविहीन होगा, अंतर केवल उन लोगों में ही होगा जो सही और गलत रास्ते पर चल रहे हैं। इकबाल लिखते हैं कि मुसलमानों की हर गतिविधि में यह समानता व्याप्त है। नमाज पढ़ते समय भी खलीफाओं या उनकी सन्तानों के लिए कोई अलग स्थान निर्धारित नहीं किया जाता है। उपवास करते समय अमीर और गरीब दोनो ही भूख की पीड़ा को सहते हैं। मक्का की यात्रा हज करते समय भी सभी हजारों, हजारों लोग बिना सिले एक समान साधारण कपड़े के टुकड़ों में रहते हैं। जकात धनवानों द्वारा अर्जित लाभ में गरीबों को मिलने वाली राहत है।

कहने का अर्थ यह है कि जब सभी मुसलमान बराबर हैं तो संप्रभुता मनुष्य में कैसे रह सकती है। जान आस्टिन की संप्रभुता की परिभाषा है कि यह उसमें निवास करती है जो निश्चित रूप से मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ है और जो अन्य किसी उच्च की आज्ञापालन करने का आदी नहीं है और जिसकी आज्ञा की समाज स्वभावत: ही पालना करता हूँ। चूंकि स्वार्थलिप्सा के कारण मनुष्य सत्ता का दुरूपयोग करेगा और इससे समाज में असमानता फैलेगी इसलिये संप्रभुता किसी मनुष्य में निवास कर ही नहीं सकती। प्रत्येक मनुष्य चाहे वह राजा ही राजा ही क्यों न हो, उन नियमों और कानूनों के अधीन है जो कुरान पैगम्बर ने निर्धारित किये हैं। कुरान ने स्पष्ट किया है कि केवल ईश्वर ही संप्रभु है क्योंकि वह ही न्यायप्रिय और दयालु है और सभी दुर्बलताओं से ऊपर है। मनुष्य ऐसा हो ही नहीं सकता।

सत्ता के हस्तन्तरण या अल्लाह के प्रतिनिधि होने की अवधारणा इस्लाम में नहीं है। इसलिये कहा गया है कि इस्लाम में राज्य की अवधारणा नहीं है, लेकिन कुरान और पैगम्बर की शिक्षाओं के आधार पर विद्वानों ने अपने ढंग से इस्लामिक राज्य और संप्रभुता के सिद्धान्त को परिभाषित करने का प्रयास किया है। यहाँ भी विचारक दो भागों में बँट गये हैं। जो रूढ़िवादी विचारक है उनका कथन है कि ईश्वरीय सत्ता हस्तांतरित की ही नहीं जा सकती और इसलिये राजा कोई हो ही नहीं सकता। पुरातन इस्लाम राजा के पद को स्वीकार ही नहीं करता। इसका अर्थ कुछ लेखकों ने यह लगाया कि इस्लाम गणतंत्रीय राज व्यवस्था का समर्थक है, लेकिन व्यवहार में यह बात भी खरी नहीं उतरती। अधिकांश मुस्लिम देशों में या तो राजतंत्र सेना द्वारा समर्थित राजतंत्र या सैनिक तंत्र है। पाकिस्तान में सेना की सर्वोच्च भूमिका रही है। इसने जब चाहा प्रत्यक्ष रूप से सत्ता संभाल ली और जब चाहा असैनिक शासन को बर्दाश्त किया।

राजसत्ता के बारे में दूसरा दृष्टिकोण यह है कि अल्लाह स्वयं तो पृथ्वी पर आकर शासन करता नहीं इललिये वह अपनी सत्ता मनुष्यों को प्रदान कर देता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसके आधार पर राजा कुछ भी करे, इसका अर्थ यह भी नहीं है कि यह कोई दैविक सिद्धान्त है जिसका उल्लेख पश्चिमी राजनीतिक दर्शन में मिलता है। इसको इस प्रकार समझना ज्यादा उचित प्रतीत होता है-ईश्वर ने सांसारिक शासक को यह आदेश दिया है कि वह प्राकृतिक विधि के अनुसार आचरण करे, प्रजा की भलाई करे। ऐसा करने पर ईश्वर उसे सफलता प्रदान करेंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि सांसारिक शक्ति का शासक उपभोग करे, लेकिन उसे कुछ सिद्धान्तों के अनुसार ही आचरण करना पड़ेगा और इसमें उसे कोई छूट नहीं है। ये सिद्धान्त हैं-मानव समानता, इंसानियत, केन्द्रीयकरण, अनुशासन, विनम्रता, आत्मा त्याग और अनेक अन्य गुण जो कुरान में वर्णित हैं। इसके अनुसार राजतंत्र पूर्णतया प्रतिबंधित नहीं है, लेकिन उसका आचरण कुरान सम्मत होना आवश्यक है। प्रथम खलीफा ने अपनी मृत्यु शैय्या पर घोषित कर दिया था कि उन्होंने समाज के लिए एक वालि नियुक्त कर दिया है इसको कुरान में प्रदत्त इस सिद्धान्त के प्रकाश में समझा जाना चाहिये। ईश्वर की आज्ञा मानो, पैगम्बर की आज्ञा मानो, और तुममें जिसके पास (सांसारिक) सत्ता है उसकी आज्ञा मानो। इसका अर्थ यह भी हुआ कि समाज अपने मुखिया को चुनने में समर्थ और स्वतंत्र है। लेकिन कई विद्वान इस बात से सहमत नहीं है। इससे यह उलझन बनी रहती है कि राजतंत्र अथवा प्रजातंत्र में से कौनसी पद्धति इस्लाम के सिद्धान्त के अनुरूप है।

