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महाभारत काल में राज्य के तत्व एवं उत्पत्ति के सिद्धान्त

महाभारत काल में राज्य

महाभारत काल में राज्य के तत्व एवं उत्पत्ति के सिद्धान्त

ऋग्वेदकालीन प्रशासनिक संस्थाओं के विभिन्न राजनीतिक संगठन एवं स्वरूप में परिवर्तन हो गया। यह परिवर्तन पंजाब और उत्तर-पश्चिम में सप्त सिंधु के देश से मध्य देश की ओर आर्यों के प्रभाव के प्रसार एवं राज्य क्षेत्र के विस्तार का परिणाम था। प्रस्तुत: प्राचीन भारत में राजनीतिक विचारकों की प्रशासनिक व्यवस्था के विकास में बहुत रुचि थी। उन्होंने प्रशासन के प्रायः सभी पक्षों की ओर शासक की शक्तियों तथा कृत्यों की तथा प्रान्तीय शासकों एवं सामंतों के साथ उसके सम्बन्धों की विवेचना की। यद्यपि भारत में पाश्चात्य शैली में राजनीतिक चिंतन की विचारधाराओं का पूर्णतः अभाव रहा, फिर भी यहाँ ऐसे राजनीतिक विचारक और चिन्तक अवश्य हुए हैं जिनकी रचनाओं ने राज्य संगठन और कार्यसंचालन के सम्बन्ध में व्यावहारिक सुझाव प्रदान किये हैं। राज्य के विषयों, शासन के कृत्यों और उसके संगठन के सम्बन्ध में प्राचीन भारतीय जीवन और विचार का अध्यापन ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में, विशेषरूप से राज्य के सिद्धान्त के दैवी, अधिकार और सामाजिक संविदा के सिद्धान्तों के और उसके (राज्य के) अनेक तत्वों (सप्तांग)-राजस्व, उसकी विकास, राज्याभिषेक का विवरण, निर्वाचन का तत्व, राजा की शक्तियाँ आदि के संदर्भ में किया जा सकता है।

राज्य का सिद्धान्त

महाभारत के शान्तिपर्यों में प्राचीन भारतीय राज्य व्यवस्था के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी मिलती है। महाभारत काल में प्रचलित राज्य का सिद्धान्त राजपद के मूल के साथ जुड़ा हुआ है। राज्य को एक ऐसे स्वाधीन और संगठित समुदाय के रूप में जिस पर अपने सदस्यों को बाह्य आक्रमण से रक्षा करने और उनका हित करने का दुहरा दायित्व था, इन कार्यों को करने के लिए किसी एक अभिकरण का चुनाव करना था। स्वभावत: राजा ही ऐसा था जो इस दायित्व का निर्वाह कर सकता था। उसके पद को पवित्रता देने के लिए उस पर दिव्यता का एक प्रभामण्डल आरोपित करना आवश्यक था। चूँकि राजा का जन्म युद्ध के कारण हुआ, इसलिए राज्य एवं राजपद का विकास अराजकता और युद्ध की बुराइयों की अनिवार्यता के कारण तथा मानवचरित्र की स्वाभाविक दुर्बलतओं के फलस्वरूप हुआ । वैदिक साहित्य तथा स्मृतियों के राजत्व और राज्य के दैवीय मूल और सामाजिक संविदा के सिद्धान्तों के लिए साक्ष्य प्राप्त होता है। इनमें प्रथम सिद्धान्त ब्राह्मण ग्रंथों में (1000 ई० पू०) खोजा जा सकता है। इस काल में राजपद को दैवीय स्वीकृति प्रदान की गई है और पार्थिव राजाओं को देवताओं के अमर शासक इन्द्र के समान मान्यता दी गई है। ब्राह्मण ग्रंथों में दिये गये अनुष्ठानों से भी राजा की दैवीय नियुक्ति का विचार ध्वनित होता है।

