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बर्नी के राज्य संबंधी विचार

र्नी

र्नी के राज्य संबंधी विचार

बर्नी अपने विचारों में सार्वभौमिक तथा मध्ययुगीन दोनों ही है। बर्नी के विचारों को दो भागों में बाँटा जाता है-

  1. सार्वभौमिक विचार
  2. मध्ययुगीन विचार

सार्वभौमिक विचार

बर्नी के सार्वभौमिक विचारों के अन्तर्गत उन विचारों का अध्यन्न किया जाता है जिनमें विवेक, ज्ञान, शाश्वतता, प्रगतिशीलता, संवेदनशीलता, वैधानिकता परिलक्षित होती है। बर्नी इन विचारों में प्लूटो और अरस्तू से प्रभावित प्रतीत होते हैं। उनका सबसे बड़ा जोर न्याय पर है। उनका स्पष्ट मत है कि राज्य का सबसे बड़ा कार्य न्याय की स्थापना करना है। उनका कथन है कि आदम के जमाने से लेकर आज तक यदि हम प्राचीन और वर्तमान काल के सभी समुदायों को लें तो उनका एक ही मत है कि धर्म की प्रथम आवश्यकता न्याय और न्याय की प्रथम आवश्यकता धर्म है। पुनः यदि पृथ्वी पर न्याय और नैसर्गिक धिकार नहीं होगे तो व्यक्तिगत सम्पत्ति नष्ट हो जायेगी और हर समय और हर स्थान पर व्यवस्था फैल जायेगी। गरीबों, असहायों की सहायता करना राज्य का कर्त्तव्य है। प्लेटों की ध्वनि में बर्नी कहते हैं कि यदि राजाओं ने शक्तियों को केवल अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु प्रयोग में लिया तो वे अन्ततोगत्वा सही और गलत में अन्तर करने की क्षमता खो देंगे।

बर्नी राज्य को एक स्वाभाविक संस्था मानते हैं और कहते हैं कि लोगों का राज्य में रहना आवश्यक है। यहाँ उनके विचार यूनानियों से मिलते हैं जो कि राज्य को स्वाभाविक और आवश्यक मानते थे। वह मानते हैं कि इस संसार में सत्य और असत्य दोनों ही हैं। असत्य के कारण समाज भ्रष्ट हो जाता है और लोगों को वेदना सहनी पड़ती है। सत्य से च्युत होने पर राजा न न्याय कर पाता है और न ही जनता की भलाई ही। अनैतिक व्यक्ति को शासन करने का अधिकार नहीं है। बर्नी राजा को नैतिकता के दायरे में बाँध देते हैं और यहाँ तक कहते हैं कि उसके सार्वजनिक और निजी जीवन में कोई अन्तर नहीं होना चाहिये।

शराब, आमोद-प्रमोद और अय्यासी का राजा के जीवन में कोई स्थान नहीं है। दूसरे शब्दों में कानून और नैतिकता के स्थापित मापदण्ड के समक्ष सभी समान है और चाहे छोटा हो या बड़ा उसे छूट नहीं दी जा सकती।

यह विचार प्राचीन भारत की धर्म की अवधारणा से काफी मिलता जुलता है। यहाँ बनी के विचारों में थोड़ी सी असंगति है। उन्होंने यह भी कहा है कि राजा के व्यक्तिगत पाप क्षम्य भी हैं यदि वह प्रजा को शरियत के रास्ते पर चलाता है और वह स्वयं इस्लाम के आदर्शो की अनुपालना करता है। लेकिन कुल मिलाकर बर्नी का जोर न्याय और सत्य की स्थापना पर ही रहता है।

बर्नी ने निरंकुश शासन को अस्वीकृत किया है। शासन अत्याचार तब ही करता है जबकि उसके मन में पाप है और वह सत्ता को अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रयोग में लाता है।

ऐसा शासन शैतान का घर है और इससे राजा के प्रति जनता की घृणा बढ़ती है और नतीजा दुर्भाग्य और विपदापूर्ण होता है। इसलिये बर्नी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि अच्छा राज्य वह है जो धर्म की रक्षा करे और प्रजा के लिये लोककल्याणकारी कार्य करे। मध्य युगीन बर्बरता, स्वेच्छाचारिता, निरंकुशता के युग में ये विचार ताजा हवा की तरह हैं। लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं लिया जाना चाहिये कि बर्नी वैधानिक राजतंत्र, कुलीनतंत्र या लोकतंत्र या लोकप्रिय सरकार की वकालत करते हैं। ये सब कुछ संभवतः उनके चिन्तन में ही नहीं था। वह एक स्वस्थ, श्रेष्ठ और लोकहितकारी राजतंत्र की बात कर रहे हैं जो धर्म की रक्षा करें और प्रजा को धर्माचरण की ओर प्रवृत्त करे। लेकिन यहाँ स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जहां हिन्दू चिन्तन में धर्म की अवधारणा अत्यन्त व्यापक है, यह कोई धर्म विशेष बौद्ध, जैन अथवा हिन्दू धर्म नहीं है, यह मानव धर्म है। यह कर्त्तव्य है, यह विशुद्ध नैतिक आचरण है जबकि बर्नी के लिए धर्म केवल इस्लाम ही है। इस्लाम से परे या इसके बिना उनका चिन्तन नहीं जाता, सार यह है कि बर्नी के राजनीतिक चिन्तन के मूल में इस्लाम है।

