(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});

अरविंद घोष के राजनीतिक विचार

अरविन्द घोष का राजनीतिक चिन्तन

अरविन्द का राजनीतिक चिन्तन

(AUROBINDO’S POLITICAL THOUGHTS)

“जबकि अन्य लोग स्वदेश को एक जड़ पदार्थ, कुछ मैदान, खेत, वन, पर्वत, नदी मात्र ही समझते हैं, मैं स्वदेश को माँ मानता हूँ, माँ के रूप में उसकी भक्ति करता हूँ, पूजा करता हूँ। माँ की छाती पर बैठकर यदि कोई राक्षस रक्तपान करने के लिए उद्यत हो तो भला पुत्र क्या करता है ?-निश्चित होकर भोजन करने, स्त्री-पुत्र के साथ आमोद-प्रमोद करने बैठ जाता है या माँ का उद्धार करने के लिए दौड़ पड़ता है ?”

अरविंद

अरविन्द के राजनीतिक विचारों का अध्ययन हमें उनके जीवन की उन तीन मुख्य अवस्थाओं को ध्यान में रखकर करना होगा जो उन्होंने क्रमश: बड़ौदा में, बंगाल के राष्ट्रवादी आन्दोलन में, और पाँडिचेरी में बिताई। बड़ौदा के आवास काल में अरविन्द ने पर्दे के पीछे रहकर काम किया और गुमनाम लेखों के प्रकाशन द्वारा, काँग्रेस तथा ब्रिटिश शासन की रचनात्मक आलोचना करके देशवासियों में जागृति फैलाते रहे और साथ ही गुप्त संगठन द्वारा सशस्त्र क्रान्ति के लिए आधार भी तैयार करते रहे। जीवन की दूसरी अवस्था में अरविन्द राष्ट्रवादी आन्दोलन में खुले रूप में कूद पड़े और आभेनव राष्ट्रवाद के संदेशवाहक बन गये। जीवन की तीसरी अवस्था में अर्थात् 1910 के बाद अरविन्द सक्रिय राजनीतिक जीवन का परित्याग करके पाँडिचेरी चले गये। वहाँ अपने आध्यात्मिक चिन्तन तथा योगाभ्यास द्वारा उन्होंने भारतीय स्वाधीनता के लिए और भारत के जागरण के लिए एक आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण किया, एक अति-मानस के अवतरण की तैयारी की।

बड़ौदा आवास-काल में अरविन्द के राजनीतिक सिद्धान्त और कार्य-कलाप

अरविन्द 1893 में इंग्लैण्ड से भारत लौटे और नौकरी करने बड़ौदा पहुँचे । वे 1907 तक लगातार 13 वर्ष, वहाँ नौकरी करते रहे, हालाँकि बाद के वर्षों में राष्ट्रीय गतिविधियों में भाग लेने के लिए वे लम्बी-लम्बी छुट्टियाँ लेते रहे। अंत में राष्ट्रीय घटनाओं के दबाव ने उनको त्याग-पत्र देने के लिए बाध्य कर दिया और वे बंगाल की सक्रिय राजनीति में कूद पड़े। सक्रिय राजनीति में उनका प्रवेश बंग-भंग के समय हुआ। 1893 से लेकर 1905 तक की कालावधि को हम अरविन्द के संक्षिप्त, किन्तु आश्चर्यजनक राजनीतिक जीवन की तैयारी की अवधि समझ सकते हैं।

अरविन्द ने बड़ौदा आवास काल के दौरान लेखों से प्रबुद्ध पाठक वर्ग में एक सनसनी फैला दी। अपनी पहली राजनीतिक रचनाएँ उन्होंने ‘न्यू फार ओल्ड’ (पुराने दीपों के बदले नए दीप) शीर्षक से 1893 में लिखनी शुरू की। ये लेख उन्होंने ‘इन्दु प्रकाश’ नामक आँग्ल-मराठी समाचार पत्र में लिखे । इस लेखमाला में अरविन्द ने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की नीतियों पर सीधा, तीक्ष्ण और खुलकर प्रहार किया। उन्होंने सदियों की जड़ता को फैलाकर अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्र करने के लिए देशवासियों का आह्वान किया। सरकारी नौकरी में होने के कारण उनके लेख अज्ञात नाम से ही प्रकाशित हुए। ‘इन्दु प्रकाश’ के उनके लेखों के अध्ययन तथा अन्य साक्षियों से उनके राजनीतिक विचारों के तीन रूप प्रत्यक्ष होते हैं-काँग्रेस के आलोचक का रूप, अंग्रेजों के आलोचक का रूप और उनके अपने राजनीतिक कार्यक्रम का स्पष्ट रूप ।

