स्वामी दयानन्द सरस्वती
स्वामी दयानन्द सरस्वती
(Swami Dayanand Saraswati, 1824-1883)
महर्षि दयानन्द आर्य समाज के संस्थापक और सत्य के अन्वेषक थे। उन्होंने हमारे आत्म-सम्मान और प्रबल मानसिक जागरण के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। स्वामी दयानन्द ने भारत के गौरवपूर्ण अतीत को आलोकित किया और देशवासियों को अपनी पतित अवस्था से ऊपर उठकर भविष्य की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा दी। उन्होंने इस तथ्य को भली-भाँति भाँप लिया कि अंग्रेज भारतीय जनता और उसकी संस्कृति को खोखला कर अपने पैर जमाए हुए हैं। अतः उन्होंने भारतीय संस्कृति की महानता प्रकट की, हिन्दू-पुनरुद्धारवाद की आवश्यकता महसूस की और देशवासियों को चेतावनी दी कि वे विदेशी प्रभाव में बहकें नहीं तथा अपने राष्ट्रीय गौरव को भुलाएँ नहीं। स्वामी दयानन्द की महानता इस बात में थी कि उन्होंने एक ऐसे युग में भारतीय राष्ट्रवाद में प्राण फूंके जब देश विदेशी साम्राज्यवाद के लौह-शिकंजे में कसा हुआ था और भारतीयों के प्रति उनका रुख-एकदम कठोर तथा अनुदार हो गया था। सन् 1857 की क्रान्ति की प्रतिक्रिया ब्रिटिश शासन पर छाई हुई थी और देश का बौद्धिक वर्ग ईसाई प्रभाव से आक्रान्त था।
जीवन-परिचय (Life-Sketch)
स्वामी दयानन्द (1824-1883) का जन्म काठियावाड़ की मौरवी रियासत में टंकारा कस्बे में एक अत्यन्त धार्मिक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम मूलशंकर था। उनके पिता अम्बाशंकर अपने इलाके के जमींदार और निष्ठावान शिवभक्त थे। बाल्यकाल से ही उनमें मूर्ति-पूजा और धार्मिक कर्मकाण्ड के प्रति अविश्वास जाग्रत हो गया और अपनी बहिन तथा चाचा की मृत्यु के आघातों व अन्य घटनाओं से पीड़ित हो, उन्होंने मुक्ति का मार्ग खोजने का निश्चय किया। 21 वर्ष की आयु में वैवाहिक जीवन के बन्धनों से बचने के लिए वे घर से भाग निकले। सन् 1845 से 1860 तक लगभग 15 वर्ष तक वे ज्ञान, प्रकाश और अमरत्व की खोज में घूमते रहे। कठिन यात्राओं और घोर कष्टों में भी वे कभी घबराये नहीं। 1860 में मथुरा में स्वामी विरजानन्द ने उन्हें अपनी ओर आकृष्ट किया। वे लगभग ढाई साल तक अन्धे साधु विरजानन्द के शिष्य रहे। “विरजानन्द प्राचीन विद्याओं के बहुत भारी विद्वान थे, मनीषी शिक्षक और स्वतन्त्र चिन्तक थे। वे मूर्ति पूजा, कुसंस्कार और बहुदेववाद के विरुद्ध थे। उन्होंने दयानन्द को वेदों को दार्शनिक व्याख्या सिखाई और फिर उनसे कहा कि तुम हिन्दू धर्म को गन्दे क्षेपकों और विकृतियों से शुद्ध करो।”
सन् 1864 में स्वामी दयानन्द ने सार्वजनिक रूप से उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया जो 1883 में उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हुआ । इस सम्पूर्ण अवधि में उन्होंने अथक् परिश्रम किया, वे सारे भारत में घूमते रहे, वाद-विवाद करते रहे, अपने विचारों का प्रचार करते रहे और आर्य समाज का, जिसकी स्थापना उन्होंने 10 अप्रैल, 1875 को बम्बई में की, संगठन करते रहे। स्वामी दयानन्द ने तत्कालीन हिन्दू समाज की दयनीय दशा को जाना-पहचाना। उन्होंने चारों ओर नैतिक कायरता, बौद्धिक पतन तथा सामाजिक अधोगति को देखा । हिन्दुओं