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अम्बेडकर के सामाजिक विचार

अम्बेडकर के सामाजिक विचार

डॉ. अम्बेडकर के सामाजिक विचार

डाक्टर अम्बेडकर के पास एक प्रखर, ऐतिहासिक दृष्टि थी। वे इतिहास की विकास प्रक्रिया को पूर्णरूपेण समझते थे और घटनाओं का समुचित आकलन कर सकते थे, किन्तु उनके पास कोई विशेष आध्यात्मिक दृष्टि नहीं थी। इसलिए वे ऐतिहासिक घटनाओं का सामाजिक मूल्यांकन तो करते थे, किन्तु उनको शाश्वत आध्यात्मिक मूल्यों के परिप्रेक्षय में, प्रस्तुत करने का प्रयास उन्होंने नहीं किया। यही कारण है कि उनकी ऐतिहासिक दृष्टि एकांगी प्रतीत होती है। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि जैसे वे किसी व्यक्तिगत मान्यता को सिद्ध करने के लिए ही इतिहास का प्रयोग कर रहे हों। इसका एक स्पष्ट कारण यह है कि वे इतिहास को, आर्थिक समस्याओं के संदर्भ में समझने का प्रयास करते हैं। उनके अध्ययन का विषय अर्थशास्त्र था। इसी विषय में उन्होंने उच्चतम डिग्रियाँ प्राप्त की और पुस्तकें लिखीं। उनके विचारों का देश और विदेशों में समुचित आदर हुआ, वे शास्त्रीय (तकनीकी) नियमों के अनुसार सही और उपयोगी हैं। उन्होंने प्रायः भारत की आर्थिक समस्याओं और व्यवस्थाओं पर ही अधिक ध्यान दिया और उनकी विश्लेषण-पद्धति, तर्क-सम्मत है। उन्होंने आर्थिक समस्याओं के आधार पर, सामाजिक व्यवस्था का जो अध्ययन किया है वह एकांगी होते हुए भी, अत्यन्त उपयोगी है। एक बात और स्पष्ट दिखाई पड़ती है। उनके सामाजिक विश्लेषण में वस्तुपरकता होते हुए भी एक पूर्वाग्रह है। वे विशेषतः उन्हीं समस्याओं की ओर ध्यान आकृष्ट करने का प्रयत्न करते हैं, जिससे दलित और अछूत वर्ग के शोषण की बू आती है। वे इतिहास के उन पक्षों की ओर प्रायः दृष्टिपात नहीं करते जिनसे भारतीय मानस के मूल शाश्वत सिद्धान्तों का आभास मिलता है। यहाँ तक कि किसी घटना या व्यवस्था के मूल्यांकन में वे प्रायः भूल जाते हैं कि इसके दो पहलू भी हो सकते हैं, एक वह पहलू जो सामाजिक विकृतियों के लिए उत्तरदायी है और दूसरा पहलू जो अनुशासित व्यवस्था के स्थापन के लिए अनिवार्य हैं। उदाहरणार्थ, भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था। यह पूर्णतया सच है कि अस्पृश्यता का भयंकर रोग इसी व्यवस्था की उत्पत्ति है, किन्तु यह भी मानकर चलना आवश्यक है कि वर्ण-व्यवस्था का मूल कारण, कार्य का बँटवारा था। अम्बेडकर ने प्रश्न किया है कि अगर इसका मूल उद्देश्य कार्य का बँटवारा था, तो यह व्यवस्था, अन्य देशों में स्वीकार क्यों नहीं की गई? हर देश का ऐतिहासिक विकास, उस देश की एक या दो परिस्थितियों की वजह से नहीं, बल्कि वहाँ की तमाम परिस्थितियों के समग्र प्रभाव के कारण होता है। यह मान लेना कि भारत में वर्ण व्यवस्था महज शोषण के लिए स्थापित की गई थी, तर्कसंगत नहीं है। कालान्तर में इसके साम्नेजिक कुप्रभाव उत्पन्न हुए-यह बात तो पूर्णतया सत्य है।