अरविन्द काँग्रेस के आलोचक के रूप में-

1893 में राजनीतिक विषयों पर अपनी लेखनी उठाने से लेकर 1910 में सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने तक अरविन्द काँग्रेस के कटु आलोचक रहे। अपनी प्रारम्भिक रचनाओं में काँग्रेस पर उन्होंने कम से कम चार सुस्पष्ट आरोप लगाए-

  1. अरविन्द को लगा कि काँग्रेस ने राष्ट्रीय स्वाधीनता के लक्ष्य की कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं बनाई। वह तुच्छ तथा सारहीन बातों में अपना समय नष्ट करती है और इसीलिए अपनी स्थापना के बाद वह केवल कुछ नगण्य प्रशासनिक सुधार ही करवा सकी है। अरविन्द ने लिखा-“मुझे काँग्रेस के बारे में यह कहना है कि उसके लक्ष्य प्रान्त हैं, उनकी सिद्धि के लिए जिस भावना से वह कार्य करती है निष्कपट और हार्दिक नहीं हैं, उसने जो साधन अपनाए हैं वे उपयुक्त साधन नहीं हैं, जिन नेताओं में उसका विश्वास है वे सुयोग्य नेता नहीं हैं। सार यह है कि हम इस समय यदि ‘अन्धे नैन नीयमाना यथान्धा’ (बिल्कुल अन्धे) नहीं हैं तो भी ‘काणेनैव नीयमान’ (एक आँख वाले नेतृत्व में) तो हैं ही।
  2. अरविन्द ने काँग्रेस के उस सिद्धान्त की भी कटु आलोचना की जिसके अनुसार राजनीतिक विकास शाश्वत और सार्वभौम नियम है अर्थात् प्रगति शनैः शनैः होती है और इसलिए इस नियम का अनुसरण भारत में भी अवश्य करना होगा। अरविन्द ने ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर सिद्ध किया कि फ्राँस, आयरलैंड और अनेक दूसरे देशों में ऐसा नहीं हुआ है। सदियों से पीड़ित सर्वहारा वर्ग ने केवल 5 वर्ष की अवधि में तेरह सौ वर्ष के अत्याचारी तन्त्र को उखाड़ फेंका। (फ्राँस में)।
  3. अरविन्द ने आरोप लगाया कि काँग्रेस ने अपनी ही और छोटी-छोटी माँगों को मनवाने के लिए अंग्रेजों के प्रति स्वाभिमानपूर्ण व्यवहार नहीं किया है। राष्ट्र की अन्तर्निहित शक्ति पर विश्वास करने के बजाय उसने चापलूसी करके विदेशी शासकों का प्रेम पाना चाहा है। काँग्रेस सीधी सच्ची बात कहने में हिचकिचाती है और सदैव भयभीत रहती है कि शासक रुष्ट न हो जाएँ।
  4. अरविन्द का सबसे बड़ा आरोप यह था कि काँग्रेस ने भारत के करोड़ों सर्वहारा वर्ग को अपने साथ नहीं लिया है वरन् वह एक अत्यन्त सीमित मध्य वर्गीय संगठन बनी हुई है। काँग्रेस के व्यापक और निःस्वार्थ देश-प्रेम के दावे खोखले हैं। अरविन्द ने काँग्रेसी नेताओं की भारी भर्त्सना की और देश के श्रमिक वर्ग को शामिल कर राष्ट्रीय आन्दोलन को एक सार्वजनिक आन्दोलन बना डालने की आवश्यकता को समझा | अरविन्द की दूरदर्शिता का सबल प्रमाण यही है कि कुछ वर्षों बाद उग्रवादी दल ने जन-साधारण में स्वतन्त्रता की भावना जगाई और पहली बार राष्ट्रीय आन्दोलन को सार्वजनिक रूप प्रदान किया।

