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अम्बेडकर की राजनीतिक भूमिका

अम्बेडकर की राजनैतिक भूमिका

अम्बेडकर की राजनैतिक भूमिका

डाक्टर अम्बेडकर मूलतः एक विधिवेत्ता थे और कानून की महत्ता पर उनका अटल विश्वास था। इस आस्था के आधार पर, वे एक लोकतंत्रवादी ही हो सकते थे और संवैधानिक ढाँचे के माध्यम से वे लोकतंत्र को सही दिशा में अग्रसर करना चाहते थे। उनका मत था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था का सही संचालन, केवल समानता के आधार पर ही हो सकता है। भारत जैसे देश में जहाँ दलितों को ‘अछूत’ की संज्ञा दी जाती है, लोकतंत्र निरर्थक हो जाता है। इसलिए उन्होंने महसूस किया कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले ही कुछ समस्याओं का समुचित निदान कर लिया जाये, ताकि बाद में समाज के सामने विघटनकारी प्रवृत्तियाँ सिर न उठायें। इस सम्बन्ध में भी उनकी पहली चिन्ता थी अछूतों को अधिकार दिलाना। इस आधार पर उन्होंने दलितों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व की बात सामने रखी। उन्होंने अंग्रेजी शासन से बारबार जोर देकर यह कहा कि उसने दलितों की स्थिति सुधारने के लिए कभी कोई कदम नहीं उठाया। लगभग इसी तरह की शिकायतें अन्य अल्पसंख्यक वर्गों को भी थीं। विशेषतः मुसलमान नेता इस बात का भरसक प्रयत्न कर रहे थे कि उनको वरीयता के आधार पर कुछ विशेष अधिकार प्रदान किए जायें, ताकि उनकी सत्ता को राजनैतिक हथकंडों का शिकार न होना पड़े।

इन सब बातों को ध्यान में रखकर अंग्रेजी सरकार ने कुछ समझौते करने का प्रयास किया। 1916 में मार्ले-मिन्टो सुधारों के दौरान मुसलमानों को एक पृथक् समुदाय के रूप में मान्यता मिल चुकी थी। उनको पृथक् मतदान का अधिकार प्रदान कर दिया गया था। तिलक इस समझौते से सहमत थे, किन्तु मालवीय तथा कुछ अन्य नेताओं ने इसका विरोध किया। कुछ ही समय बाद एक मताधिकार समिति की नियुक्ति की गई और अम्बेडकर ने भी, इस समिति के सम्मुख अपने विचार प्रकट किए, उनका मत था कि दलित वर्ग के लिए जनसंख्या के आधार पर पृथक् निर्वाचन मण्डल की व्यवस्था होनी चाहिए। मोतीलाल नेहरू ने इस व्यवस्था का विरोध किया और इसको देश के लिए हानिकारक बताया।

1930 तथा 1931 में पहला और दूसरा गोलमेज सम्मेलन हुआ। इसमें अम्बेडकर की भूमिका, अधिक स्पष्ट रूप से सामने आई। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि दलित वर्ग के लोग ‘हिन्दू’ नहीं हैं और उनकी पृथक् अस्मिता को स्वीकार कर लेना चाहिए। उनको ‘अवर्ण हिन्दू ‘प्रोटेस्टेन्ट हिन्दू’ या ‘नान कन्फोर्मिस्ट हिन्दू’ कुछ भी कहा जाये, किन्तु उनको महज ‘हिन्दू’ शब्द से न पहचाना जाये। गाँधी पर छींटाकशी करते हुए उन्होंने कहा कि सवर्ण लोग हमको भाई इसलिए कहते हैं कि वे हमारी अस्मिता को समाप्त कर दें और अपने लाभ के लिए हमारा उपयोग करते रहें। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की-“वे उस समय तक भारत के किसी भी स्वशासी संविधान पर सहमत्ति प्रकट नहीं कर सकते, जब तक कि उनकी मांगे, सही तौर पर स्वीकार नहीं कर ली जातीं।” द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के अवसर पर, सारे अल्पसंख्यक समुदायों के बीच एक संयुक्त समझौता हुआ, जिसके अनुसार सरकार को यह ज्ञापन दिया गया कि हर अल्पसंख्यक समुदाय को, जनसंख्या के आधार पर पृथक् प्रतिनिधित्व दिया जाये। यह सिद्धान्त गाँधी जी के लिए अत्यन्त असहनीय था। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में इसकी अवहेलना की। उन्होंने साफ कहा कि अम्बेडकर ने जिस प्रस्ताव का समर्थन किया है, उससे साफ पता चलता है कि वे न्याय की भावना को पूर्णतया तिलांजलि दे चुके हैं।