जहाँ तक सम्पत्ति के अधिकार का प्रश्न है, इस्लाम ने बड़े-बड़े प्रतिबन्ध लगाये हैं। राजनीतिक अथवा व्यक्तिगत अधिकार के रूप में सम्पत्ति की अवधारणा इस्लाम के अनुकूल नहीं है। इस्लाम के अनुसार सारी सम्पत्ति ईश्वर की है, जिसका अर्थ हुआ कि समाज की है और व्यावहारिक दृष्टि से शासक केवल उसका ट्रस्टी मात्र है, स्वामी नहीं। यह उन सब पर लागू होता है जो राजनैतिक सत्ता के धारक हैं। पैगम्बर ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा है कि वह केवल कोषाध्यक्ष और वितरण करने वाले हैं, यह तो ईश्वर स्वयं है जो देता है। जब पैगम्बर की बेटी फातिमा ने अपने आराम के लिए कुछ वस्तुओं की माँग की तो उन्होंने कहा क्या मैं तुम्हें ये चीजें देकर मैं मेरे साथियों को नजर अन्दाज कर दूं और उन्हें भूख से तड़पने दूँ।

शेरवानी के अनुसार- वह व्यक्ति जो करीब-करीब सारे अरब के ही स्वामी थे वसीयत के रूप में उनके पास न एक दिनार था न दरहम था, न एक ऊँट या गुलाम ही, न एक स्त्री या पुरुष ही। मृत्यु के समय उनका कोट भी किसी यहूदी को तीन दरहम में गिरवी रखा हुआ था। यह समझना कठिन हो जाता है कि पैगम्बर ने क्यों साधारण से साधारण कपड़ा पहना, क्यों साधारण से साधारण खाना खाया और क्यों अत्यन्त साधारण व्यक्ति का जीवन जिया जबकि उनके पास इतने बड़े राज्य की सर्वोच्च सत्ता थी। ऐसा किसी ने भी नहीं किया। यह तब ही समझ में आता है जबकि उनके विश्वास को समझे कि जो कुछ उनका है वह ईश्वर का ही है और वहतो एक मात्र इसके ट्रस्टी हैं।

क्या इस्लामिक राज्य एक धर्म सापेक्ष राज्य है, इस पर चर्चा सार्थक लगती है। यह बात सही है कि इस्लामिक राज्य एक धर्म प्रधान राज्य है और इसका धर्म इस्लाम है। पाकिस्तान एवं अन्य कई राज्यों में राज्याध्यक्ष केवल मुसलमान ही हो सकता है और अधिकांश उच्च पदों पर मुसलमान ही आसीन हैं। धर्म सापेक्ष राज्य से अभिप्राय ऐसे राज्य से है जिसमें सत्ता ईश्वर में केन्द्रित है और उसके नाम से उलेमा, पादरी अथवा पुरोहित वर्ग तथा राजा मनमाने ढंग से शासन करते हों। उस धर्म विशेष का ग्रन्थ ही सब विधियों एवं कार्यकलापों का स्रोत माना जाता है। उस ग्रन्थ की परिभाषा अथवा किसी मुद्दे पर स्पष्टीकरण का अधिकार केवल उलेमा को ही होता है। प्रायः इस वर्ग और शासक के मध्य तालमेल हो जाता है और दोनों मिलकर प्रजा पर निरंकुश होकर शासन करते हैं। जहाँ तक इस्लामिक राज्य का प्रश्न है यह स्पष्ट है कि यह धर्म साक्षेप ही है। यह भी सही है कि इसकी आड़ में उलेमा और शासक की मिली भगत ने इस्लाम के नाम पर जो चाहा सो किया है, अल्पसंख्यकों पर कहर ढाया है, मानव अधिकारों की हत्या की है और मनमाने कानून बनाये हैं। लेकिन इसका सैद्धान्तिक पक्ष आकर्षक भी लगता है। शेरवानी के अनुसार जिसको राजनीतिक सत्ता दी गयी उसे कुरान में निहित शाश्वत सिद्धान्तों को स्वीकारना पड़ेगा और पैगम्बर के आदेशानुसार आवाम के लिए अच्छे कार्य करने होंगे। यदि शासक के हृदय में प्रजा की भलाई हो, न कि निजी स्वार्थ तो वह निर्धारित सीमाओं से आगे बढ़कर कानून भी बना सकता है और अन्य कोई कार्यवाही भी। यह पैगम्बर और उनके उत्तराधिकारियों के सार्वजनिक जीवन से स्पष्ट है। मदीना में स्थापित राज्य की गतिविधियों और विधि निर्माण के विस्तृत क्षेत्र से स्पष्ट है कि राज्य की शक्तियाँ कितनी व्यापक है। स्वयं पैगम्बर ने अपने साथियों से कहा कि सांसारिक मामलों में संभवतः वे ज्यादा समझते हैं। उनके उत्तराधिकारियों ने कुरान के इन आदेशों का पूरा लाभ उठाते हुए परामर्शदात्री समितियाँ बना दी जिनमें बुद्धिमान और जाने माने मुसलमान सम्मिलित होते थे, राज्य संबंधी महत्वपूर्ण मुद्दे उनके सामने रख दिये जाते थे और बहस के उपरान्त निर्णय ले लिये जाते थे।

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