अरविन्द अंग्रेजों के आलोचक के रूप में

अरविन्द के पहले विदेशी शासकों की जो भी आलोचना की गई वह परोक्ष, मूक और गूढ भाषा में होती थी ताकि अंग्रेजों का कोपभाजन न बनना पड़े। लेकिन अरविन्द ने अपने लेखों में अंग्रेजी सत्ताधारियों पर सीधा और प्रबल प्रहार किया। इसमें उनके दो उद्देश्य थे-एक उद्देश्य था देश में ब्रिटिश विरोधी भावना को उत्तेजित करना और दूसरा अंग्रेजों की श्रेष्ठता के विषय में फैली हुई इस भ्रान्त धारणा को निर्मूल करना कि अंग्रेज देव तुल्य हैं। अरविन्द ने ऐतिहासिक विश्लेषण द्वारा सिद्ध किया कि ब्रिटिश राजनीतिक व्यवस्था-पद्धति और प्रणाली पश्चिम की सर्वोत्तम देन नहीं मानी जा सकती। उन्होंने कहा कि भारत को पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने की जरूरत नहीं है लेकिन पश्चिम की विचार-पद्धतियों और व्यवस्था के सर्वोत्तम अंशों को ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। स्पष्ट है कि भारत के राष्ट्रीय विकास के विषय में अरविन्द किसी भी प्रकार रूढ़िवादी या संकुचित दृष्टि वाले व्यक्ति नहीं थे। अरविन्द ने भारत में अंग्रेजों की नीतियों और अंग्रेज अफसरों के व्यवहार पर भी करारा प्रहार किया। उनकी रचनाओं में यह स्पष्ट प्रतिध्वनित हुआ कि अंग्रेजों की नीतियों ने भारत की आत्मा को कुण्ठित कर रखा था, उसके विकास की अंत शक्तियों को कुचल दिया था और आर्थिक दृष्टि से सर्वनाश कर दिया था। ब्रिटिश अफसरों के सम्बन्ध में अरविन्द ने निर्मम व्यंग करते हुए लिखा-“वे अशिष्ट और धृष्ट हैं, उनका शासन दोषों भरपूर है, उनमें किसी भी प्रकार की उदात्त भावना नहीं है और उनका व्यवहार गुलामों पर हुक्म चलाने वाले जमींदारों जैसा है। पर इस सब में मुझे आपत्ति नहीं। मुझे तो केवल यह कहना है कि बहुत ही साधारण इन्सान हैं जिन्हें अद्वितीय परिस्थितियाँ हाथ लग गई हैं। वे सचमुच साधारण कोटि के मानव हैं-साधारण कोटि के मानव भी नहीं साधारण कोटि के अंग्रेज हैं, जो अंग्रेजी की शब्दावली में ‘फिलिस्तीन’ हैं। वे ऐसे मध्यवर्गीय इन्सान हैं जो फिलिस्तीन वर्ग की विशेषताओं-संकुचित हृदय और वणिक् से वृत्ति से परिपूर्ण हैं ।”

अरविन्द ने उन भारतीयों का भी मजाक उड़ाया जो अंग्रेजों के दास बन गये थे। उन्होंने उस ‘अंग्रेज बने बाबू’ पर कटु व्यंग किया जो ऊँचे पद पर बैठकर कुछ क्षणों के लिए समझता है कि मैं सम्पूर्ण पृथ्वी का शासक हूँ। उन्होंने कहा कि आज के भारत में, चाहे ऐसे बाबू का स्थान हो पर भावी भारत में उसका कोई स्थान नहीं।

अरविन्द का रचनात्मक राजनीतिक कार्यक्रम-

काँग्रेस और अंग्रेज शासकों की आलोचना अरविन्द का ध्वंसात्मक पक्ष था पर बड़ौदा निवास के प्रारम्भिक काल में ही उनके राजनीतिक सिद्धान्त का रचनात्मक पक्ष भी प्रकट हुआ। उनका रचनात्मक सैद्धान्तिक दृष्टिकोण संक्षेप में यह था “भारत का लक्ष्य ब्रिटिश आधिपत्य से पूर्ण मुक्ति पाने का होना चाहिए। इस मुक्ति के लिए उसे अपने विदेशी शासकों की कृपा और दया पर निर्भर नहीं करना चाहिए बल्कि अपनी आन्तरिक शक्ति और बल के असीम भण्डार का ही सहारा लेना चाहिए।” अरविन्द ने विश्वास प्रकट किया कि अन्त में हमारा उदात्त और स्वाभिमानी राष्ट्र विजयी होगा। लेकिन यह तभी होगा जब हम निहित स्वार्थ-लाभ की चिन्ता छोड़ देंगे, और महान् देश प्रेम को अपना लेंगे, जब हम अंग्रेजों के फेंके हुए टुकड़ों के लिए तरसना छोड़ देंगे।