वर्ण व्यवस्था का विरोध

डाक्टर अम्बेडकर के विचारों का प्रारम्भ, उनके द्वारा वर्ण-व्यवस्था के विरोध से प्रारम्भ होता है। ठीक से नहीं कहा जा सकता कि वर्ण व्यवस्था कब शुरू हुई। इतना मान लेना असंगत न होगा कि वैदिक काल के प्रारम्भ में वर्णव्यवस्था का अस्तित्व नहीं था। भारतीय पुराणों में इसकी विषद् व्याख्या और समर्थन देता है। ‘मनुस्मृति’ के अनुसार, “परमात्मा के मुख से ब्राह्मणों, भुजाओं से क्षत्रियों, जाँघों से वैश्यों और पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।” पैरों से उत्पन्न होने का क्या यह अर्थ है कि शूद्रों को दलितों की श्रेणी में रखा जाये? क्या पैरों का कट जाना किसी भी स्थिति में श्रेयस्कर है? फिर यह कैसे मान लिया जाये कि शूद्रों के, पैरों से उत्पन्न होने का अर्थ है उनको नीचे का स्थान देना? इसके अतिरिक्त, क्या यह बिल्कुल स्पष्ट नहीं है कि मनुस्मृति का यह कथन, मात्र एक रूपक (metaphor) है। कदाचित इसका इतना ही अर्थ हो कि जिस प्रकार शरीर के सभी अंग बराबर का महत्व रखते हैं, उसी प्रकार चारों वर्ण मिलजुल कर समाज की समुचित संरचना के लिए आवश्यक हैं। इतना अवश्य सच है कि ‘मनुस्मृति’ जैसे कई अन्य ग्रन्थों में भी इस प्रकार की बातें आई हैं और इनमें से कई बातें अवश्य ऐसी हैं, जो आज के संदर्भ में मान्य नहीं हो सकतीं, उनका बहिष्कार किया जाना चाहिए। हम किसी ऐसी व्यवस्था का समर्थन नहीं कर सकते, जिसमें करोड़ों लोगों को नीचा समझकर उनका दमन किया जाये या उनकी उपेक्षा की जाये। डाक्टर अम्बेडकर का वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष तर्कसंगत था, किन्तु उनके द्वारा प्रस्तुत इतिहास की एकांगी प्रस्तुति, इतिहास की दृष्टि से पूर्णतया तर्कसंगत नहीं है।

यह मात्र एक पक्ष है, इसका दूसरा पक्ष यह है कि डाक्टर अम्बेडकर ने पूरी निष्ठा और हिम्मत से वर्ण-व्यवस्था का विरोध किया और अछूतोद्धार के कार्य में संलग्न रहे। इस संघर्ष में व्यक्तिगत पीड़ा होते हुए भी, एक ईमानदारी का भाव था, एक जनहित की भावना थी और देश को ऊपर उठाने की एक ललक थी। उनका ध्यान सबसे पहले भारतीय समाज के उस कोढ़ की ओर गया, जिसे अस्पृश्यता (untouchability) कहा जाता है। जैसा कि डब्ल्यू० एन० कुबेर ने अपनी पुस्तक ‘भीमराव अम्बेडकर’ में कहा है “अस्पृश्यता जातिवाद का ही कड़वा फल है।” इस फल की कड़वाहट, जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, का अनुभव अम्बेडकर व्यक्तिगत रूप से कर चुके थे। यह कड़वाहट इतनी तीब और भयंकर थी कि इसने उनके मन में हिन्दू धर्म विरोधी बीज बो दिया। इस बीज का प्रस्फुटन उनके बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेने के समय पूरी तरह दिखाई पड़ा। इसका वर्णन अम्बेडकर ने अपनी अंतिम पुस्तक ‘द गौस्पेल ऑफ महात्मा बुद्ध’ में किया है।

