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बाल गंगाधर तिलक के शैक्षिक विचार और कार्य

बाल गंगाधर तिलक के शैक्षिक विचार

बाल गंगाधर तिलक के शैक्षिक विचार और कार्य

(Educational Ideas and Works of Tilak)

लोकमान्य तिलक एक महान् शिक्षा-शास्त्री थे। वे और आगरकर महाराष्ट्र में शिक्षा-आन्दोलन के प्रणेता थे। शिक्षा के सम्बन्ध में नरमदलीय नेताओं के विचारों से तिलक सन्तुष्ट न थे। नरम दल भारत में प्रचलित शिक्षा प्रणाली के लिए अंग्रेजों के प्रति कृतज्ञ था जबकि तिलक और उनके उग्रवादी सहयोगियों की शिकायत थी कि यह प्रणाली छात्रों को देश की सही स्थिति से अनभिज्ञ रखती है और उन्हें जीवन में किसी जीविका अथवा धन्धे के लिए तैयार नहीं करती। तिलक वास्तविक शिक्षा उसी को मानते थे जो व्यक्ति को जीविकोपार्जन के योग्य बनाए, उसमें देश के सच्चे नागरिक गुणों का संचार करे और जो पूर्वजों का ज्ञान और अनुभव दे।

तिलक ने राष्ट्रीय शिक्षा की पुरजोर वकालत की। राष्ट्रीय शिक्षा राष्ट्रवादियों के कार्यक्रम का सदैव एक अंग रही थी और बंगाल के राष्ट्रवादियों के कार्यक्रम में इसे स्थान दिये जाने से बहुत पहले ही तिलक, आगरकर तथा चिपलूणकर के मन में इसकी एक रूपरेखा बन चुकी थी। इसी के फलस्वरूप पूना में न्यू इंगलिश स्कूल और फरग्यूसन कॉलेज की स्थापना हुई तथा दक्षिण शिक्षा समाज का निर्माण किया गया। तिलक काबकहना था कि राष्ट्रीय शिक्षा से ही राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण हो सकेगा, देशवासी मतमतान्तरों से ऊँचे उठकर संगठित हो सकेंगे और देश की शक्ति को बढ़ा सकेंगे। तिलक ने राष्ट्रीय शिक्षा का एक ऐसा पाठ्यक्रम प्रस्तुत किया जो व्यावहारिक था और देशवासियों के सर्वांगीण विकास में सहायक था। राष्ट्रीय शिक्षा के सन्दर्भ में तिलक के मुख्य विचार-बिन्दु इस प्रकार थे-

उद्योग एवं प्राविधिक शिक्षा शैक्षणिक पाठ्यक्रम का अंग बने

तिलक ने कहा कि स्कूलों और कॉलेजों में चलने वाली पाठ्य पुस्तकों से छात्रों को शिक्षा का मर्म ज्ञात नहीं हो पाता । उदाहरणार्थ, उन्हें इतना ज्ञान भी नहीं हो पाता कि आयात-निर्यात की शोषक नीति से विदेशी हुकूमत भारत को दरिद्र बना रही है और भारतीयों की जीविका छीन रही है। तिलक ने कहा कि जहाँ दूसरे देशों में औद्योगिक एवं प्राविधिक शिक्षा पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण अंग वहाँ भारतीय शिक्षण संस्थाएँ केवल घटिया अफसर पैदा करने के लिए बनी है। तिलक ने बारम्बार इस बात का आग्रह किया कि शिक्षा-पाठ्यक्रम में औद्योगिक एवं प्राविधिक शिक्षा को स्थान दिया जाना चाहिए।