अरविन्द 1898-99 में क्रान्ति की तैयारियाँ करने लगे। उन्होंने यतीन बनर्जी नामक एक बंगाली युवक को बड़ौदा बुलाया और उसे क्रान्तिकारी आन्दोलन में भाग लेने को कहा। उनकी इच्छा थी कि वह फौज में भर्ती होकर सैनिक प्रशिक्षण ले ताकि आगे चलकर क्रान्ति में सक्रिय भाग ले सके। उन्होंने सिफारिश कराकर यतीनों की फौज में भर्ती कराया और बाद में उसे क्रान्ति के लिए धन, व्यक्ति तथा अन्य साधनों का संग्रह करने के लिए कलकत्ता भेजा। वहाँ उसने पी० मित्तर, विभूतिभूषण भट्टाचार्य आदि का अरविन्द से परिचय करवाया। भविष्य में ये दोनों ही क्रान्ति आन्दोलन के नेता बने। कुछ ही अर्से में बंगाल में क्रान्तिकारी दल के प्रचार का कार्य शुरू हो गया। 1902 में अरविन्द और उनके साथियों ने बंगाल में क्रान्ति दल के पहले 6 केन्द्र स्थापित करने का निश्चय किया। इस प्रकार उन्होंने बंगाल में गुप्त क्रान्तिकारी संगठन का आरम्भ किया। ऐसा ही गुप्त मंडल महाराष्ट्र में ठाकुर रामसिह के नेतृत्व में बना। अरविन्द ने इस गुप्त मंडली के साथ सम्पर्क स्थापित किया और 1902-3 के लगभग वे स्वयं भी उसके सदस्य बने।

गुप्त कान्तिकारी प्रचार और संगठन का मुख्य उद्देश्य सशस्त्र विद्रोह की तैयारी करना था। इसके अतिरिक्त अरविन्द की राजनीतिक गतिविधियों का दूसरा पहलू जनता में प्रचार था। इसका उद्देश्य था सम्पूर्ण राष्ट्र के मानस को राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की भावना से भर देना, जिसे तत्कालीन भारतीय असम्भव मानते थे। लोगों में ये विचार घर किये हुए थे कि ब्रिटिश साम्राज्य अति शक्ति सम्पन्न है और भारत बड़ा कमजोर, निहत्था और अशक्त है। अरविन्द के राजनीतिक कार्यक्रम का तीसरा पहलू या वर्तमान असहयोग और सत्याग्रह के द्वारा विदेशी शासन का सार्वजनिक एवं संगठित विरोध करके उसे उखाड़ फेंकने के लिए जनता को संगठित करना।

अरविन्द ने अपना यह सुनिश्चित मत प्रकट किया कि यदि अंग्रेजों के आर्थिक बन्धन को तोड़ दिया जाए और उसके समानान्तर भारतीय व्यवसाय तथा उद्योग की उन्नति की जाए तो देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए चलने वाले क्रान्तिकारी प्रयलों में अवश्य सफलता मिलेगी। यही कारण था कि उन्होंने आरम्भ में ही अपनी क्रान्तिकारी कार्यवाही में ‘स्वदेशी’ या देशी उद्योग द्वारा आत्म-निर्भरता को स्थान दिया जो आगे चलकर राष्ट्रवादी दल के कार्यक्रम का एक मुखा अंग बन गया। अरविन्द ने मातृभूमि को विदेशी आधिपत्य से मुक्त करने के लिए जब और जैसी जरूरत पड़े, तब शक्ति के प्रयोग को कभी गलत नहीं माना । जिस समय भारत की स्वतन्त्रता के प्रश्न को लेकर कोई भी राजनीतिक दल खुलकर मैदान में नहीं आया था, उस समय भी वे गुप्त क्रान्तिकारी गतिविधियों में डूबे रहे।

सक्रिय राजनीति में अरविन्द का प्रवेश (1905-1910)

अरविन्द मातृभूमि के स्वतन्त्रता संग्राम में प्रवेश करने के सुअवसर की प्रतीक्षा में थे और 1905 में बंगाल के विभाजन ने यह अवसर प्रस्तुत कर दिया । कर्जन के इस कदम ने न केवल बंगाल में अपितु महाराष्ट्र, पंजाब आदि भारत के अन्य भागों में भी, जहाँ राष्ट्रीय चेतना अच्छी तरह विकसित हो चुकी थी, राष्ट्रीयता की प्रबल लहर दौड़ा दी। अरविन्द तेजी से राजनीतिक गतिविधियों में कूद पड़े। “उन्होंने पाँच वर्ष की अल्पावधि में ही भारत की राजनीतिक रूपरेखा को पूरी तरह बदल दिया और ऐसी घटनाओं की अटूट श्रृंखला चालू कर दी जिसके परिणामस्वरूप चार दशकों के भीतर-भीतर भारत एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में उभर आया।” 1906 में बड़ौदा कॉलेज से वर्ष भर की अवेतन छुट्टी लेकर अरविन्द कलकत्ता जा पहुँचे और बंगाल में राष्ट्रीय आन्दोलन का संगठन करने के काम में जुट गये। इस दौरान अरविन्द के राजनीतिक विचारों और सिद्धान्तों का दिग्दर्शन हम कतिपय प्रमुख बिन्दुओं के अन्तर्गत कर सकते हैं। अरविन्द ने इस दौरान और आगे चलकर राष्ट्रवाद का जो रूप प्रतिपादित किया उस पर हम पृथक् से प्रकाश डालेंगे।