अस्पृश्यता का उन्मूलन

डाक्टर अम्बेडकर की मान्यता थी कि जब तक अस्पृश्यता को समूल नष्ट न कर दिया जायेगा, तब तक दलित वर्ग के लोगों का उद्धार सम्भव नहीं है। वे यह बात मानने को तैयार नहीं थे कि जाति प्रथा के पीछे काम के बँटवारे की भावना थी। उनका स्पष्ट मत था कि जाति प्रथा कुछ चालाक लोगों का षड्यंत्र था, जो किसी जाति विशेष का शोषण करना चाहते थे। इस शोषण की भावना के कारण ही मोटे तौर पर दो गुटों में समाज बँट गया-अवर्ण और सवर्ण । ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्यों ने मिलकर शूद्रों का शोषण करना शुरू कर दिया। इसमें ब्राह्मणों की भूमिका विशेषरूप से महत्वपूर्ण हो गई और वे अपने को परमात्मा का कृपा-पात्र मानने लगे। आखिर शूद्रों को ही नीचा और अछूत क्यों माना गया? इसका कारण सम्भवतः उनके द्वारा किये गए वे कार्य थे, जो आमतौर पर गंदे और निम्न श्रेणी के माने जाते हैं-मैला साफ करना, मरे जानवरों की खाल निकालना, जूते बनाना आदि। इन कामों को इतना गन्दा माना गया कि इन्हें करने वालों को छूना भी पाप समझा गया। गंदगी के सम्पर्क में जो भी आयेगा, वह भी गंदा हो जायेगा-ऐसी धारणा बनती चली गई। कालान्तर में यह भावना एक पूर्णतया विकसित सामाजिक मान्यता बन गई और अस्पृश्यता, भारतीय जीवन की एक अनिवार्यता मान ली गई, जो लोग इन तथाकथित गंदे कामों में लग गये या मजबूरन लगा दिए गये, वे शेष समाज से पूरी तरह कट गये। उनके सम्बन्ध अपने सीमित दायरे में ही सम्भव थे। अपनी जाति के बाहर वे विवाह आदि नहीं कर सकते थे। उनको सवर्णों को कुओं को छूने का अधिकार नहीं दिया गया। उनको सवर्णों की बस्ती से दूर बसने पर मजबूर किया गया। जीवन की साधारण सुविधायें भी उनको उपलब्ध नहीं की गई। उनका एकमात्र काम बंधुआ मजदूरी रह गया और वे बहिष्कार तथा तिरस्कार के पात्र समझे गये। कालान्तर में इस संकीर्ण, गंदे और एकाकी जीवन की वजह से इस निम्नवर्गीय समाज की अपनी ही विशेषतायें प्रकट होने लगी। बाह्य सम्पर्क की कमी और गंदे जीवन की वजह से उनके अपने जातीय गुण (जिनकी दुहाई आजकल भी अक्सर दी जाती है) पैदा होने लगे। उनके बच्चे काले और गंदे, अशिक्षित, संकीर्ण मनोवृत्ति वाले होते चले गए, एक वक्त ऐसा भी आया कि इनकी पहचान, महज इनको देखने मात्र से भी सम्भव समझी गई।

धार्मिक व्यवस्था का विरोध

सबसे पहली लड़ाई उन्होंने सवर्ण हिन्दुओं के विरुद्ध शुरू की। इस विषय में उनको महात्मा फुले के विचारों से सहायता मिली। वे किसी सिद्धान्त या मूल्य को शाश्वत नहीं मानते थे। उनका कथन था कि विरोधी शक्तियों के सामन्जस्य का प्रयास सफल होना मुश्किल होता है। सवर्ण हिन्दुओं का विरोध वे आवश्यक मानते थे और बराबर यही कहते थे कि जब तक हर क्षेत्र में समानता न हो जाये, यह विरोध जारी रहना चाहिए। उन्होंने बम्बई विधान-सभा के गैर-ब्राह्मण दल के नेता एस० के० बोले से सम्पर्क स्थापित किया और बम्बई सरकार से यह बात मनवा ली कि जितने भी कुँए और जलाशय हैं उनका उपयोग करने की अनुमति सबको दी जाये और हर सार्वजनिक संस्था में उनके प्रवेश की आजादी हो। मार्च 1927 के एक दिन एक सत्याग्रह का आयोजन किया गया और प्रसिद्ध महाड बावड़ी में अछूतों ने प्रवेश किया। इससे उच्च जाति के लोगों में एक आक्रोश की भावना उत्पन्न हो गई। समीप के एक मन्दिर में प्रवेश की भी अफवाह थी, इस पर दंगा भड़क गया, कई लोग घायल हो गये। स्वयं अम्बेडकर को पुलिस थाने में शरण लेनी पड़ी। इसके बाद एक विशाल सत्याग्रह की योजना बनाई गई। अम्बेडकर का आह्वान था कि जोर-जबरदस्ती से भी काम लिया जाये। इस पर सवर्णों ने भी अपनी एकता का प्रदर्शन करने की बात सोची, अम्बेडकर ने स्वयं सत्याग्रह की बागडोर अपने हाथ में ले ली। बम्बई सम्मेलन में कई ब्राह्मण विरोधी प्रस्ताव पास किए गये और ‘मनुस्मृति’ जिसे दासता और ब्राह्मणवाद का प्रतीक माना गया, की एक प्रति जला दी गई। इन सारी घटनाओं का गहरा प्रभाव हुआ। एक सुसुप्त जाति में जागृति की लहर तो अवश्य फैली, किन्तु एक हिंसायुक्त, विघटनकारी वातावरण का भी श्रीगणेश हो गया।

इस घटना के तुरन्त बाद मन्दिर प्रवेश से सम्बन्धित सत्याग्रह शुरू हो गया। यह लगभग तीन वर्ष तक चलता रहा। इसकी शुरूआत कालाराम मन्दिर में प्रवेश से आरम्भ हुई। दोनों समुदायों में कई झड़पें हुई और वातावरण तनावपूर्ण हो गया। ऐसी स्थिति में अम्बेडकर ने गाँधी के शान्ति प्रयास को भी अवहेलना कर दी और वे (प्रत्यक्ष) रूप से सवर्ण-विरोध के क्षेत्र में कूद पड़े, भले ही उन्होंने हिंसा की आवश्यकता को नकारा अवश्य।

