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बाल गंगाधर तिलक के सामाजिक विचार

बाल गंगाधर तिलक का सामाजिक सुधार

बाल गंगाधर तिलक का सामाजिक सुधार दर्शन

(TILAK’S PHILOSOPHY OF SOCIAL REFORMS)

“जो लोग समाज के नेता बनते हैं उनें चाहिए कि वे स्वयं उदाहरण उपस्थित करें। यदि कोई सुधार जनता पर ऊपर से लादा जाएगा तो वह सफल नहीं हो सकता।“

तिलक

लोकमान्य तिलक एक सच्चे जन-नेता और राजनीतिक नेता थे, अतः यह स्वाभाविक था कि वे सामाजिक सुधारों की ओर ध्यान देते लेकिन उनका मार्ग तत्कालीन प्रवाह से भिन्न था । जहाँ तत्कालीन नेता सरकार से मिलकर सुधार कानून बनवाने और सुधार करने के अनुगामी थे वहाँ तिलक सामाजिक सुधार को सरकार की ओर से लादना उपयुक्त नहीं मानते थे। उनका कहना था कि सामाजिक सुधार जनता की ओर से आने चाहिए और क्रमशः धीरे-धीरे विकसित होने चाहिए। तिलक ने समाज-सुधार के क्षेत्र में जो विचार प्रकट किये और जिस पद्धति का अनुसरण किया, उसे अग्रलिखित शीर्षकों में विभाजित करना उपयुक्त होगा।

समाज-सुधार के स्वाभाविक विकास का समर्थन

तिलक सामाजिक सुधारों में आमूल-चूल और क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के बनिस्बत उनके धीरे-धीरे विकास के हामी थे। उनका कहना था कि शिक्षा और ज्ञान-वृद्धि के साथ-साथ सुधार कार्य स्वाभाविक ढंग से विकसित होते रहें, यही देश के हित में है। यदि सुधार कार्य स्वाभाविक ढंग से आगे बढ़े तो सुधार के नाम पर समाज विभिन्न पन्थों, सम्प्रदायों, गुटों आदि में विभक्त होने से बच जायगा। तिलक का अभिमत था कि समाज-सुधार में आकस्मिक और क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने की प्रवृत्तिं से हिन्दू संस्कृति के परम्परागत नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को ठेस पहुँच सकती है।

सामाजिक सुधार से पूर्व राजनीतिक उन्नति और राष्ट्रीय समर्थन

समकालीन अधिकाँश नेताओं के विपरीत तिलक की मान्यता थी कि सामाजिक सुधारों से पहले देश को राजनीतिक उन्नति, राजनीतिक स्वतन्त्रता और राष्ट्रीय जागरण की आवश्यकता थी। यदि देश राजनीतिक क्षेत्र में आगे बढ़ जाता है तो समाज सुधार के क्षेत्र में वह स्वतः ही आगे बढ़ जायगा। तिलक समाज सुधार से पहले राजनीतिक सुधार पर जोर देते थे, लेकिन वह कभी भी रूढ़िवादी नहीं थे वरन् अस्वस्थ पुरानी परिपाटियों को बदलने के पक्ष में थे। उनकी मान्यता थी कि परिवर्तन धीरे-धीरे सहमति से ही किये जाने चाहिए किसी दबाव से नहीं।