भारत के पौरुष को जगाने का प्रयास-

अरविन्द ने उदारवादी नेताओं की याचना-पद्धति पर कठोर प्रहार किये। उन्होंने कहा कि याचना करना, अपील करना, प्रार्थना करना, आदि साधन न केवल अपर्याप्त हैं बल्कि भारतीयों के आत्म-सम्मान के विरुद्ध भी हैं। ये साधन भारत की आन्तरिक शक्ति को प्रस्फुटित करने में असमर्थ हैं। उन्होंने काँग्रेस को ऐसा मार्ग और पद्धति अपनाने की सलाह दी जिससे भारत की जनगण की निद्रा भंग हो जाए और वह सचेत तथा सक्रिय बन उठे। अरविन्द ने कहा कि हमारा वास्तविक शत्रु कोई बाह्य शक्ति नहीं है बल्कि हमारी अपनी आन्तरिक दुर्बलता, कायरता, स्वार्थपरता और अन्धी भावुकता है। जब तक हम अपने आन्तरिक शत्रु से अर्थात् अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं से मुक्ति नहीं पाएँगे तब तक हम अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकेंगे। हमें अनवरत चेष्टा करनी चाहिए कि भारतीयों का पुरुषत्व जाग पड़े और देशवासियों में दरिद्र तथा दलित साथियों के प्रति, प्रेम और सहानुभूति के भाव विकसित हो जाएँ।

श्रमजीवी वर्ग को महत्व-

अरविन्द ने जन-साधारण और श्रमजीवी वर्ग के महत्व को समझा। उन्होंने बताया कि राष्ट्र की शक्ति का सच्चा आधार श्रमजीवी वर्ग ही है। श्रमजीवी वर्ग आज चेतनाहीन और गतिहीन है, लेकिन उसमें महान् शक्ति की अन्तर्सम्भावनाएँ छिपी पड़ी हैं और जो कोई भी इस वर्ग को समझने तथा उसकी शक्ति को जाग्रत करने में सफल रहेगा और वही भविष्य का स्वामी होगा। अरविन्द बंगाल में एक विकट राजनीतिक शक्ति इसलिए बन सके कि उन्होंने श्रमजीवी वर्ग को जगाने का महान् कार्य किया। तिलक और गाँधी भी अपने राजनीतिक जीवन में मुख्यतः इसीलिए सफल हुर कि उन्होंने श्रमजीवी वर्ग और जन-साधारण का समर्थन प्राप्त किया।

अरविन्द ने श्रमजीवी के उद्बोधन और उत्थान की मार्क्सवादी व्याख्या नहीं दी बल्कि वे उसका आध्यात्मिक विकास करके उसे अन्य लोगों के समान स्तर पर लाने का प्रयत्न करते रहे। अरविन्द ने यह शिक्षा नहीं दी कि श्रमजीवी वर्ग पूँजीपतियों का गला काटकर या समाज के दूसरे वर्गों के हितों की कीमत पर ऊँचा उठे । उन्होंने श्रमजीवी वर्ग के उत्थान का नैतिक मार्ग ही ग्रहण किया और नैतिक तरीकों से ऊँचा लाने का उपदेश दिया।

निष्क्रिय प्रतिरोध-

अरविन्द ने उदारवादियों की प्रार्थना, याचिका तथा विरोध’ (Prayer, Petition & Protest) की साँविधानिक पद्धति को एकदम ठुकरा दिया। उनका आरोप था कि अब तक साँविधानिक पद्धति की गति बड़ी धीमी रही थी, इस पद्धति से देश के पूर्ण स्वाधीनता के लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव था, यह पद्धति उसी देश में सफल हो सकती थी जहाँ संविधान हो तथा शासक और शासित समान जाति के हों, एवं छोटी-मोटी रियायतों से सन्तोष करने से कोई लाभ नहीं, हमारा मूलभूत लक्ष्य तो एक भारत राष्ट्र का निर्माण करना है। इन्हीं व्यावहारिक कारणों से अरविन्द ने देशवासियों को काँग्रेस के नरम नेतृत्व को अस्वीकार करके निष्क्रिय प्रतिरोध की पद्धति का अनुसरण करने का आमन्त्रण दिया। स्वाधीनता के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए संगठित निष्क्रिय प्रतिरोध के साधन को सर्वोत्तम बताया। निष्क्रिय प्रतिरोध के सिद्धान्त का विश्लेषण करते हुए अरविन्द ने इसमें निम्नलिखित बातें सम्मिलित की-

