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जैन तथा बौद्धकालीन महाजनपदों का राजनीतिक चिंतन

जैन तथा बौद्धकालीन महाजनपद

जैन तथा बौद्धकालीन महाजनपदों की राजनीतिक पृष्ठभूमि

ईसा की छठी शताब्दी के पूर्व के महाभारत में वर्णित कुरुक्षेत्र-युद्ध के बाद गांधार कुरु, पांचाल, मगध, कौशल, काशी, कैकेय, मद्र, मत्स्य, वशउशीनगर आदि राज्य अवशेष रह गये थे। जनमेजय के चौथे राजा के समय में गंगा की बाढ़ में हस्तिनापुर के नष्ट हो जाने पर पाण्डव वंश की राजधानी कौशाम्बी हो गई थी। गौतमबुद्ध के समय में इन राज्यों के अलावा कुछ अन्य छोटे-छोटे राज्य भी थे जिनमें से कुछ संघतंत्र, कुछ राजतंत्र, और कुछ प्रजातंत्र प्रणाली के थे। ये राज्य प्रारम्भ में जनपद राज्य थे; कालान्तर में युद्ध द्वारा सीमा विस्तार करके ये महाजनपद राज्य बन गये। इसीलिए इस काल को महाजनपदों का युग भी कहा जाता है। इस युग में शासनतंत्रों में विविधता पाई जाती है। इस युग में प्रचलित संघात्मक शासनपद्धति में अनेक राज्यों का एक संघ होता था। संघों के सदस्य-प्रतिनिधि अपना एक मुखिया चुन लेते थे जो अन्य राज्यों के प्रतिनिधियों की सहायता से शासन व्यवस्था का संचालन करते थे। राजतंत्र की पद्धति में वंशक्रमानुगत

एक राजा होता था जो सम्पूर्ण शासन का सर्वोच्च संचालक, नियंत्रक और व्यवस्थापक था। गणतंत्र शासन-पद्धति में शासन की बागडोर जनता के हाथ में रहती थी और जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि शासन का संचालन करते थे।

ऐतिहासिक मान्यता के अनुसार बौद्धिक युग में आर्यों के किसी एक पूर्वज से उत्पन्न संतानों के परिवारों के समूह को जन कहते थे तथा इनके रहने के क्षेत्र या अधिकृत भू-भाग को जनपद कहते थे। बाद में इसमें अन्य जाति के लोग भी आकर रहने लगे। इन लोगों ने आगे चलकर क्रमशः अपने निकटवर्ती ग्रामों एवं भू-भागों पर अधिकार कर लिया और उस क्षेत्र में अपनी सार्वभौम सत्ता स्थापित कर लेते थे। इस प्रकार उस क्षेत्र में गाँवों और नगरों की संख्या बढ़ जाती तथा इसमें अनेक वर्गों और जातियों के लोग इनके आधीन रहने लगते, तो इन्हें महाजनपद कहते थे। वैदिक ग्रंथों द्वारा ईसा की छठी सदी पूर्व की राजनीतिक स्थिति का कोई वर्णन उपलब्ध नहीं है। परन्तु बौद्ध ग्रंथ अनुगुत्तर निकाय में षोडस महाजनपद राज्यों का नाम मिलता है जो इस प्रकार हैं-

  1. काशी
  2. कोशल,
  3. पांचाल,
  4. बंग,
  5. अंग
  6. मत्स्य,
  7. मगध
  8. सूरसेन,
  9. वज्जि
  10. अस्सक,
  11. मल्ल,
  12. अवन्ति,
  13. चेदि,
  14. गान्धार,
  15. वत्स,
  16. कम्बोज।

जैन धर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ, भगवती सूत्र के अनुसार इन सोलह महाजनपदों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. अंग
  2. बंग
  3. मगध
  4. मलय
  5. मालव
  6. अच्छ,
  7. मच्छ
  8. कच्छ,
  9. पाध
  10. लाध,
  11. वज्जि
  12. मोलि,
  13. काशी,
  14. कोसल,
  15. अवाह
  16. समुत्तर

 इसके अतिरिक्त जैन ग्रंथों में दक्षिणापथ के कुछ जनपदों का उल्लेख है, जैसे मलय, पाध, लाध आदि।

बौद्ध सूची के अन्तर्गत अवन्ती और मल्ल तथा जैन सूची के अन्तर्गत मालव तथा मोलिय महाजनपदों के उल्लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि जैन सूची बौद्ध सूची के बाद बनी है। इसीलिए दक्षिण के गणराज्यों के नाम जैन सूची में हैं। बौद्ध धर्म के दीय निकाय ग्रंथ (महागोविन्द सुतन्त) में तत्कालीन राज्यों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. कलिंग,
  2. अस्सक,
  3. अवन्ति
  4. सौवीर,
  5. अंग,
  6. विदेह,
  7. काशी