सन् 1928 में अम्बेडकर ने ‘महार वतन’ की प्रणाली को लेकर संघर्ष किया। इस प्रणाली के अनुसार महारों को, एक बहुत छोटी रकम के एवज में, बंधुआ मजदूरों की तरह काम करना पड़ता था। उन्होंने कहा कि अगर इस प्रणाली का अन्त न किया गया, तो वे देशव्यापी आन्दोलन शुरू कर देंगे। इसके सम्बन्ध में एक बिल भी पेश किया गया, किन्तु बाद में अम्बेडकर ने यह कह कर बिल वापस ले लिया कि प्रवर समिति के सदस्यों ने बिल के महत्वपूर्ण अंशों को निकाल दिया है। अम्बेडकर ने बम्बई सरकार से बारबार कहा कि यदि वह इस समस्या का समुचित निदान नहीं करेगी, तो वे कानून का सहारा लेंगे, इस तरह की बातें बराबर चलती रहीं और ‘महार वतन’ प्रथा का अंत हुआ। सन् 1959 में जब अम्बेडकर की मृत्यु हो चुकी थी।

1930 में ‘दलित जाति एसोसिएशन‘ की स्थापना हुई और डाक्टर अम्बेडकर इसके सदस्य नियुक्त हुए उनकी अध्यक्षता में एक कमेटी को यह कार्य सौंपा गया कि वह दलित जाति की समस्याओं का अध्ययन करे, किन्तु अम्बेडकर इससे भी संतुष्ट नहीं थे। इसी समय इस समस्या के निदान के लिए गाँधी जी ने बीड़ा उठाया। पूना पैक्ट के अनुसार गाँधी जी ने ‘हरिजन’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया और इसे राजनैतिक वैधता दिलाई। इससे भी अम्बेडकर असन्तुष्ट हो गए। उनका ख्याल था कि ‘हरिजन’ नाम देकर दलितवर्ग को और अधिक एकाकी बनाया जा रहा है और इस कदम को उन्होंने कांग्रेस द्वारा दलितों को अपनी पार्टी में मिलाने की एक चाल कहा। अम्बेडकर पर यह आरोप लगाया गया कि वे केवल अपनी जाति का कल्याण चाहते हैं, देश का नहीं। उन्होंने ईमानदारी से स्वीकार किया कि यही सच है और उन्होंने वह कभी नहीं कहा कि वे सारे समुदायों के ठेकेदार हैं। इससे गाँधी जी को गहरी पीड़ा का अनुभव हुआ। अन्त तक अम्बेडकर दलितों, विशेषकर महार जाति की समस्याओं से जूझते रहे और अन्त तक यह कहते रहे कि उनको मीठी बातें नहीं, संवैधानिक अधिकार चाहिए।

ऊपर के विश्लेषण से स्पष्ट है कि अम्बेडकर का अछूतोद्धार सम्बन्धी कार्यक्रम सामाजिक एकता के सिद्धान्त पर आधारित था। वे अछूतों तथा दलितों का उद्धार इसलिए चाहते थे, क्योंकि बिना इस आवश्यकता की पूर्ति किये भारतीय समाज में सामाजिक न्याय सम्भव नहीं था। उनकी यह मान्यता आज के संदर्भ में भी उतनी ही सही प्रतीत होती है, जितनी उनके समय में थी। अगर उन्होंने अछूतोद्धार का बीड़ा न उठाया होता, तो भारतीय समाज के इस तिरष्कृत वर्ग को वह संवैधानिक संरक्षण न मिल पाता, जो स्वतंत्रता प्राप्ति के समय इस वर्ग को दिया गया। यह संवैधानिक संरक्षण आज तक भी कायम है और सम्भवतः दीर्घकाल तक चलता रहेगा। इसी सामाजिक न्याय के सिद्धान्त के आधार पर पिछले कई वर्षों से मण्डल आयोग को लेकर विवादित चल पड़ा है। अगर अनुसूचित जाति तथा जनजाति के संदर्भ में आरक्षण की नीति न अपनाई जाती, तो मण्डल आयोग संबंधी विवाद भी शायद खड़ा न होता। विभिन्न प्रकार की आरक्षण नीतियों की आवश्यकता है या नहीं-यह प्रश्न एक अलग बात है। मुख्य बात जिसकी चर्चा यहाँ होनी चाहिए वह यह है कि क्या संवैधानिक संरक्षण मात्र से ही सामाजिक न्याय का आदर्श प्राप्त किया जा सकता है? विभिन्न प्रकार के सही अथवा गलत आंकड़े देकर यह सिद्ध करना कठिन नहीं है कि आरक्षण एक आवश्यक अनिवार्यता है।

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