  1. स्वदेशी का प्रसार और विदेशी माल का बहिष्कार,
  2. राष्ट्रीय शिक्षा का प्रसार, राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों की स्थापना,
  3. सरकारी अदालतों और न्यायालयों का बहिष्कार,
  4. जनता द्वारा सरकार से कोई सहयोग न करना, एवं
  5. सामाजिक बहिष्कार जिसका कि उन लोगों के प्रति दण्ड के रूप में प्रयोग किया जाए जो निष्क्रिय प्रतिरोध के विपरीत आचरण करते हुए सरकार को सहयोग दें।

अरविन्द का मत था कि ब्रिटिश आर्थिक शोषण का निराकरण तभी सम्भव था जबकि भारतीय ब्रिटिश माल का बहिष्कार करें और स्वदेशी को अपनाएँ। उनका कहना था कि तत्कालीन पाश्चात्य शिक्षा का उद्देश्य भारतीयों के स्वाभिमान और उनकी राष्ट्रीय संस्कृति को समाप्त करना तथा ब्रिटिश प्रशासकीय मशीनरी को चलाने लायक बाबू-वर्ग तैयार करना था। राजकीय संस्थाएँ भारतीयों को मानसिक दृष्टि से ब्रिटिश शासन का गुलाम बनाने में सहायक थीं। अतः ऐसी शिक्षा पद्धति का बहिष्कार करके राष्ट्रीय शिक्षा का प्रसार आवश्यक था। अरविन्द ने सरकारी अदालतों के बहिष्कार को इसलिए आवश्यक बताया कि ये ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठा उत्पन्न करने में सहयोगी थीं और भारतीयों में परावलम्बन की भावनाओं का विकास करती थीं। उल्लेखनीय है कि कर न चुकाना भी निष्क्रिय प्रतिरोध का एक अभिन्न अंग था किन्तु अरविन्द ने इस पर जोर नहीं दिया। उनका तर्क था कि ‘कर न दो’ आन्दोलन के लिए आवश्यक तैयारी जनता में नहीं थी। कर न देने का अर्थ था कानून की सीधी अवज्ञा, अतः सरकार ऐसे आन्दोलन को निर्ममतापूर्वक कुचलकर जनता के जोश को ठंडा कर सकती थी। इसके विपरीत सरकारी स्कूलों के बहिष्कार, न्यायालयों के बहिष्कार, स्वदेशी के प्रयोग आदि से कानून की कोई अवज्ञा नहीं होती थी। यह भी ध्यान देने योग्य है कि अरविन्द गाँधी के समान अहिंसावादी नहीं थे, अत: उन्होंने निष्क्रिय प्रतिरोध आन्दोलन को हर सूरत में अहिंसावादी बनाने की चेशा नहीं की। यदि सरकार हिंसा और दमन पर उतर आए तो निष्क्रिय प्रतिरोध का कर्तव्य है कि वह सरकार का सक्रिय विरोध करे और यहाँ तक कि हिंसा का जवाब हिंसा से देवे। यदि सरकार हमारी सभाओं को भंग करे, हमारे सिर तोड़े तो हमारी आत्म-रक्षा के अधिकार की माँग है कि हम न केवल अपने सिरों की रक्षा करें बल्कि हमारे सिरों को तोड़ने वालों के भी सिर तोड़ दें।

अरविन्द ने निष्क्रिय प्रतिरोध और आक्रामक प्रतिरोध के अन्तर को भी स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि शासन का संगठित प्रतिरोध या तो निष्क्रिय हो सकता है या आक्रामक। दोनों के बीच मुख्य अन्तर यह है कि जहाँ आक्रामक प्रतिरोध ऐसे कार्य करता है जिनसे सरकार को सकारात्मक रूप में हानि पहुँचती है, वहाँ निष्क्रिय ऐसे काम करने का त्याग करता है जिनसे देश का प्रशासन चलने में सहायता मिले। निष्क्रिय प्रतिरोध भारत जैसे देशों के लिए सर्वाधिक अनुकूल है जहाँ कि सरकार अपने कार्य कलापों के लिए शासितों के स्वेच्छापूर्ण सहयोग पर निर्भर करती है। अरविन्द ने निष्कर्ष निकाला कि “यदि सहायता और मौन स्वीकृति क्रमशः सारे राष्ट्र में वापस ले ली जाए तो भारत में अंग्रेज सत्ता का कायम रहना बहुत कठिन हो जाएगा। यह एक ऐसा हथियार है जो भारत में ब्रिटिश शक्ति की जड़ें काट सकता है और अगर अपेक्षित कुशलता और धैर्य से इसका उपयोग किया जाय तो यह भारत में अंग्रेजी राज्य को समाप्त कर सकता है।”