इस तरह राजा के दैवीय मूल का सिद्धान्त बहुत समय तक प्रचलित रहा। परन्तु शासक को यह उच्च स्थिति प्रदान करने के साथ-साथ सामाजिक संविदा का सिद्धान्त भी विकसित हुआ था । शान्ति पर्व के अनुसार राजा को अपने प्रजा की रक्षा करनी होती थी और इसके लिए प्रतिफल के रूप में वह उसकी उपज का षष्ठांश लेता था। जनता द्वारा राजा के निर्वाचन और अपने प्रजाजनों की रक्षा तथा सुरक्षा का पूरा प्रबंध करने के लिए प्रतिफल के रूप में उपज का षष्ठांश और व्यापारिक माल का दसांश दिये जाने से शासक के संविदात्मक अधिकार और कर्त्तव्य ध्वनित होते हैं। वस्तुतः यह उन लोगों पर, जिनसे मिलकर राज्य बनता था, शासन करने का अभिकरण था तथा वह दुर्बल का सबल द्वारा शोषण से रक्षा करने के लिए कानून (दण्ड) का शासन स्थापित करता था। यदि वह अपने कर्तव्य का पालन न करे तो लोग शासक के विरुद्ध विद्रोह कर सकते थे। महाभारत में स्पष्ट रूप से ऐसे विद्रोह की अनुमति दी गई है। इसके अतिरिक्त ब्राह्मणों के परामर्शदाताओं के रूप में कार्य करने तथा राजा पर धर्मशास्त्रों का नियंत्रण रहने के कारण लोकमत एक ऐसी प्रबल शक्ति होती थी जिसे सरलता से दबाया नहीं जा सकता था।

इस प्रकार महाभारत काल में शासक की सुरक्षा का सबसे प्रभावशाली साधन होता था। कामन्दक के अनुसार यदि राजा अच्छा मार्गदर्शक न रहे तो लोग उसी प्रकार नष्ट हो जायेंगे जैसे कर्णधार के बिना नाव नष्ट हो जाती है। वस्तुतः राज्य के सात अंगों अर्थात् तत्वों में राजा प्रमुख तत्व है। इसके अतिरिक्त राज्य के अन्य छ: अंग या तत्व इस प्रकार हैं- मंत्री (अमात्य), दुर्ग, राज्यक्षेत्र (राष्ट्र), राजकोष, सेना (बल), एवं मित्र राज्य (मित्र)।

राज्य का स्वरूप

महाभारत काल में आर्य लोगों ने अनेक नये राज्य स्थापित कर धीरे-धीरे पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ाते जा रहे थे। इस प्रकार आर्यों की राजनीतिक परिधि पूपिक्षा अधिक विस्तृत हो गई थी। महाभारत काल में तीन प्रकार की शासन-पद्धति प्रचलित थी-

  1. गणतंत्रात्मक शासन-

    महाभारत काल में गणतंत्रात्मक शासन प्रणाली के अन्तर्गत अंधक, वृष्णि, यादव, कुकुर तथा भोज गणराज्य थे। इन राज्यों में जनसत्ता का समतन था। जो व्यक्ति संगठन करने, भाषण देने, लोकहितकारी कार्यों को करने में कुशल होता था, उसी को शासन करने का दायित्व दिया जाता था। इस काल में शासन प्रायः कुलीन वंशों के हाथ में होता था। गणराज्यों की प्रगति के लिए कुछ विशेष सिद्धान्त लागू होते थे, यथा-आन्तरिक एकता की रक्षा, फूट और मतभेद का वाद-विवाद तथा विचार विनिमय द्वारा समाधान, शासकों पर विश्वास-मंत्रणाओं की गोपनीयता, समृद्ध राजकोष और नेताओं के आदेश पालन इत्यादि।

  2. संघात्मक शासन-

    महाभारत काल में कभी-कभी अनेक गणराज्य एक साथ मिलकर एक संघ बना लेते थे, यथा-अंधक-वृष्णि संघ । महाभारत के शांति पर्व में ऐसे संघों का वर्णन उपलब्ध है। ऐसा विदित होता है कि गणराज्यों के संघों में अनेक राजनीतिक दल होते थे जो परस्पर विरोधी होते थे और आधुनिक दलों की भांति ही इनके अलग-अलग नेता होते थे, यथा-महाभारत काल के संघात्मक शासन में अंधक-वृष्णि संघ में अक्रूर, अंधकों का नेता था और आहूक वृष्णियों का नेता था। इन संघों के सदस्यगण परस्पर वाद-विवाद और विचार-विनिमय के पश्चात् ही राज्य सम्बन्धी किसी विषय पर निर्णय लेते थे।