तिलक का कहना था कि समाज सुधार के कार्य में शक्ति व्यय न करके पहले सम्पूर्ण शक्ति राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के अधिक महत्वपूर्ण कार्य में लगा दी जाए। राष्ट्रीय जागरण पहला काम है। राष्ट्रोत्थान होने पर हम स्वराज्य प्राप्त कर सकेंगे और तब सामाजिक सुधार कार्य करना उचित होगा। यदि हमने सामाजिक सुधार कार्य को प्राथमिकता दी तो हम स्वतन्त्रता प्राप्ति के अपने महान् राजनीतिक लक्ष्य को शीघ्र प्राप्त नहीं कर सकेंगे। ब्रिटिश शासक हमें अपने राजनीतिक लक्ष्य से भटकाने के लिए ही इस बात के लिए उकसाते हैं कि हम पहले सामाजिक सुधार में अपनी शक्ति का व्यय करके राजनीतिक उन्नति के लिए वातावरण पैदा करें। तिलक ने अपने भाषणों में यह स्पष्ट संकेत दिया कि “समाज सुधार और राष्ट्रीय चेतना में कोई सम्बन्ध नहीं है। कुछ भले लोग चाहते हैं कि भारत में राजनीतिक सुधार लागू होने के पहले सामाजिक सुधार हो जाना आवश्यक है। ये सुधार बर्मा में मौजूद हैं पर वहाँ धर्म, देश या देशी व्यापार के सम्बन्ध में भावनाओं का अभाव है। हमें बर्मा के समाज सुधार पसन्द हैं, पर बर्मा और श्रीलंका की परिस्थिति देखकर लगता है कि भारत का औद्योगिक या राष्ट्रीय विकास के लिए समाज-सुधार आवश्यक मानना गलत है। देश प्रेम, आपसी भेदभाव मिटाने की क्षमता, देश के लिए संयुक्त रूप से काम करने की इच्छा और आदत ये गुण आवश्यक हैं। यदि हम भारत को दासता के दलदल से निकालना चाहते हैं तो हमें इसी दशा में चलना होगा।” तिलक यह भी कहते थे कि कुछ अंग्रेज बर्मा को राजनीतिक अधिकार न देने के पक्ष में यह तर्क देते हैं कि वहाँ के लोगों में साहस, शौर्य एवं सैनिक परम्पराओं का अभाव है। पर जब हम यही अधिकार मराठों, सिक्खों और राजपूतों के लिए माँगते हैं तब कोई दूसरा बहाना तैयार मिलता है।’

सामाजिक सुधारों से पहले राष्ट्रीय जागरण और राजनीतिक सुधारों पर शक्ति व्यय करने सम्बन्धी विचार तिलक की दूरदर्शिता के परिचायक थे। उनका यह कहना ठीक था कि यदि विदेशी शासन के रहते हुए सामाजिक सुधारों को प्राथमिकता दी गई तो यह सुधार भारत की आदर्श परम्पराओं एवं महान् संस्कृति के अनुकूल न होकर पाश्चात्य सभ्यता, संस्कृति एवं चकाचौंध से प्रभावित होंगे। तिलक का स्पष्ट मत था कि राजनीतिक अधिकारों के अभाव में देश अपनी सांस्कृतिक धारा को सुरक्षित नहीं रख सकता।