बर्नी ने इस्लाम के मूल में वह तत्व पाये जिनके आधार पर राज्य और प्रशासन अपनी श्रेष्ठता की ऊँचाइयों को प्राप्त करते हैं। उन्होंने माना कि न्याय के बिना कानूनों में स्वेच्छाचारिता परिलक्षित होती है। दूसरे शब्दों में, बर्नी ने यह बताने की कोशिश की कि कुरान के विरुद्ध आचरण ही अत्याचार है। इसका मतलब यह हुआ कि कुरान का मूलमंत्र ही न्याय की स्थापना करना है। केवल न्याय ही अत्याचार और दमन की मजबूत जंजीरों को तोड़ सकता है। सत्य को पहचानने और दमन, क्रूरता, चोरी लूट का पर्दाफाश करने के लिए न्याय का होना आवश्यक है। लगता है कि बर्नी प्लेटों के न्याय के सिद्धान्त से बहुत प्रभावित हैं लेकिन इसके अन्य पहलू जैसे पत्नियों और सम्पत्ति का साम्यवाद इस्लाम विरुद्ध होने के कारण त्याज्य हैं।

मध्ययुगीन विचार

ये कुछ ऐसे सिद्धान्त हैं जो सार्वभौमिक कहे जा सकते हैं। लेकिन बर्नी अपने परिवेश से भी बंधे हुए हैं। ऐसा लगता है कि परिवेश उन पर बहुत हावी है। इस कारण उनके चिन्तन का सौन्दर्य धूमिल हो जाता है। जैसा कि कहा भी जा चुका है कि उनके चिन्तन के केन्द्र में इस्लाम है और इस्लाम के नाम से होने वाले सभी कृत्यों को वह उचित भी ठहरा देते हैं। उदाहरणार्थ इस्लाम शांति, सौहार्द्र, प्रेम, त्याग सिखाता है, लेकिन हिंसा और क्रूरता को लेकर इस्लाम के प्रचार प्रसार को बर्नी ने उचित ठहराया है। वह हिन्दुओं और विशेष तौर पर ब्राह्मणों के विरुद्ध जहर उगलते हैं। वह कुरान के अलावा किसी ग्रंथ को स्वीकार ही नहीं करते और यहाँ तक कह देते हैं कि विज्ञान को पढ़ाने की आवश्यकता नहीं है।

उनके अनुसार कुरान, पैगम्बर की शिक्षायें एवं इस्लामिक कानून ही पढ़ाने योग्य हैं। उनका कथन यह है कि इस्लाम के परम्परागत ज्ञान के विपरीत जो भी है वह निरर्थक है। सभी धर्म केवल इस्लाम है और इसलिये मुस्लिम राजा का यह कर्त्तव्य है कि वह इस्लाम की सर्वोच्चता स्थापित करे और नास्तिकों एवं भारत के नेताओं को जो कि ब्राह्मण हैं नष्ट कर दे। ऐसा लगता है कि वह केवल मुसलमानों के लिए ही शासन सिद्धान्त प्रतिपादित कर रहे हों। न्याय सिद्धान्त की बात करते हुए वह कहते हैं कि शायद यह पूर्ण रूप से प्राप्त करना सम्भव न हो। यहाँ फिर वह अपने परिवेश से ऊपर नहीं उठ पाते जबकि वह कहते हैं कि राजा इन तीन बातों में कहीं कहीं न्याय के मार्ग से अलग भी जा सकता है। ये हैं-

  1. नास्तिकों पर बलात इस्लाम लादना,
  2. राज की रक्षा और
  3. अपने वफादारों को पारितोषक देना

यहाँ वह पुनः न्याय के सार्वभौमिक तत्व को भूल रहे हैं जबकि वह ये छूट दे रहें हैं। राजा को वह बहुत बड़ी स्वतंत्रता दे रहे है जिसका दुरुपयोग अवश्यभावी है। सच तो यह है कि बर्नी के दिमाग में केवल इस्लामिक राज्य है।

प्रो० वी० आर० मेहता का कथन है कि बर्नी ने भारतीय राजनीतिक चिन्तन में पहली बार अधिकारों के संदर्भ में व्यक्ति की अवधारणा को स्थापित किया। वह मानते हैं कि ऐसे अधिकारों की स्वीकृति ही राज्य का आधार और यदि राजा लोगों के अधिकारों को मान्यता नहीं देता है तो उसका राज्य नष्ट हो जायेगा। वह पत्नी, बच्चों, पुराने मित्रों, शुभ चिन्तकों, पुराने नौकरों, गुलामों और राज्य के चुनिन्दा लोगों के अधिकारों का उल्लेख करते हैं। बर्नी के चिन्तन में धर्मनिरपेक्षता का बोध होता है। लेकिन यह अत्यन्त सीमित है।

प्रो० मेहता का यह कथन कि वह पहली बार भारतीय राजनीतिक चिन्तन में व्यक्ति के अधिकारों की अवधारणा प्रतिष्ठापित करते हैं, मध्य युगीन भारतीय चिन्तन के संदर्भ में सही है। प्राचीन भारतीय चिन्तन तो व्यक्ति की स्वतंत्रता का पोषक है। चिन्तन इतना उदात है कि मनुष्य को सत + चित + आनन्द की प्राप्ति का अधिकार प्रदान करता है। यह तब ही संभव है जबकि वह बंधनमुक्त हो। सच तो यह है कि बौद्धिक स्तर पर प्राचीन भारतीय चिन्तन व्यक्ति को अपरिमित स्वायत्तता प्रदान करता है। उसके लिए कोई चीज अंतिम नहीं है, न कोई ग्रन्थ अंतिम है और न ही कोई गुरू या रास्ता। गौतम बुद्ध कहते हैं “आत्मदीपो भव” आप अपने दीपक स्वयं बनो। महावीर का अनेकान्तवाद भी इसी की उद्घोषणा करता है।

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