बौद्धकाल में जिन षोडस महाजनपदों का उल्लेख किया गया है, उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

  1. काशी-

    वरुणा तथा असी के मध्य बसी हुई वाराणसी नगरी इस महाजनपद की राजधानी थी। गुत्तिल जातक के अनुसार काशी जनपद 12 योजन विस्तृत था । बौद्ध ग्रंथ महाबग्ग में महाजनपद की समृद्धि और शक्ति का वर्णन है। सोनन्द जातक के अनुसार काशी के राजा मनोज ने अंग, मगध तथा कोसल को पराजित कर जीत लिया था। जैन तीर्थाकर पारसनाथ के पिता अश्वसेन तत्कालीन काशी नरेश थे। जैन ग्रंथों में भी इसका उल्लेख है।

  2. कोसल-

    कोसल के राजा सूर्यवंशी थे। इसमें आधुनिक अवध का क्षेत्र सम्मिलित था । बौद्ध काल में इसकी राजधानी श्रावास्ती थी। उन दिनों यह एक प्रमुख वाणिज्य केन्द्र था। बुद्ध के प्रादुर्भाव के समय कोसल ने अत्यधिक उन्नति की। तत्कालीन कोसल-नरेश प्रसेनजीत और अजातशत्रु में प्रायः संघर्ष चलता रहता था। प्रसेनजीत बुद्ध का अनन्य भक्त था।

  3. मल्ल-

    यह दो जनपदों का संघ था-पावा तथा कुशीनगर। आज के उत्तर-प्रदेश के देवरिया जिले का पड़रौना तत्कालीन पावा था और कुशीनगर उस समय कुशीनारा था। कुसा जातक में मल्ल-शासक के लिए ‘ओकाका’ (इक्ष्वाकु) नाम मिलता है, अर्थात तत्कालीन मल्ल सम्राट इक्ष्वाकु वंश के थे। मल्ल बुद्ध के प्रशंसक और भक्त थे। बुद्ध ने अपना अन्तिम भोजन पावा नगरी में ही किया था और कुशीनगर में उनकी मृत्यु हुई।

  4. वज्जि-

    यह आठ गणराज्यों का संघ था। यह राज्य आधुनिक बिहार का उत्तरी क्षेत्र था। इस संघ राज्य की राजधानी वैशाली थी। यह नगर अत्यधिक समृद्ध और शक्तिशाली था। जैन तथा बौद्ध ग्रंथों में इस नगर का उल्लेख आया है। कालान्तर में आपसी फूट के कारण वज्जि संघ के राज्य मगध की बढ़ती हुई शक्ति का विरोध न कर सके और मगध के राजा अजातशत्रु ने इन्हें अपने राज्य में मिला लिया। बुद्ध ने वैशाली में अनेक बार अपना उपदेश दिया था।

  5. मगध-

    इसका क्षेत्र आधुनिक बिहार के पटना और गया जिले तक था। महात्मा बुद्ध के पूर्व ही इसकी स्थापना एक राज्य के रूप में हो चुकी थी। सम्राट बिम्बसार तथा अजातशत्रु के समय आस पास के सभी राज्य इसमें सम्मिलित हो चुके थे। इसकी राजधानी गिरिब्रज थी।

  6. अंग-

    पहले मगध भी अंग राज्य के अन्तर्गत था। बिहार में भागलपुर और मुंगेर जिले का क्षेत्र अंग राज्य था। चम्पा नगर इसकी राजधानी थी। यह बौद्धकाल में अत्यधिक समृद्ध और शक्तिशाली था। बौद्ध ग्रंथों में वर्णित छः प्रमुख नगरों में चम्पा तथा काशी का नाम आया है।

  7. वत्स-

    गंगा नदी के दक्षिणी तट से लेकर यमुना नदी के तट तक का क्षेत्र वत्स राज्य के आधीन था। इस राज्य की राजधानी कौशाम्बी थी जो चेदि राजाओं द्वारा बसायी गई थी। राजा उदयन गौतम बुद्ध का समकालीन था। यद्यपि उदयन प्रारम्भ में बौद्ध धर्म का विरोधी था, किन्तु बाद में बौद्ध भिक्षु पिंडोल भारद्वाज के उपदेश से वह बौद्ध-मतावलम्बी हो गया। वत्स राज्य संस्कृति तथा व्यापार की दृष्टि से महत्वपूर्ण था।

  8. कुरु-

    यह दिल्ली मेरठ के निकटवर्ती प्रदेश तक विस्तृत था। जातक संख्या 37 (महाभूत सोम) के अनसार इस राज्य की राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी। जैन ग्रंथों के अनुसार धनंजय, कौरव तथा सुत्तसोम यहाँ के प्रसिद्ध शासक थे। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार यहाँ के राजा युधिष्ठिर वंश के थे।