की इस दुर्दशा ने उनके विचारों को क्रान्ति दी और वे हिन्दू समाज को सुधारने, विदेशी तत्वों के आक्रमण से उसे बचाने और हिन्दू सामाजिक संगठन के वैविध अंगों के बीच सामन्जस्य स्थापित करने के मार्ग पर दृढ़तापूर्वक चल पड़े। स्वामी दयानन्द को इस बात से गहरा धक्का लगा कि अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई मिशनरियों के प्रयत्नों से बड़ी संख्या में हिन्दू या तो नास्तिक होते जा रहे हैं अथवा ईसाई बनते जा रहे हैं। अतः हिन्दुओं को पुनर्संगठित करने, हिन्दू धर्म की रक्षा करने, अहिन्दू बन गये लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में लाने तथा हिन्दू समाज में एकता उत्पन्न करने के पुनीत कार्य में उन्होंने मृत्युपर्यन्त कोई शिथिलता नहीं आने दी।
बौद्धिक प्रतिभा और संस्कृत विद्या के धनी स्वामी दयानन्द बड़े प्रभावशाली वक्ता थे जो अपने विरोधियों को हाजिरजवाबी और सूक्ष्म तर्कों की भरमार से पछाड़ देते थे। उन्होंने समकालीन जनता, विद्वानों और देशी राजाओं पर गम्भीर प्रभाव डाला। उदयपुर के महाराणा उनके शिष्य बन गये और जोधपुर नरेश महाराजा जसवन्तसिंह ने उनसे मनुस्मृति पढ़ी। स्वामी दयानन्द ने सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया और वैदिक धर्म को सत्य और सार्वदेशिक बताया। हिन्दी भाषा के माध्यम से इन्होंने देश में नव-जागरण का मन्त्र फूंका। उनके निर्भय और त्यागमय जीवन से प्रेरणा पाकर सहस्रों आर्य नर-नारी भारत के स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े। उनकी प्रेरणा से लोगों ने स्वाभिमान तथा आत्म-गौरव की रक्षा के लिए प्राणों का बलिदान देकर भी आजादी का मोल चुकाया। एक समय ऐसा भी रहा जब आर्य समाज और काँग्रेस दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए। भारत के स्वाधीनता आन्दोलन को महर्षि दयानन्द की यह एक महान् प्रेरणा और देन थी।
मृत्यु
सन् 1857 की क्रान्ति में असफलता का एक प्रमुख कारण तत्कालीन देशी रियासतों का तटस्थ रहना था। अतः स्वामीजी ने देशी रजवाड़ों को अपना प्रमुख कार्यक्षेत्र बनाया और कहा जाता है कि उसी प्रवास में जोधपुर रियासत में महर्षि के विरुद्ध एक षड्यन्त्र की रचना की गई और 30 अक्टूबर, 1883 को विष दिए जाने के कारण उनका शरीरान्त हो गया। महादेव गोविन्द रानाडे, महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर, केशवचन्द्र सेन, सर सैयद ह्यूम, सर अहमद खाँ, कर्नल आलकाट, मैडम ब्लावात्सकी और उस समय देश में प्रमुख समझे जाने वाले अन्य व्यक्तियों का, जो उनसे प्रेरणा ग्रहण करते थे, उनके देहावसान पर हार्दिक वेदना हुई। सर सैयद अहमद खाँ ने, जो उस समय यूरोप के दौरे से लौटे ही थे, महर्षि की मृत्यु का समाचार सुनकर कहा था-“मैंने दुनिया के कई मुल्कों का दौरा किया और अपनी जिन्दगी में हिन्दुस्तान और यूरोप में मुझे बहुत-से आलिम और मुब्बिर लोगों से मिलने का मौका मिला, लेकिन मैंने महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसी आलिम हस्ती अपनी जिन्दगी में नहीं देखी। उनकी वफात (मृत्यु) से इल्म (विद्या) का आफताब (सूर्य) गुरुब (अन्त) हो गया।
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