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स्वामी दयानन्द के राजनीतिक विचारों के दार्शनिक आधार

दयानन्द

दयानन्द के राजनीतिक विचारों के दार्शनिक आधार

(Philosophical Foundations of Dayanand’s Political Thought)

स्वामी दयानन्द का विश्वास था कि धार्मिक सुधारों के अभाव में राष्ट्र और समाज के पुनरुत्थान का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता । वास्तव में वे मूल से एक राजनीतिक न होकर एक महान् दार्शनिक और धार्मिक तथा सामाजिक चिन्तक थे और यही कारण है कि उनके राजनीतिक विचारों का निर्माण दार्शनिक आधारों पर ही हुआ। उन्होंने यह स्पष्ट महसूस किया कि जब तक देशवासियों से धर्म और समाज की बुराइयों को दूर नहीं किया जायगा तब तक भारत में किसी प्रकार की राजनीतिक उन्नति और प्रगति की आशा करना व्यर्थ है।

दयानन्द ने राष्ट्र और समाज को वेदों के आधार पर ज्योतिर्मय बनाने का प्रयत्न किया। उनका कहना था कि “यदि भारतीय वेदों के अनुसार अपना आचरण सम्भाल लें तो उनकी हीनता की भावना जाती रहे। उनकी मान्यता थी कि हिन्दू धर्म और वेद चिरन्तन, अपरिवर्तनीय, अकाट्य और ईश्वरीय थे तथा केवल वैदिक धर्म ही सत्य और सार्वदेशिक था । उनका नारा था-“वेदों के युग में लौटो ।” पर साथ ही वे पाश्चात्य शिक्षा, विज्ञान और समाज की भौतिक स्थितियों की बेहतरी के पक्ष में थे। दयानन्द पक्के एकेश्वरवादी थे। उनका विश्वास था कि पवित्र-जीवन-यापन द्वारा ईश्वर में सम्पूर्ण विश्वास पैदा किया जा सकता है। उन्होंने मूर्ति पूजा में अपना पूरा अविश्वास व्यक्त किया, पर ऐसा नहीं माना कि ईश्वर सर्वथा निर्गुण है। “दयानन्द तथा रामानुज के अनुसार ईश्वर निर्गुण ब्रह्म नहीं है, बल्कि वह सभी मंगलमय गुणों का भण्डार है। इसीलिए दयानन्द का उपदेश था कि नैतिक जीवन की उपलब्धि का एक मार्ग ईश्वर के गुणों का चिन्तन भी है। अपने चरित्र के इस रहस्यात्मक पक्ष के कारण वे यूरोपीय दार्शनिकों के अभिभावी बुद्धिवाद की तुलना में एक भिन्न कोटि में जा बैठते हैं।” दयानन्द ने ईश्वर तथा आत्मा की आध्यात्मिक तत्वों के रूप में मान्यता दी किन्तु उन्होंने आत्मा और परमात्मा को नहीं माना वरन् इनमें मौलिक भेद स्वीकार किया और कहा कि मुक्ति के बाद भी ब्रह्म और आत्मा में अन्तर बना रहता है। अरस्तू के समान ही स्वामी दयानन्द ने भी सृष्टि के सृजन और विनाश के आधारभूत चक्र को स्वीकार किया तथा इस सिद्धान्त की पुष्टि उन्हें ऋग्वेद में मिली।

स्वामी दयानन्द ने किसी नये धर्म का प्रचलन प्रतिपादन नहीं किया, बल्कि उनकी मान्यता का आधार विशुद्ध वेदान्त ही रहा। वैसे उन्हें विशिष्टताद्वैत का प्रतिपादक माना गया है। आत्मा, परमात्मा और प्रकृति- इन तीनों को वे स्वतन्त्र रूप से स्वीकार करते थे, लेकिन बहुत से विद्वानों के अनुसार वे मूलतः अद्वैत के ही उपासक थे। वस्तुतः एक महान् समाज सुधारक के रूप में दयानन्द का जो योगदान है, दर्शन के क्षेत्र में उनकी वैसी कोई मौलिक मान्यता नहीं जान पड़ती।

