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राममोहन राय के शिक्षा और विज्ञान सम्बन्धी विचार

राममोहन राय 

राममोहन राय के शिक्षा और विज्ञान सम्बन्धी विचार

(ROY ON EDUCATION AND SCIENCE)

“भारत के लिए शिक्षा-विस्तार की सबसे अधिक आवश्यकता है, और शिक्षा- विस्तार का काम शुरू होना चाहिए समाज के निम्नस्तर से, जैसे जब आग पर कोई चीज पकाई जाती है तब बरतन के नीचे से ही आग जलाने की आवश्यकता होती है।”

-राममोहन राय

राजा राममोहन राय की शिक्षा और विज्ञान के प्रति गहरी रुचि थी। वे स्वयं बंगला फारसी तथा अरबी, हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी इन छ: भाषाओं के विद्वान थे, उन्होंने इन भाषाओं में भाषण दिये, निवन्ध लिखे, पुस्तकें लिखीं और लोगों से शास्त्रार्थ भी किये। शिक्षाविद् के रूप में उन्होंने परम्परावादी पण्डितों और निहित स्वार्थों के हिमायतियों के विरोध में आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति को अपना समर्थन प्रदान किया। राममोहन के शिक्षा सम्बन्धी विचार रचनात्मक थे। वे यह भाँप चुके थे कि भारत में पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली प्रवर्तित होने से ही जागरण और राष्ट्रीय एकता की भावना का प्रसार होगा। जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने यह निश्चय किया कि भारत में शिक्षा विस्तार के लिए स्वीकृत सम्पूर्ण राशि संस्कृत शिक्षा प्रतिष्ठानों की उन्नति के लिए खर्च की जाएगी तो राजा राममोहन को यह विचार पसन्द नहीं आया और उन्होंने 1823 में गवर्नर जनरल लॉर्ड एम्हर्स्ट को अपने ऐतिहासिक पत्र में लिखा-

“इंग्लैण्ड में बेकन के प्रभाव से लोगों को पुराने जीवनादर्श के साथ शिक्षाविधि बदलने की आवश्यकता हुई थी। यदि शिक्षाविधि को बदल कर बेकन की नीति को न अपनाया जाता तो पुरानी पद्धति से लोगों में शिक्षा-विस्तार करना सम्भव न होता। वे सदा के लिए अज्ञानी रह जाते। यदि ब्रिटिश व्यवस्था का उद्देश्य भारतीयों को सदा अज्ञान के अन्धकार में रखना हो तो फिर संस्कृत प्रणाली ही अच्छी है। परन्तु जब सरकार भारतीय जनता की प्रगति चाहती है, तब आधुनिक एवं उदार शिक्षा प्रणाली द्वारा गणित, प्राकृतिक दर्शन, रसायनशास्त्र, शरीर-विज्ञान एवं अन्य उपयोगी वैज्ञानिक विषयों की शिक्षा भी दी जानी चाहिए। निर्धारित धनराशि से यूरोप में सुशिक्षित, प्रतिभावान् (भारतीय) विद्वानों को शिक्षक नियुक्त किया जाय। एक महाविद्यालय की स्थापना हो जिसके लिए आवश्यक पुस्तकें खरीदी जाएँ।”

निःसन्देह भारत का भावी इतिहास राममोहन राय की दूरदर्शिता को सिद्ध करता है। राजा राममोहन की यह विशेषता थी कि ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग में उन्होंने अपने मस्तिष्क पर किन्हीं पूर्वाग्रहों को हावी नहीं होने दिया । स्वतन्त्र रूप से ही उन्होंने बहुमुखी चिन्तन किया और चुन-चुनकर ज्ञान के मोती समेटे। अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी शिक्षा को उन्होंने भारत के लिए लाभकारी बताया। प्राचीन भारतीय दर्शन और धर्म में निहित ज्ञान के अमर कोष के प्रति उनकी श्रद्धा कम नहीं थी, इसलिए उन्होंने वेदों और उपनिषदों का बंगाली और अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करने का कठिन कार्य अपने हाथों में ले लिया। लेकिन उनका विश्वास था कि जन साधारण के लिए शिक्षा व्यावहारिक और उपयोगी होनी चाहिए और वैज्ञानिक चिन्तन से ही भारत आगे बढ़ सकता है। अतः उन्होंने पाश्चात्य शिक्षा और विज्ञान का अधिकाधिक समर्थन किया और इस बात पर बल दिया कि प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने के लिए भारत को मध्यकालीन और विद्वत्तावादी पद्धति का परित्याग करके अपनी शिक्षा पद्धति आधुनिक विज्ञान के अनुकूल बनानी चाहिए।