सामाजिक-धार्मिक मामलों में नौकरशाही के हस्तक्षेप का विरोध

तिलक का विचार था कि सामाजिक एवं धार्मिक मामलों में नौकरशाही का हस्तक्षेप अनुचित है। किसी भी सामाजिक कानून को लागू करने के लिए कार्यपालिका और फिर तत्सम्बन्धी समस्याओं के लिए न्यायपालिका की आवश्यकता रहती है और फलस्वरूप नौकरशाही की शक्ति का क्षेत्र विकसित होता है। भारतीयों के हक में यह कतई ठीक नहीं है कि ब्रिटिश नौकरशाही का कार्यक्षेत्र विकसित हो । विदेशी लोग भारतीयों की सामाजिक समस्याओं पर निर्णय दें, यह लज्जाजनक है। इससे बढ़कर और शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि हम ब्रिटिश नौकरशाही के सामने गिड़गिड़ा कर कहें कि वह अपने समाज के सुधार के लिए कानून बनाये। ब्रिटिश सरकार जनता के प्रतिनिधियों की नहीं वरन् विदेशी गोरों की है जिसे भारतीय धर्म, भारतीय संस्कृति और भारतीय आचार-विचारों से कोई सहानुभूति नहीं हो सकती। अतः ऐसी सरकार से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह भारतीय समाज में न्याय-संगत सुधार लाने के लिए कुछ कर सकेगी। तिलक ने कतिपय सामाजिक सुधार विधेयकों का विरोध इसलिए नहीं किया कि वे सामाजिक सुधार के पक्ष में नहीं थे बल्कि इसलिए किया कि उनकी दृष्टि में भारतीय जनता की प्रथाओं व परम्पराओं में एक विदेशी सरकार का हस्तक्षेप अनुचित था। तिलक को भय था कि यदि एक बार विदेशी सरकार को सामाजिक मामलों पर भी नियन्त्रण की शक्ति मिल जाएगी तो न केवल उनका कार्यक्षेत्र ही बहुत अधिक बढ़ जाएगा बल्कि भारतीयों की सम्पूर्ण जीवन पद्धति को ही एक गम्भीर खतरा पैदा हो जाएगा तथा जनता का नैतिक बल भी क्षीण हो जायेगा। तिलक ने संदेश दिया कि भारतीयों का सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र अब तक स्वचालित रहा है, अत: अब उसे विदेशी सरकार के नियन्त्रण में सौंपना आत्मघातक होगा।

राजनीतिक आन्दोलन और समाज-सुधार में पृथकता के हामी

तिलक राजनीतिक आन्दोलन और सामाजिक सुधारों को एक साथ मिलाने के पक्ष में नहीं थे। उनका इस प्रकार का विचार था कि भारत जैसे देश में, जहाँ सामाजिक, धार्मिक वर्गों तथा अगणित भेदभावों का अस्तित्व है, यदि सामाजिक सुधारों को राजनीतिक आन्दोलनों के साथ जोड़ दिया गया तो वे भेदभाव राजनीतिक क्षेत्र में भी पनप जायेंगे और तब राजनीतिक मंच पर सम्पूर्ण भारत का एक शक्तिशाली संगठन नहीं बन पाएगा। यह एक ऐसी स्थिति होगी जिससे राष्ट्रीय जागरण को आघात पहुँचेगा और देश अपने राजनीतिक लक्ष्य से दूर हो जायगा।

जाति-पाँति, अस्पृश्यता, बाल-विवाह, विधवा-विवाह, मद्यपान आदि पर विचार

तिलक ने सामाजिक सुधारों के प्रत्येक महत्वपूर्ण पहलू को स्पर्श किया । उनका जाति-पाँति के भेदभावों और अस्पृश्यता में विश्वास नहीं था | गणपति उत्सवों में वे अछूतों को सवर्ण हिन्दुओं के साथ सामाजिक स्थान देते थे। अन्य जातियों के साथ बैठकर भोजन आदि करने में उन्हें कोई हिचक नहीं थी। लेकिन साथ ही उनका यह भी स्पष्ट मत था कि समाज को अपने नेताओं के आचरण पर दृष्टि रखने का अधिकार है। यही कारण है कि जब एक बार ईसाई पादरी द्वारा आयोजित चाय पार्टी में भाग लेने पर जन-साधारण में एक बवंडर खड़ा हो गया और उन्हें जाति-बहिष्कार की धमकी भी दी गई, तो उन्होंने गुरु शंकराचार्य के पवित्र न्यायालय में उपस्थित होकर हल्के से दण्ड को शिरोधार्य किया और अपने इस व्यवहार से यह स्पष्ट कर दिया कि परिस्थितियों की माँग थी कि विदेशी हुकूमत से लड़ने के लिए जनता को अपना सहयोगी बनाया जाय और जन-जीवन का अनादर न किया जाए । तिलक जानते थे कि वह समय व्यक्तिगत हठ अथवा दुराग्रह का नहीं था बल्कि जनता को साथ लेकर राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए लड़ने का था।