अरविन्द की राजनीतिक कार्य-विधि

अरविन्द राजनीतिक इतिहास के बिरले नेताओं में से एक थे-एक गम्भीर सिद्धान्तवादी भी और एक चतुर कुशाग्र बुद्धि वाले राजनीतिक रणनीतिज्ञ भी। अरविन्द की राजनीतिक क्रियाविधि के सभी महत्वपूर्ण पहलुओं का वर्णन पूर्ववर्ती पृष्ठों में किया जा चुका है, तथापि अध्ययन सुविधा की दृष्टि से एक ही स्थान पर हम उन्हें संकेत रूप में निम्नानुसार प्रस्तुत कर सकते हैं-

  1. काँग्रेस की ‘प्रार्थना’, याचिका तथा विरोध’ की सांविधानिक पद्धति पर प्रहार।
  2. ब्रिटिश शासन-व्यवस्था और ब्रिटिश शासकों की कटु आलोचना और उनकी कुटिल नीति का पर्दाफाश।
  3. भारत के पौरुष को जाग्रत करना और देशवासियों में आत्म-चेतना, साहस और शक्ति का संचार करना।
  4. बड़ौदा आवास-काल में गुप्त क्रान्तिकारी गतिविधियों को प्रोत्साहन देना और सक्रिय राजनीतिक जीवक में भी आवश्यकता पड़ने पर हिंसा का जवाब हिंसा से देने की नीति पर दृढ़ रहना।
  5. निष्क्रिय प्रतिरोध की पद्धति पर चलने को देशवासियों को तैयार करना जिसके अन्तर्गत इन बातों को सम्मिलित किया जाना-स्वदेशी का प्रसार और विदेशी माल का बहिष्कार, शिक्षा, सम्बन्धी बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा, न्यायालयों का बहिष्कार और राष्ट्रीय मध्यस्थ न्यायालयों की स्थापना, जनता द्वारा सरकार से पूर्ण सहयोग न करना एवं सामाजिक बहिष्कार।
  6. पूर्ण और अखण्ड स्वाधीनता को एकमात्र लक्ष्य मानकर अपनी समस्त शक्तियों को उस लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में केन्द्रित कर देना।
  7. भारतीय राष्ट्रवाद को आध्यात्मिक धरातल पर प्रतिष्ठित करना ताकि वह कभी भी न बुझने वाली ज्योति से जगमगाता रहे।

अरविन्द की राजनीतिक पद्धति में पाण्डिचेरी के आवास काल में एक और मोड़ आया। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे की भारत की स्वाधीनता और एकता प्राप्ति के अन्य साधनों का भार उन्हें अपने साथियों 1 छोड़ देना चाहिए और खुद को आत्म-शक्ति तथा योग साधनों द्वारा इस लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक बनना चाहिए। उन्होंने अनुभव किया कि जब तक भारत की प्राचीन आध्यात्मिकता का पुनर्जागरण नहीं हो जाएगा तब तक उसका सच्चे अर्थों में पुनरुत्थान नहीं हो सकेगा।

स्पष्ट है कि मोटे तौर पर अरविन्द की पद्धति ने तीन अवस्थाओं में तीन स्वरूप ग्रहण किये, यद्यपि ये स्वरूप परस्पर आवद्ध रहे, विलग नहीं । प्रथम अवस्था में उन्होंने स्वयं को गुप्त क्रान्तिकारी प्रचार में केन्द्रित किया, द्वितीय अवस्था में वे देश की पूर्ण स्वाधीनता के लक्ष्य के पक्ष में कार्यरत रहे और उन्होंने निष्क्रिय प्रतिरोध पर बल दिया, तथा तीसरी अन्तिम अवस्था में उन्होंने आध्यात्मिक शक्ति और योग साधन के बल पर भारत के अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता दी।