धार्मिक शिक्षा पर बल

तिलक की राष्ट्रीय शिक्षा का दूसरा महत्वपूर्ण अंग था धार्मिक शिक्षा। पूरे स्वातन्त्र्य आन्दोलन में हमें क्रान्तिकारी और वैधानिक संघर्ष करने वाले, दोनों ही वर्ग प्राचीन ग्रन्थों तथा प्राचीन वीरों से प्रेरणा पाते दिखाई देते हैं। इनमें सबसे प्रमुख लोगों में स्वयं तिलक थे जो धार्मिक शिक्षा पर बहुत जोर देते थे और कहा करते थे किसी को अपने धर्म पर अभियान कैसे हो सकता है, यदि वह उससे अनभिज्ञ है ? धार्मिक शिक्षा का अभाव ही इस बात का एकमात्र कारण है कि देशभर में मिशनरियों (ईसाई पादरियों) का प्रभाव बढ़ गया है।” तिलक का उन लोगों से मतभेद था जो कहते थे कि धर्म से झगड़े बढ़ते हैं। तिलक की मान्यता थी कि धार्मिक शिक्षा झगडों और पारस्परिक कलह को दूर करने की कुंजी है। यदि हिन्दुओं को सच्चे हिन्दू धर्म और मुसलमानों को सच्चे इस्लाम की शिक्षा दी जाए तो दोनों में एक-दूसरे के धर्म के लिए सम्मान और सहिष्णुता का प्रसार होगा। तिलक का कहना था कि चरित्र-निर्माण के लिए धर्मनिरपेक्ष (Secular) शिक्षा पर्याप्त नहीं है, उसके लिए धार्मिक शिक्षा आवश्यक है। तिलक को इस बात से बड़ी ग्लानि थी कि भारतीयों में अनुशासन और अतीत के प्रति सम्मान के भाव लुप्त होते जा रहे थे और वे जीवन के भौतिकवादी मूल्यों तथा पाश्चात्य जीवन पद्धति के पीछे दौड़ रहे थे। इसके लिए दोष धर्मनिरपेक्ष शिक्षा को था ।

तिलक का अभिमत था कि भारतीय शिक्षण संस्थाओं में भी यदि स्वतन्त्र देशों जैसी शिक्षा प्रणाली चालू की जाए तो इससे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिल जाएगी। यद्यपि कुछ गैरसरकारी शिक्षण संस्थाएँ तिलक के विचारों के अनुरूप शिक्षा-क्रम रखने को तैयार थीं, लेकिन उन्हें भय था कि ऐसा करने से उन्हें मिलने वाली सरकारी सहायता बन्दी हो जाएगी। अतः तिलक के निमन्त्रण दिया-“हमें अपने स्कूल स्वयं स्थापित करने चाहिएँ और अपना काम नि:स्वार्थ भाव से शुरू करना चाहिए।” तिलक चाहते थे कि भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस इस काम को हाथ में ले, पर काँग्रेस कोई खतरा उठाने को तैयार नहीं थी।

तिलक ने मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने की आवश्यकता पर बल दिया। वे कहते थे “आज जो व्यक्ति अच्छी अंग्रेजी लिख बोल लेता है वही शिक्षित माना जाता है किन्तु किसी भाषा का ज्ञान हो जाना ही सच्ची शिक्षा नहीं है। किसी विदेशी भाषा को सीखने की ऐसी बाध्यता भारत के अतिरिक्त किसी अन्य देश में नहीं है। मातृभाषा के माध्यम से जो शिक्षा 7-8 वर्ष में प्राप्त की जा सकती है उसमें अब 20-25 वर्ष लग जाते हैं। अंग्रेजी तो हमें सीखनी ही है, पर उसकी शिक्षा अनिवार्य करने का कोई कारण नजर नहीं आता। मुस्लिम राज में हमें फारसी सीखनी होती थी पर उसे सीखने के लिए बाध्यता नहीं थी।”

एक लिपि, एक राष्ट्रभाषा का समर्थन

तिलक का यह पक्का विश्वास था कि राष्ट्रभाषा राष्ट्रीयता की एक मूल और अनिवार्य शर्त है। अतः उन्होंने इस बात की पैरवी की कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाया जाय। उनके शिष्य सावरकर ने, जो इसी भाषा सम्बन्धी नीति के समर्थक थे, यहाँ तक कि लन्दन के एक सम्मेलन में उन्होंने इस बात पर आग्रह किया कि स्वराज्य प्रस्ताव को अंग्रेजी में नहीं, भारत की सार्वजनिक भाषा हिन्दी में लिखा जाय।