  9. पांचाल-

    इस महाजनपद में आधुनिक रुहेलखण्ड तथा गंगा-यमुना के बीच का क्षेत्र सम्मिलित था। इसकी राजधानी अहिच्छत्र थी। बौद्ध-काल में यह एक गणतंत्र राज्य था। पांचाल-शासक संजय ने जैन धर्म स्वीकार किया था।

  10. मत्स्य-

    यह यमुना नदी के पश्चिम में तथा कुरु के दक्षिण में स्थित था। इसकी राजधानी विराटनगर थी। यह एक दुर्बल राज्य था। पहले यह चेदि राज्य के आधीन था और बाद में मगध राज्य के आधीन हो गया। प्रमाणों के आधार पर महात्मा बुद्ध के समय में यह अपना अस्तित्व खो चुका था। इसीलिए बौद्ध तथा जैन ग्रंथों में इसका नाम नहीं है। पालि ग्रंथों में मत्स्यों और शूरसेनों के सम्बन्धों का उल्लेख है।

  11. चेदि-

    मध्य प्रदेश का बुन्देलखण्ड और उसके आस-पास का क्षेत्र इसमें सम्मिलित था। इसकी राजधानी सांथवती थी। जातक ग्रंथों में चेदि नरेशों का वर्णन है। इस राज्य का प्रमुख शासक शिशुपाल था ।

  12. शूरसेन-

    यह कुरु के दक्षिण और चेदि के पश्चिम-उत्तर में स्थित था। इसकी राजधानी मथुरा थी। बौद्ध जातक ग्रंथों में शूरसेन के शासक अवन्तिपुत्र का वर्णन है जिसने महात्मा बुद्ध के शिष्य के रूप में इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।

  13. अवन्तिका-

    इसका क्षेत्र आधुनिक मालवा, निमाड़ तथा मध्यप्रदेश का समीपवर्ती क्षेत्र था। इस राज्य की राजधानी माहिष्मती थी। यह बौद्ध काल में साम्राज्य विस्तार के लिए संघर्षरत था। यह बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र था। जैन तथा बौद्ध साहित्य के अनुसार यह अपने समय में सांस्कृतिक तथा राजनीतिक चेतना का केन्द्र था।

  14. अस्सक-

    यह मालव के दक्षिण, कलिंग के उत्तर और दक्षिण भारत में स्थित था। इसकी राजधानी पोतली थी। बौद्ध जातक ग्रंथों में अस्सक राजाओं का वर्णन है। इसका अवन्ति राज्य से सीमा विस्तार के लिए सदैव संघर्ष चलता रहता था।

  15. गान्धार-

    इसमें कश्मीर, पश्चिमोत्तर प्रदेश, पेशावर तथा रावलपिंडी एवं तक्षशिला का क्षेत्र सम्मिलित था । इसकी राजधानी तक्षशिला थी। ईसा पूर्व छठीं सदी में इसका सम्राट पुस्कर सारिन था। कालान्तर में इस राज्य पर फारस के शासकों का आधिपत्य हो गया।

  16. कम्बोज-

    यह गान्धार का पड़ोसी राज्य था। इसकी राजधानी राजपुर थी। बौद्ध ग्रंथों में इसका उल्लेख है। बौद्ध धर्म के भूरिदत्त जातक ग्रंथों में कम्बोज-निवासियों का अनार्य परम्परा का माना गया है। उत्तर वैदिक युग में यह ब्राह्मण विद्या एवं धर्म का प्रमुख केन्द्र था।

उपरोक्त सोलह महाजनपदों के सम्बन्ध में हमारे ज्ञान तथा अध्ययन का क्षेत्र केवल साहित्यिक है, फिर भी उपलब्ध सामग्री तथा प्रमाणिक जैन एवं बौद्ध ग्रंथों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस काल में राष्ट्रीय चेतना का अभाव था। राष्ट्रीयता का स्थान क्षेत्रीयता और स्थानीयता ने ले लिया था । तत्कालीन राजाओं में निरंकुशता की प्रवृत्ति बढ़ रही थी। राजनीतिक स्थिति अत्यधिक अनिश्चित तथा सोचनीय हो गई थी। उक्त महाजनपदों के राजाओं में परस्पर मतभेद, प्रतिद्वन्द्विता, वैमनस्य एवं संघर्ष था। वस्तुतः यह राजनीतिक उथल पुथल और अस्थिरता का युग था । साम्राज्यवादी प्रवृत्तियाँ प्रगति पर थीं अर्थात् एक ओर राजनीतिक केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ रही थी, तो दूसरी ओर प्रजा की शक्ति बढ़ने पर राजतंत्रात्मक राज्यों की परिणति क्रमशः गणराज्यों में भी होती जा रही थी; यथा-कुरु, पांचाल, कम्बोज राज्यों में संघात्मक शासन था और बाद में गणतंत्रात्मक राज्य स्थापित हो गये।

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