वास्तव में अम्बेडकर, अपने जीवन की कड़वाहट से किसी हद तक राष्ट्रहित को भुला रहे थे। उन्होंने 1932 में एक सफलता अवश्य हासिल की, वह था मैकडोनाल्ड का साम्प्रदायिक पंचाट (Communal Award) जिसके अनुसार अन्य अल्प संख्यकों के साथ, दलित वर्ग को भी पूर्ण प्रतिनिधित्व प्राप्त हो गया। साम्प्रदायिक पंचाट के पक्ष में उन्होंने कहा-“हमने पृथक् निर्वाचन मण्डल की माँग करके, हिन्दू समाज का अहित नहीं सोचा है। हमने यह रास्ता इसलिए अपनाया है, ताकि अपना भाग्य निर्धारित करने में हमें सवर्ण हिन्दुओं की कृपा पर निर्भर न रहना पड़े।” गाँधी जी इस पंचाट से तिलमिला उठे थे। उन पर यह आरोप लगाया जा रहा था कि वे दलितों को और भी दलित बनाना चाहते थे। गाँधी जी, हिन्दू समाज के विघटन के भय से त्रस्त थे। वे समझते थे कि इस अलगाववाद के सिद्धान्त से, समाज बुरी तरह टूट जायेगा। दुखी मन से उन्होंने कहा-“मैं अछूतों के महत्वपूर्ण हितों की बलि नहीं चढ़ने दूंगा, चाहे देश को स्वाधीनता मिले या न मिले।” किसका दर्द अधिक गहरा था, गाँधी का या अम्बेडकर का? इसका उत्तर देना शायद आवश्यक नहीं है।

राजनैतिक क्षेत्र में अपनी सक्रिय भूमिका निभाने के प्रयास में अम्बेडकर ने ‘इंडिपेन्डेन्ट लेबर पार्टी’ की स्थापना की। अपनी पार्टी के ध्येय की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा-“यह पार्टी श्रमिकों का संगठन है, क्योंकि इसका कार्यक्रम मुख्यत: श्रमिकवर्ग का कल्याण है। इसलिए ‘दलित’ के स्थान पर ‘श्रमिक’ शब्द को रखा गया है, श्रमिकों में दलित भी शामिल हैं”। इस वक्तव्य से पता चलता है, वे अन्तत: यह समझ गये थे कि उनको अपनी राजनैतिक भावना को कुछ व्यापक करना पड़ेगा। उन्होंने धीरे-धीरे कुछ समाजवादी विचारधारा को भी प्रश्रय दिया। यहाँ तक कि औद्योगिक बिल का विरोध करने के लिए उन्होंने साम्यवादियों की सहायता ली। यह केवल एक परिस्थिति के अनुकूल किया गया समझौता था। इसके अतिरिक्त अम्बेडकर का साम्यवादियों से कोई सम्बन्ध नहीं था। इस दौरान अम्बेडकर का कांग्रेस-विरोधी ढर्रा और प्रबल होने लगा। यहाँ तक हुआ कि जिन्ना के आदेश पर जब 1939 में 22 दिसम्बर को मुक्ति दिवस मनाया गया, तो इसमें अम्बेडकर भी शामिल हुए। कांग्रेस को वे सवर्णों की पार्टी मानते रहे और उसकी सतत् आलोचना करते रहे। 1942 में वे ब्रिटिश सरकार की इक्जीक्यूटिव काउंसिल के श्रम सदस्य के रूप में लिए गए। उनके अनुयाइयों ने इसको ब्राह्मणों पर एक करारे प्रहार की संज्ञा दी। किन्तु 1946 में उनको त्यागपत्र देने के लिए बाध्य होना पड़ा।

डाक्टर अम्बेडकर का कांग्रेस विरोधी रवैया तब समाप्त हुआ, जब नेहरू की अध्यक्षता में बने पहले मंत्रीमण्डल में उनको कानून मंत्री के रूप में लिया गया। वे मंत्रीमण्डल में दलित वर्ग के अकेले प्रतिनिधि थे। किन्तु जब 1951 में ‘हिन्दू कोड बिल’ के विषय में उनका नेहरू और पटेल से मतभेद हो गया, तो उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। त्यागपत्र में नेहरू की निन्दा ही विशेष बात थी। नेहरू को इससे बड़ी निराशा हुई और वे अम्बेडकर से दूरी महसूस करने लगे। यह उनके राजनीतिक जीवन की सक्रिय भूमिका का अन्तिम चरण था।

अम्बेडकर की राजनीतिक भूमिका का आधार उनकी सामाजिक मान्यतायें थीं। वे राजनीति के क्षेत्र में इसलिए सक्रिय हुए, क्योंकि वे अछूतों तथा दलितों को सामाजिक अधिकार दिलवाना चाहते थे। अगर उनके मस्तिष्क में अछूतोद्धार की बात न हे ती, तो सम्भवतः वे राजनीति के क्षेत्र में आते ही नहीं। उनका विषय तो अर्थशास्त्र था। किन्तु बिना राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लिये बिना सामाजिक एकता के आदर्श की प्राप्ति सम्भव ही नहीं थी। वे समझते थे कि बिना राजनीतिक अधिकारों के दलित वर्ग को अपनी दशा सुधारने की ओर सचेत करना सम्भव नहीं था। यही कारण है कि राजनीति में आते ही कई लोगों से उनका विरोध शुरू हो गया।