लोकमान्य तिलक बाल विवाह के विरोधी और विधवा विवाह के समर्थक थे। उन्होंने विख्यात समाज सेवक बैरामजी मलाबारी द्वारा प्रस्तावित सुधार प्रस्तावों में संकलित करने के लिए 1890 में अपने निम्नलिखित प्रस्ताव पेश किये-

  1. लड़कों के विवाह की न्यूनतम आयु 20 वर्ष और लड़कियों के विवाह की आयु 16 वर्ष हो।
  2. 40 वर्ष से ऊपर के पुरुष विवाह न करें और यदि वे विवाह करना ही चाहें तो विधवाओं से करें।
  3. विवाह-उत्सव पर मधपान बन्द कर दिया जाय ।
  4. दहेज का चलन रोक दिया जाय।
  5. विधवाओं को विरूप न किया जाय ।
  6. प्रत्येक समाज सुधारक अपनी मासिक आय का दसमाँश सार्वजनिक सेवा में लगाए।

यद्यपि तिलक बाल विवाह के पक्ष में न थे और न ही अल्पावस्था सम्भोग के समर्थक थे, तथापि उन्होंने ‘सहमति-आयु विधयेक’ (The Age of Consent Act, 1891) का विरोध किया । तिलक इस विधेयक की उपलब्धियों के विरोधी नहीं थे, उन्होंने विधेयक का विरोध केवल इसलिए किया कि वे चाहते थे कि समाज सुधार के क्षेत्र में विदेशी सरकार हस्तक्षेप न करे। पर जब यह विवाह आयु-विधेयक कानून बन गया तो तिलक ने उसका पालन किया हालाँकि कितने ही सुधारवादी लुक-छिप कर उसका उल्लंघन करते रहे। तिलक ने अपनी पुत्रियों का विवाह तभी किया जब वे 16 वर्ष की हो गईं। तिलक का कहना था कि सुधारों के पक्ष में सामाजिक चेतना पैदा की जाय, उनको कानून द्वारा जनता पर थोपा नहीं जाए।

तिलक चाहते थे कि जो लोग समाज के नेता बनते हैं उन्हें चाहिए कि वे स्वयं उदाहरण उपस्थित करें और तब जनता से उन सुधारों को अपनाने की अपेक्षा करें। 1890 में पूना में अपने एक भाषण में उन्होंने स्पष्ट रूप में कहा-“आज समाज-सुधार की बड़ी चर्चा है। किन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमें जनता को सुधारना है और यदि हम अपने को जनसमूह से अलग कर लेंगे, तो कोई भी सुधार असम्भव होगा। इसका सबसे ज्वलन्त उदाहरण यह है कि यद्यपि विधवा-विवाह आवश्यक है फिर भी बहुत से समाज सुधारक अपने परिवारों में इस पर अमल करने को तैयार नहीं हैं। अतः मेरे विचार से हर आदमी पहले अपने को सुधार कर दूसरों के सामने एक उदाहरण रखे और उन्हें समाज सुधार की प्रेरणा प्रदान करे, न कि केवल उपदेश-भर देता रहे। सुधार का उपदेश देने वाले लोग पहले अपने उपदेशों का पालन स्वयं करें।”

लोगों का कहना था कि तिलक राजनीति में वामपंथी थे और धार्मिक मामलों में घोर दक्षिणपंथी। किन्तु तिलक के अपने कथन के अनुसार बात बिलकुल उल्टी ही दिखाई पड़ती है। उन्होंने 7 जून, 1892 के ‘केसरी’ में लिखा था-“हमारे राजनीतिक क्षेत्र की तथा उनके सामाजिक क्षेत्र की समस्याओं में पर्याप्त समानता है। न तो हमें देश के वर्तमान प्रशासन से ही पूर्ण सन्तोष मिलता है और न ही अपनी सामाजिक स्थिति से। हम तो दोनों में सुधार चाहते हैं। अंग्रेजी प्रशासन तथा भारतीय समाज दोनों की ही जड़ें गहरी हैं। इसीलिए हमें बड़े ध्यान से काम करना है। अब यदि जनता राजनीतिक सुधारों को आपसी तौर पर अपनाने को तैयार है तो हमारी समझ में नहीं आता कि हम सामाजिक सुधारों को विद्रोहात्मक रूप में लेकर क्यों चलें। मतान्धतापूर्ण आत्मघातक विरोध कभी-कभी सफल हो जाया करता है किन्तु राजनीतिक तथा सामाजिक मामलों में मतान्धता आत्मघातक ही है।”