स्वामी दयानन्द परम आस्तिक थे यहाँ तक कि उन्होंने छहों दर्शनों को भी एक समान आस्तिक माना था। इस क्षेत्र में उनका सबसे बड़ा योग वेदों के अर्थ करने की रीति में है। उन्होंने महिधर, सायण और अन्य पाश्चात्य विद्वानों की प्रचलित मान्यताओं का खण्डन करके निरुक्त प्रणाली को स्वीकार किया। उन्होंने कहा-वेद में केवल धर्म की ही बातें नहीं है, उसमें विज्ञान की भी सारी बातें प्रच्छन्न हैं। वास्तव में, दयानन्द यूरोपीय विज्ञान पर तो फिदा थे, किन्तु यह सिद्ध करना चाहते थे कि इसका मूल वेद है यानी वैदिक पद्धति शुद्ध रूप से वैज्ञानिक है। इसलिए उनका वेद की व्याख्या करने का ढंग दोतरफा था। ईश्वर के लिए ऋग्वेद के पहले सूत्र के पहले मन्त्र “अग्नि मीले पुरोहितं यज्ञस्थ देव ऋत्विजं” का अर्थ करते हुए उन्होंने कहा कि “अग्नि एक ओर तो ब्रह्म का नाम है जो सब वस्तुओं को प्रकाशित करता है तो दूसरी ओर यह उस आग को सूचित करता है जो शस्त्रों से निकलकर युद्ध में विजय प्रदान करती है ।” इस प्रकार इस मन्त्र से स्वामी दयानन्द ने एकेश्वरवाद तथा गोली बारूद का रिवाज-इन दोनों को सिद्ध किया। कहने का तात्पर्य यह है कि उन्होंने भारतीय संस्कृति के नवगठन में आध्यात्मिकता और वैज्ञानिकता का समावेश किया। स्वामी दयानन्द की दृष्टि में आध्यात्मिक विकास, वैज्ञानिक उन्नति एवं सामाजिक उत्थान के लिए आवश्यक था। स्वामी दयानन्द को कुछ लोग पुराण पंथी कहते थे, लेकिन सच्चाई यह है कि पूर्व और पश्चिम का सक्रिय समन्वय जितना उनके विचारों में है, उतना अन्यत्र मिलना मुश्किल है। हाँ, इसका रूप शुद्ध भारतीय है।

स्वामी दयानन्द स्पष्टवादी और कुशाग्र थे। उनमें कोई भी बात ऐसी नहीं थी जो संदिग्ध, अस्पष्ट अथवा रहस्यमय हो। यूरोप के ईसाई धर्मनता केलविन की तरह उन्होंने स्पष्टता के साथ अपने विचारों को सामने रखा, जिसमें किसी प्रकार के समझौते की गुंजाइश नहीं थी। उनका व्यक्तित्व मार्टिन लूथर की तरह अक्खड़ था और धार्मिक समस्याओं के समाधान में वे व्यक्ति की बुद्धि को सर्वोपरि मानते थे। उन्होंने हिन्दुओं के असंख्य धर्मशास्त्रों में से कुछ को प्रामाणिक माना । यह चुनाव उनके अपने निजी विश्वासों पर आधारित था। इसके अलावा उन्होंने ईश्वर की अद्वैतता, बहुदेवताओं की पूजा का विरोध, पुनर्जन्म तथा कर्म और मनुष्य, प्रकृति और परब्रह्म सम्बन्धी जिन सिद्धान्तों को ग्रहण किया था, वे सब उन्हीं के विश्लेषण और तर्क के परिणाम थे। इस प्रक्रिया में वे इतिहास और परम्परा से परिचालित नहीं हुए थे।

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