तिलक राष्ट्रीय एकता और भाषा-भेद से विभाजित देश की एकता के लिए एक राष्ट्रभाषा को महत्वपूर्ण तत्व मानते थे । वास्तव में तिलक पहले काँग्रेसी नेता थे जिन्होंने देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का सुझाव दिया। दिसम्बर, 1905 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा में अपने एक भाषण में उन्होंने कहा कि देवनागरी न केवल सभी आर्य भाषाओं की लिपि बने बल्कि राष्ट्रभाषा की भी लिपि बने। तिलक दरअसल, अपने समय के उन गिने चुने लोगों में से थे उन्होंने देश की भाषा समस्या पर विचार किया। एक चतुर राजनीतिज्ञ की भाँति उन्होंने देख लिया कि मार्ग में क्या-क्या बाधाएँ हैं और उनका हल भी ढूंढ़ निकाला । कालान्तर में ये बाधाएँ आ उपस्थित हुई और विधान-निर्मात्री परिषद् ने उन्हें उसी उपाय से दूर किया जो तिलक ने सुझाया था। तिलक जानते थे कि क्षेत्रीय भाषाओं के समर्थक अपनी-अपनी लिपि पर अड़ेंगे और उन्होंने देशवासियों से समान लिपि की राष्ट्रीय आवश्यकता के समक्ष क्षेत्रीय हितों को दबा देने की अपील की। अभाग्यवश, राजनीति में और जेल में फंसे रहने के कारण तिलक को एक लिपि और राष्ट्रभाषा का आन्दोलन चलाने के लिए समय नहीं मिला, पर उन्होंने सूत्र रूप में एक विचार प्रस्तुत कर दिया जिसका विकास उनके बाद आने वालों ने किया।

तिलक ने रोमन लिपि अपनाने का विरोध किया। उन्होंने कहा-“यह सुझाव ही हास्यास्पद लगता है। रोमन लिपि और वर्ग बड़े दूषित हैं और हमारी भाषा में प्रयुक्त ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए सर्वथा अनुपयुक्त हैं। अंग्रेज वैयाकरणों ने भी इस लिपि को दूषित बताया है। यूरोपीय संस्कृतज्ञों ने घोषित किया है कि यूरोप की रोमन लिपि से अधिक परिपूर्ण देवनागरी लिपि है।”

अंग्रेजी की महत्ता स्वीकार करना

राष्ट्रीय शिक्षा के पक्ष-पोषक होते हुए भी तिलक अंग्रेजी के महत्व को अस्वीकार नहीं करते थे। उनका कहना था कि मातृभाषा को प्रधानता और अंग्रेजी को गौण स्थान दिया जाना चाहिए। उनका तर्क था कि विदेशी भाषा को ढूंस-ठूस कर जबर्दस्ती शिक्षा देने से छात्र उसे अपने दिमाग में पचा नहीं सकते, अन्यथा अंग्रेजी शिक्षा महत्वपूर्ण है क्योंकि यह प्रगति और जागृति में प्रमुख रूप से सहयोगी है। अंग्रेजी सम्बन्धी तिलक के विचारों से स्पष्ट ध्वनित होता है कि वे शिक्षा के क्षेत्र में एक यथार्थवादी विचारक थे।

शिक्षा सम्बन्धी अन्य विचार

तिलक यह नहीं चाहते थे कि भारत की तत्कालीन परिस्थितियों में छात्र स्वाधीनता आन्दोलन से अलग रहें। उनकी माँग थी कि छात्रों को विदेशी आन्दोलन में भाग लेना चाहिए, उनके दिमागों को देश सेवा में लगने के लिए छूट मिलनी चाहिए। पर उनकी यह मनशा भी नहीं थी कि राजनीतिक आन्दोलन में भाग लेने के लिए छात्रों को उकसाया जाए और वे पढ़ना-लिखना छोड़कर राजनीति के क्षेत्र में कूद पड़ें। उनका कहना तो यह था कि छात्र अपना कुछ समय देकर जनगण से सम्पर्क स्थापित करें, जनगण को अपने अधिकारों का ज्ञान कराएँ, उनकी अयोग्यताओं को मिटाने में सहायक बनें और उनमें स्वदेशी तथा बहिष्कार के महत्व का प्रचार करें।

तिलक ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर न्यू इंगलिश स्कूल, दक्षिण शिक्षा समाज, फर्ग्युसन कॉलेज आदि शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना की। उनका उद्देश्य इन संस्थाओं के माध्यम से न केवल शिक्षा का प्रसार वरन् जनता में पुनर्जागरण और राष्ट्रवादी भावना की अभिवृद्धि था। तिलक शिक्षा को जन-जागरण का सर्वोत्तम साधन मानते थे। राष्ट्रीय शिक्षा के अध्यापकों के लिए उनका सन्देश था कि वे शिक्षा के माध्यम से भारत के प्राचीन आदर्शों को पुनर्जीवित करें तथा उपनिषद्-कालीन गुरुओं की प्रतिभा और समर्पण को अपना आदर्श मानकर चलें। शिक्षा प्रचार के लिए सरकारी सहायता पर तिलक को कोई आपत्ति नहीं थी, पर वे इस सहायता के बदले किसी भी प्रकार के सरकारी नियन्त्रण के विरोधी थे।

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