तिलक ने विधवा-विवाह का समर्थन किया और मद्यपान का घोर विरोध । उस समय महाराष्ट्र में सरकार की आबकारी नीति के कारण लोगों में मद्यपान की आदत बहुत बढ़ गई थी। विदेशी प्रभुत्व का शिकंजा इतना कठोर था कि कोई इस बुराई को दूर करने के लिए जन-आन्दोलन छेड़ने की बात भी नहीं सोचता था। लेकिन तिलक ने सरकार की आबकारी नीति की कटु आलोचना की और कहा कि “सरकार से ऐसी आशा करना मूर्खता होगी कि वह मद्यपान बन्द कर देगी। यह तो युवकों को चाहिए कि वे मद्यपान के विरुद्ध अपने विचार प्रकट कर दें।” तिलक ने जनता को निमन्त्रण दिया कि मदिरा की दूकानों पर धरना देना चाहिए । “धरना देने का तरीका सीधा है और उससे कानून की अवज्ञा भी नहीं होती।” तिलक की प्रेरणा पर कितने ही युवक धरना देने के लिए तैयार हो गये और इस प्रकार वालण्टियरों का एक दल संगठित हो गया जिसने पूना के प्रमुख मदिरालयों पर धरना देना आरम्भ किया। “तिलक ने जगह-जगह सार्वजनिक सभाओं में भाषण किये जिनका निचोड़ यही था कि हिन्दू धर्म और इस्लाम में मदिरा पीना वर्जित है।” तिलक ने कहा कि “अंग्रेजों के कारण भारतीयों का अधःपतन हो रहा है। अंग्रेजों ने उन्हें मदिरा पीना सिखा दिया है और वे प्रतिवर्ष 10 करोड़ रुपये भारत से इस मद में बटोर ले जाते हैं। लोगों को चाहिए कि वे अपने गाँवों में मदिरा की दूकानें न रहने दें और यदि मदिरा की दूकानें हटाने के कारण उन्हें सूली पर भी चढ़ा दिया जाए तो कोई परवाह की बात नहीं।” जब नशाबन्दी आन्दोलन जोर पकड़ने लगा तो सरकार दमन पर उतर आई। प्रतिक्रियास्वरूप तिलकपंथी और सुधारवादी संयुक्त होकर काम करने लगे। एक शिष्टमण्डल सरकार के पास भेजा गया। तिलक ने आन्दोलन स्थगित कर दिया ताकि वातावरण में सुधार हो सके। उनका विचार था कि यदि वार्ता सफल न हुई तो आन्दोलन पुनः छेड़ दिया जाएगा। लेकिन सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और उनकी योजना धूल में मिल गई।