अपनी उपयुक्त मान्यताओं और शिक्षाओं द्वारा राममोहन राय ने पूर्व और आधुनिक पश्चिम की दीवार को गिराने और सवर्ण हिन्दुओं के बीच यूरोपीय विचारों और मानदण्डों को लाने का प्रयास किया। इस कार्य में उन्होंने काफी सफलता भी प्राप्त की। 1816-17 में उन्होंने कलकत्ता में एक अंग्रेजी स्कूल की स्थापना की और उनकी प्रेरणा से ही 1822-23 में हिन्दू कॉलेज की स्थापना हुई। वे ईसाई मिशनरी को भी भारतीय शिक्षा क्षेत्र में लाये । रेवरण्ड डफ के स्कूल को चलाने के सम्बन्ध में उन्होंने घर-घर जाकर लोगों को समझाया कि ईसाई द्वारा चलाये जाने वाले विद्यालय में पढ़ने से कोई ईसाई नहीं बन जाता। इसी प्रकार उन्होंने इस आपत्ति का निराकरण किया कि ईसाई विद्यालय में बाइबिल पढ़ाए जाने से जाति-भ्रष्ट होने का डर है। उन्होंने लोगों को समझाया-

“किसी भी धर्म का ग्रन्थ पढ़ने से जाति-भ्रष्ट होने का प्रश्न नहीं उठता है। सभी धर्मों के विषय में जानना अच्छा है। मैंने खुद बहुत बार बाइबिल पढ़ी है, कुरान-शरीफ भी पढ़ी है, परन्तु मैं न तो ईसाई बना हूँ, न मुसलमान। बहुतेरे यूरोपीय गीता एवं रामायण आदि ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं, लेकिन वे लोग हिन्दू नहीं हो गये हैं।”

राजा राममोहन राय, पाश्चात्य शिक्षा पद्धति के पक्षपाती होने पर भी, भारतीय संस्कृति और गौरव ग्रन्थों के अध्ययन अध्यापन के प्रति पूर्ण सजग थे और इसी उद्देश्य से उन्होंने एक वेदान्त कॉलेज की भी स्थापना की। अंग्रेजी शिक्षा पर बल देते हुए भी उन्होंने संस्कृत की आवश्यकता का तिरस्कार नहीं किया। उनका विचार था कि देश की वास्तविक उन्नति के लिए विश्व से सम्बन्ध स्थापित करके कदम से कदम मिलाकर चलना पड़ेगा, अतः शिक्षा के क्षेत्र में पाश्चात्य प्रणाली को अपनाना जरूरी है, पर इसका यह अर्थ भी नहीं है कि हम संस्कृत शिक्षा की अवहेलना करें और वेद, उपनिषद् आदि की चर्चा छोड़ दें। राममोहन राय चाहते थे कि भारत में प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य हो। नारी-शिक्षा के भी वे जबर्दस्त समर्थक रहे। लेकिन इस दिशा में किसी संस्था की स्थापना हेतु वे कोई ठोस कदम न उठा सके। राय ने बंगला में गद्य साहित्य की रचना करके बंगाल में शिक्षा क्षेत्र में बड़ी सेवा की। उनके पहले बंगला में गद्य साहित्य नहीं के बराबर था। वहीं प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने बंगला में धार्मिक, दार्शनिक, साहित्यिक एवं ऐतिहासिक पुस्तकें लिखीं। उन्होंने ‘संवाद कौमुदी’ नामक एक बंगाली पुस्तिका निकालना भी आरम्भ की। उन्होंने कुछ उपनिषदों का बंगला में अनुवाद किया और धार्मिक वाद-विवाद को भी इसी भाषा के द्वारा चलाया।

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