व्यक्ति और राज्य के सम्बन्ध तथा राज्य के कार्यों पर विचार

अरविन्द ने कहा कि व्यक्ति केवल एक सामाजिक इकाई ही नहीं है वरन् अपने आप में एक आत्मा और प्राणी है जिसका अपना अस्तित्व है। व्यक्ति के अस्तित्व को, उसके रहन-सहन और प्रगति के अधिकार को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। उसे एक ऐसा प्राणी मानना चाहिए जिसको अपने व्यक्तिगत सत्य एवं नियमों के साथ ही साथ सामूहिक अस्तित्व के मध्य और नियमों में अपना स्वाभाविक और निश्चित भाग पूरा करना है। अरविन्द ने व्यक्ति को राज्य का दास मानने से इन्कार कर दिया। उन्होंने व्यक्ति को राज्य से पृथक् एक स्वतन्त्र अस्तित्व दिया और कहा कि ये सर्वथा अनुचित है कि राज्य व्यक्ति पर अपना पूर्ण अधिकार अथवा स्वामित्व जताए। अरविन्द ने, जो स्वयं आध्यात्मिक पुरुष थे, यह सन्देश दिया कि व्यक्ति को अपने आध्यात्मिक अस्तित्व के नियमों का पालन करना चाहिए और उन्हीं से निर्देश लेने चाहिएँ। इस सम्बन्ध में राज्य का हस्तक्षेप सर्वथा अनुचित है। व्यक्ति की आत्मा के विकास और उसके स्वाभाविक उत्थान के लिए अनिवार्य है कि उसे स्वतन्त्रता मिले । वस्तुतः अरविन्द ने राज्य को व्यक्ति पर न थोप कर ‘राज्य के विचार की अपर्याप्तता’ की धारणा प्रकट की। उन्होंने कहा-“राज्य एक सुविधा है और अपेक्षाकृत हमारे सामूहिक विकास की एक भद्दी सुविधा है जिसे कभी भी स्वयं में साध्य नहीं बनाया जाना चाहिए।” उन्होंने राज्य की सर्वोच्चता को भी चुनौती दी और कहा कि राज्य को मानव-प्रगति का सर्वोत्तम साधन बनाना हास्यास्पद है। मनुष्य समुदाय के द्वारा जीवित रहता है, अतः वह अपना विकास स्वयं व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से कर सकता है। राज्य द्वारा नियन्त्रित कार्य समुदाय के सामूहिक हितों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। यह उचित है कि राज्य कम से कम हस्तक्षेप की नीति अपनाए। राज्य की अनियन्त्रित शक्ति की धारणा ठुकराने योग्य है।

अरविन्द ने आधुनिक पूँजीवाद की आलोचना की और साम्राज्यवादी शोषण की निन्दा की। समाजवाद के सम्बन्ध में उनका विचार था कि “उससे सर्वशक्तिमान निरंकुश राज्य का विकास होता है। आर्थिक क्षेत्र में राज्य के कार्यों के प्रसार से नौकरशाही की वृद्धि होती है और उससे अनिवार्यतः सत्तामूलक नियन्त्रण और नियमन को प्रोत्साहन मिलता है। समाजवाद की इस प्रकार की आलोचना मैक्स वेबर, लुडविक, फान माइजज तथा फ्रेडरिक हेक ने भी की है तथा अरविन्द भी इन्हीं आधारों पर आलोचना करते हैं। किन्तु व्यवहार में समाजवाद का जो रूप देखने को मिलता है उसके आलोचक होते हुए भी उन्होंने समाजवाद के आदर्श को आधारभूत सिद्धान्त के रूप में स्वीकार कर लिया है। उनका विचार था कि समाजवाद का सब के लिए समान और न्यूनतम सामाजिक तथा आर्थिक सुविधाएँ गारण्टी करने के उद्देश्य सामाजिक संगठन का बहुत ही प्रशंसनीय आदर्श है।”

अरविन्द ने 19वीं शताब्दी के व्यक्तिवाद से ही असहमति प्रकट की और लिखा-

“मानव सहयोग की संभावनाओं को मान्यता प्रदान न करना अंग्रेजी उपयोगितावाद की सबसे बड़ी कमजोरी था और राज्य द्वारा सामूहिक कार्य के लिए उपयोगिता को कठोर नियन्त्रण में बदलने का बहाना था ‘ट्यूटोनिक सामूहिकवाद‘ की धारणा की कमजोरी है।”

महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: wandofknowledge.com केवल शिक्षा और ज्ञान के उद्देश्य से बनाया गया है। किसी भी प्रश्न के लिए, अस्वीकरण से अनुरोध है कि कृपया हमसे संपर्क करें। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे। हम नकल को प्रोत्साहन नहीं देते हैं। अगर किसी भी तरह से यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है, तो कृपया हमें wandofknowledge539@gmail.com पर मेल करें।

About the author

Wand of Knowledge Team

Leave a Comment

error: Content is protected !!