तिलक की समाज-सुधार पद्धति

लोकमान्य तिलक को तत्कालीन समाज-सुधारकों का रुख पसन्द न था। उन्हें इस बात से बड़ा कष्ट था कि एक तो ये समाज-सुधारक पाश्चात्य विचारों को हिन्दू समाज में ठूँसना चाहते थे और दूसरे हिन्दू धर्म तथा समाज के प्रति इनमें बहुत कुछ घृणा और उपेक्षा के भाव थे। तिलक परिवर्तन के तो पक्षपाती थे, लेकिन उन आधारों को नहीं मानना चाहते थे जो ठीक और सुदृढ़ नहीं थे। सामाजिक परिवर्तन और सुधारों को स्वीकार करते हुए भी वे इस पक्ष में नहीं थे कि भारतीयों का पश्चिमीकरण कर दिया जाए। पर साथ ही तिलक उन लोगों के भी विरोधी थे जो समाज-सुधार का आधार केवल वेद-पुराणों में ढूँढ़ते थे और तिलक को उनके पाखण्ड का भण्डाफोड़ करने में कोई कठिनाई नहीं हुई।

तिलक हिन्दू समाज की जड़ को खोखला करने वाली बुराइयों से परिचित थे और उन्हें मिटाना चाहते थे। पर समाज-सुधार करने की पद्धति के प्रश्न पर उनका तत्कालीन सुधारवादियों से मतभेद था। रानाडे, गोखले, अगारकर, मालाबारी जैसे पश्चिम प्रभावित समाज-सुधारकों से उनके विचार मेल नहीं खाते थे। तिलक भारतीय समाज की प्रगति भारतीय आदर्शों के अनुरूप ही चाहते थे और हिन्दू सामाजिक प्रणाली के महान् मूल्यों में उनकी गहन आस्था थी। वे नहीं चाहते थे कि पश्चिम से उधार लिए हुए मूल्यों के आधार पर भारतीय सामाजिक जीवन का पुनर्निर्माण किया जाय और भारतीयों के आदर्श प्राचीन रूपों तथा संस्थाओं का तिरस्कार कर दिया जाए। तिलक के लिए यह स्थिति कष्टकर थी कि भारतीय अपने महान् आध्यात्मिक सामाजिक आदर्शों की उपेक्षा करके पश्चिम के अपरिष्कृत भौतिकवाद का अन्धानुकरण करें और इस प्रकार भारत की महानता को धूमिल कर दें। तिलक सामाजिक प्रतिक्रियाबादी न होकर उदार परम्परावादी (Liberal Conservative) थे। वे समाज सुधार चाहते थे, लेकिन प्राचीन संस्कृति के साथ सम्बन्ध विच्छेद करके नहीं। तिलक का विश्वास था कि समाज के बाह्य रूपों और व्यवहारों में परिवर्तन मात्र से कोई वास्तविक सामाजिक सुधार नहीं हो सकते । सुधार तो जनगण के भीतर से विकसित होने चाहिए। इसके अतिरिक्त, उस विदेशी संस्कृति को अपनाना जो कि भारतीय संस्कृति से ऊँची नहीं है, किसी भी रूप में देश और समाज के लिए हितकर नहीं होगा।

जैसा कि कहा जा चुका है, तिलक इस पद्धति के विरोधी थे कि राज्य द्वारा कानून बना कर सामाजिक सुधार लाया जाए। तिलक सामाजिक सुधारों के स्वाभाविक विकास के हामी थे और यह नहीं चाहते थे कि सामाजिक परिवर्तनों का निर्देश पश्चिम से मिले।