  3. राजतंत्रात्मक शासन-

    महाभारत काल में राजतंत्रात्मक शासन प्रणाली की प्रधानता थी। शासन प्रबंध नृपतंत्रात्मक था। राजा वंशपरम्परा के विधान के अन्तर्गत होता था। यदि राजा का ज्येष्ठ पुत्र सभी प्रकार से योग्य होता था, तो वही राज्य का उथराधिकारी होता था । यदि ज्येष्ठ पुत्र किसी भी तरह से शारीरिक या मानसिक रूप से अयोग्य होता था तो इसके स्थान पर इसका छोटा भाई राजपद ग्रहण करता था; यथा-धृतराष्ट्र ज्येष्ठ पुत्र होने पर भी जन्मांध होने के कारण राजपद पर आसीन नहीं हुआ और उसके छोटे भाई पाण्डु को राजगद्दी दी गई।

सामान्यतः महाभारत काल में राजपद वंश परम्परागत होने पर भी राज्याभिषेक के पूर्ण वृद्ध राजा अपने योग्य पुत्र को गद्दी पर बैठाने के लिए अपने मंत्रिपरिषद, पुरोहित और कुलगुरु एवं प्रजा के प्रतिनिधियों की सहमति प्राप्त करता था। प्रजा द्वारा राजा का निर्वाचन न होने पर भी उसकी सहमति लेकर राजा प्रजा की भावनाओं को उचित सम्मान देता था। महत्वपूर्ण अवसरों पर प्रजा के प्रतिनिधियों से मंत्रणा एवं परामर्श करना राजा के लिए आवश्यक था।

महाभारत के शान्तिपर्व में राजा के निष्पक्ष और निष्ठावान होने की बात कही गई है। महाभारत काल में राजा को निरंकुश एवं अत्याचारी होने से बचाने के लिए अनेक प्रकार के नियंत्रण होते थे। सर्वप्रथम, राजा अपने मंत्रियों, आमात्यों, पुरोहितों, प्रियजनों और प्रजाजनों की इच्छा का सम्मान कर निरंकुश होने से बचता था। द्वितीयतः कुल, जाती, श्रेणी के आचार-विचार के नियमों का पालन उसे स्वेच्छाचारी बनने से रोकता था। राज्याभिषेक के समय प्रजाहित करने की शपथ, लोकहित को सर्वोपरि मानने का निरंकुशता पर प्रतिबंध होते थे। महाभारत में यह सिद्वान्त मान लिया गया था कि जो राजा प्रजा को कष्ट पहुँचाने, उसका शोषण करने और उसकी रक्षा एवं विकास के प्रति उपेक्षा करने का प्रयास करेगा, उसका पागल कुत्ते की तरह बध कर दिया जाय। इसी मान्यता के आधार पर महाभारत युग के राजाओं वेणु, नहुष, सुदास, सुमुख आदि को अधार्मिक और निरंकुश होने पर राजपद से हटाकर मार डाला गया था। इसी प्रकार प्रजा में किसी प्रकार का दोष राजा का दोष माना जाता था। कर्ण और शल्य परस्पर एक दूसरे को दुष्ट तथा व्यभिचारी प्रजा का राजा कहकर लज्जित करते थे। राजसूय यज्ञ करने के बाद कृष्ण ने युधिष्ठिर को सभी प्रकार से प्रजा-पालन का उपदेश दिया था। इन्हीं मान्यताओं का परिणाम था कि बक के समान असुर, जरासंध के समान अन्यायी, कौरववंश के समान झगड़ालू एवं विद्वेषी राजाओं के शासनकाल में भी प्रजा सुखी और सुरक्षित थी।

तात्पर्य यह कि राज्य में चाहे जो भी शासन प्रणाली प्रचलित हो, सभी का ध्येय प्रजा का हित साधन करना था। गणतंत्र का नेता अथवा संघीय प्रणाली का शासक या राजतंत्र का राजा आवश्यक बुराई न होकर लोक-व्यवस्था, लोकसुख और लोकोत्कर्ष का साधक होता था। वस्तुतः राजा राज्य का भोक्ता न होकर उसका भारवाहक था। महाभारत के उद्योग पर्व के अनुसार शासन का एकमात्र आदर्श प्रजा की हित सिद्धि करना था। राजा अति शक्तिशाली होने पर भी लोक के योग और क्षेम का मूल कहा जाता था। वह प्रजा का प्रतिभू, माता-पिता और अभिभावक माना जाता था। ईश्वर के समान लोकहितकारी बनने के कारण ही राजा को ईश्वर का अवतार, देव अंश, देव प्रतीक और ईश्वर-प्रतिनिधि माना जाता था।

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