अम्बेडकर का यह मत कि देश की राजनीति में अछूतों की सीधी भागीदारी होनी चाहिए, निस्सन्देह उचित था और पृथक् निर्वाचन मण्डल की पद्धति से यह अनिवार्यता सुनिश्चित की जा सकती थी, किन्तु इस नीति में अवश्य ही एक खतरा था। ऐसा मान लिये जाने पर अछूत वर्ग का सम्पर्क हिन्दू समाज से हमेशा के लिए छूट जाता। अम्बेडकर का कहना था कि जिस तर्क से मुसलमानों को अल्पसंख्यक मानकर पृथक् निर्वाचन मण्डल की माँग मान ली गई थी (लखनऊ पैक्ट के तहत) उसी तर्क से अछूत वर्ग के लिए भी ‘अल्प-संख्यक’ का प्रयोग किया जा सकता था। मुसलमानों का प्रतिनिधित्व तो मुस्लिम लीग ने किया था और जिन्ना आदि नेताओं ने दो-राष्ट्र-सिद्धान्त (Two nation theory) के आधार पर मुसलमानों को पृथक् प्रतिनिधित्व की बात मनवाई थी। अछूत वर्ग के पास ऐसा कोई तर्क नहीं था। वे तो हमेशा ही हिन्दू-समाज के अभिन्न अंग रहे हैं । उनको अल्पसंख्यक की संज्ञा देने का एकमात्र अर्थ यह होता है कि वे हिन्दू समाज से तो कट ही जाते, उनकी राष्ट्रीयता पर भी प्रश्न चिह्न लग जाता। इसी तर्क के आधार पर भारत का विभाजन हुआ। अछूत वर्ग की पृथक् निर्वाचन मण्डल की बात मानने का अर्थ होता ‘पाकिस्तान’ की ही भाँति ‘अछूतिस्तान’ की बात मान लेना। उस वक्त कई लोगों ने इस तरह की भावना भड़काने का प्रयास भी किया था। अम्बेडकर को यह सुझाव मंजूर नहीं था। यह उनकी दूरदर्शिता का सबल प्रमाण है। वे राष्ट्रीयता के आधार पर अछूतों के लिए अलग राष्ट्र की माँग नहीं करना चाहते थे। फिर किस आधार पर वे प्रथक् निर्वाचन मण्डल की बात कहते थे? वास्तव में उनको सवर्ण हिन्दुओं पर कतई विश्वास नहीं था। इसी अविश्वास के कारण वे अछूतों की पृथक् सत्ता की बात करते थे। उनका मत था कि अछूतों को सिर्फ ‘हिन्दू’ न कहा जाये। उनको या तो ‘अवर्ण हिन्दू’ या ‘प्रोटेस्टैन्ट हिन्दू’ या ‘नान कान्फौरमिस्ट हिन्दू’ कहा जाये, इस तरह का वर्गीकरण कितना अनुचित तथा अतार्किक होता यह स्पष्ट ही है। जातिगत मान्यताओं को इस रूप में मान लेने से अलगाव की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता। इसके अतिरिक्त, तथाकथित अछूत वर्ग में भी अन्य प्रकार का वर्गीकरण किया जा सकता है। जैसे-सवर्ण हिन्दुओं में भी आज तक बना हुआ है।

यदि अम्बेडकर राजनीति के क्षेत्र में अन्य नेताओं के सहयोग से कार्य करते, तो उनको अधिक सफलता मिल सकती थी। ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपनी इस भूमिका में अकेले पड़ गये। किसी भी शासन-तन्त्र को बदलने में लम्बा समय अपेक्षित होता है। अगर अम्बेडकर कुछ अधिक धैर्य का परिचय देते तो अधिक सक्रिय और प्रभावी हो सकते थे। जब हम अम्बेडकर के राजनीतिक जीवन पर दृष्टि डालते हैं, तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि उनकी समस्त गतिविधियों का केन्द्रबिन्दु अछूतोद्धार की समस्या थी। यह एक ऐसी समस्या थी, जो कांग्रेस के कार्यक्रम में सम्मिलित थी। अम्बेडकर चाहते थे कि इस समस्या का राजनीतिक हल तुरन्त निकल आये। जो जातिगत विकृतियाँ सम्पूर्ण हिन्दू परम्परा का एक अभिन्न अंग बन चुकी थीं। उनको रातों-रात छिन्न-भिन्न कर देना सम्भव नहीं था। इसके अतिरिक्त इन विकृतियों का निराकरण सिर्फ राजनीति के माध्यम से नहीं हो सकता था। सम्भवतः इस बात का अहसास अम्बेडकर को भी था, किन्तु वे इन विकृतियों से इतने व्यथित थे कि वे सम्पूर्ण परम्परागत व्यवस्था को उखाड़ फेंक देना चाहते थे। ऐसे महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन सही शिक्षा के प्रचार-प्रसार से ही सम्भव होते हैं और उनको प्रभावी होने में समय भी लगता है।

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