बाल गंगाधर तिलक का सामाजिक दर्शन

लोकमान्य तिलक के समाज सुधार सम्बन्धी विचारों और पद्धति से हमें उनके सामाजिक दर्शन का स्वरूप भली भाँति स्पष्ट हो जाता है। तिलक के घोर विरोधी वेलेन्टाइन शिरोल ने निराधार युक्तियाँ जुटा जुटा कर व्यर्थ ही यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि उनका कोई सामाजिक दर्शन नहीं था। शिरोल ने लिखा है कि तिलक पुरातनवादी और रूढ़िवादी थे जिनमें धार्मिक और सामाजिक सुधारों के प्रति कोई रुचि नहीं थी। लेकिन तिलक के समाज-सुधार सम्बन्धी प्रयत्न और विचारों से शिरोल का आरोप सर्वथा असत्य सिद्ध होता है। सही बात तो यह है कि तिलक एक उदार और आदर्श सामाजिक दर्शन के प्रणेता थे। हाँ, “तिलक पाश्चात्य आधार पर सामाजिक परिवर्तन लाने के विरुद्ध थे।” फिर यह भी था कि तिलक ने सामाजिक सुधारों से पहले राजनीतिक सुधारों को प्राथमिकता दी । “वे राष्ट्रवादी थे इसलिए उन्होंने राजनीतिक मुक्ति को प्राथमिकता दी। उनका विचार था कि नौकरशाही के विरुद्ध सफल संघर्ष चलाने के लिए आवश्यक है कि जनता की धार्मिक तथा सामाजिक एकता अक्षुण्य रखी जाय। अपनी सूक्ष्म दृष्टि से उन्होंने देख लिया था कि समाज-सुधार से सामाजिक विघटन की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है और इस बात को उस समय वे दुर्भाग्यपूर्ण समझते थे। उनका कहना था कि केवल सामाजिक प्रगति राजनीतिक मुक्ति की कसौटी नहीं है।” यदि शिरोल जैसे व्यक्तियों को तिलक से चिढ़ थी तो इसलिए कि तिलक विदेशी हुकूमत का बोरिया-बिस्तर बाँध देना चाहते थे और इस बात के विरुद्ध थे कि विदेशी नौकरशाही सरकार भारत के सामाजिक और धार्मिक सुधार के क्षेत्र में हस्तक्षेप करे। तिलक का ‘अपराध’ यही था कि उन्होंने समाज के प्राचीन आदर्शों और मूल्यों का पक्ष लिया तथा भारतीयों को पश्चिम का अन्धा भक्त न बनने की चेतावनी दी।

तिलक ने जो भारतीय दर्शन प्रस्तुत किया उसके महत्वपूर्ण तथ्य स्पष्टतः ये थे –

  1. तिलक सामाजिक परिवर्तन के विरोधी नहीं थे वरन् उस सामाजिक परिवर्तन का विरोध करते थे जो पश्चिम के अन्धानुकरण से होता है,
  2. तिलक ने राजनीतिक जागरण और राजनीतिक सुधारों को सामाजिक सुधारों की तुलना में प्राथमिकता दी, क्योंकि सामाजिक और राजनीतिक दो मोर्चों पर शक्ति को विभाजित करना उन परिस्थितियों में उपयुक्त नहीं था,
  3. तिलक का विचार था कि सामाजिक सुधार सहज और स्वाभाविक ढंग से होने चाहिए ताकि समाज में असन्तोष न फैले और सामाजिक संगठन में बाधा न पड़े।
  4. तिलक नहीं चाहते थे कि भारत के सामाजिक-धार्मिक क्षेत्र पर भी विदेशी नौकरशाही का नियन्त्रण हो जाए।

स्पष्ट है कि तिलक का एक निश्चित सामाजिक दर्शन था जो ठोस और यथार्थवादी भूमि पर आधारित था। वे उदार परम्परावादी थे। उनमें रूढ़िवादिता यदि देखने को मिलती थी तो इसलिए कि उस समय का समाज वैसा ही था और उस समाज को अपने साथ लेकर विदेशी हुकूमत के खिलाफ शक्तिशाली मोर्चा बनाना आवश्यक था। तिलक एक प्रजातन्त्रवादी नेता थे जो जनमत का निरादर करने में विश्वास नहीं करते थे। बदलते हुए समय के अनुसार रूढ़िवादिता में भारतीय आधारों का ही आवश्यक परिवर्तन कर लेना उन्हें अभीष्ट था । तिलक के सामाजिक दर्शन का निचोड यही है कि वे सामाजिक परिवर्तन क्रमिक और सावयवी रूप में पसन्द करते थे तथा पश्चिमीकरण की प्रवृत्ति के विरोधी थे।

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