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जयप्रकाश नारायण का बिहार-आन्दोलन

जयप्रकाश नारायण का बिहार आन्दोलन

मार्च, 1974 में जयप्रकाश ने ऐतिहासिक बिहार-आन्दोलन को जन्म दिया जो 25 जून, 1975 को श्रीमती इन्दिरा गाँधी की सरकार द्वारा राष्ट्रीय आपात् की स्थिति की घोषणा के बाद शान्त पड़ गया और मार्च, 1977 में जनता पार्टी की सरकार के बाद से 1979 के मध्य तक शान्त रहा। जयप्रकाश ने बिहार-आन्दोलन जिस उद्देश्य से प्रारम्भ किया, समय-समय पर जो अपने विचार व्यक्त किये और आन्दोलन के बाद की परिस्थितियों में जो सन्देश दिया, उनमें हमें उनके विचार-दर्शन का, वर्तमान सन्दर्भो में, महत्वपूर्ण बोध होता है। हम अग्रिम कुछ पृष्ठों में बिहार-आन्दोलन के उद्देश्य औरबजयप्रकाश के कुछ विचार-बिन्दुओं को प्रस्तुत कर रहे हैं-

जयप्रकाश और बिहार-आन्दोलन

संगठित राजनीति से संन्यास लेने के बाद भी जयप्रकाश नारायण भारतीय लोकतन्त्र की विसंगतियों को भूले नहीं थे, बिहार के सर्वोदय आन्दोलन के अपने प्रयोगों के दौरान बाद में जब उन्हें सर्वोदय की तकनीक से उकताहट हुई तो ये विसंगतियाँ उनकी आँखों में और भी ज्यादा खटकने लगीं। यही समय था जब भारत में लोकतंत्र का संकट बढ़ कर एक विस्फोटक स्थिति में पहुँच गया था। जयप्रकाश नारायण ने देख लिया था कि समाज के भीतर इतनी तरह की विषमता है कि सर्वोदय के समन्वय के सिद्धान्त के आधार पर इसका निदान कर पाना मुश्किल है। तब उनकी निगाह लोकतन्त्र की पद्धति में उन सुधारों पर केन्द्रित हो गई जिससे उनकी विसंगतियों को दूर किया जा सके। यह बात भी उनसे छिपी नहीं रही थी कि शक्ति का जितना केन्द्रीयकरण किया जा चुका है वह देश को तानाशाही की तरफ धकेल सकता है। इस व्यग्र खोज के दौरान आन्दोलन हुआ और छात्र-शक्ति के प्रति उसमें विश्वास नए सिरे से भर आया। बिहार-आन्दोलन ने बाद में जाकर जो दिशा ग्रहण की उसका मूल जयप्रकाश नारायण की इसी खोज में है। यह ध्यान रखने की बात है कि सम्पूर्ण क्रान्ति के तमाम आह्वान के बावजूद बिहार आन्दोलन का प्राथमिक लक्ष्य लोकतन्त्र को उसकी वास्तविक शक्ति लौटाना था और इसमें वे जितनी दूर तक जा सकते थे गये, जितना क्रान्तिकारी कोई हो सकता है। किसी लोकतंत्री अवस्था का सबसे क्रान्तिकारी तत्व यही हो सकता है कि जनता को यह अधिकार मिल जाय कि अगर किसी क्षण वह अपने प्रतिनिधि को अपनी आशाओं, आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं पाती है तो उसे बुला ले। प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार बिहार-आन्दोलन का एक नारा बन गया।

सम्पूर्ण क्रान्ति की उनके भाषणों में एक बहुत व्याख्या हुई । “यह संघर्ष केवल सीमित उद्देश्यों के लिए नहीं हो रहा है। उसके उद्देश्य तो बहुत दूरगामी है। भारतीय लोकतन्त्र को वास्तविक तथा सृदृढ़ बनाना, जना का सच्चा राज कायम करना, समाज से अन्याय तथा शोषण आदि का अन्त करना, एक नैतिक, साँस्कृतिक तथा शैक्षणिक क्रान्ति करना, नया बिहार बनाना और अन्ततोगत्वा नया भारत बनाना ।” इस व्यवस्था में संघर्ष को किसी भी दिशा में कितनी भी दूर तक आगे बढ़ाने की गुंजाइश थी। बिहार आन्दोलन हर बार एक कदम आगे बढ़ाता था, अपने आधार को, अपने कार्यक्रम को फैलाता था और नई तेजस्विता ग्रहण करता था। उस आन्दोलन मे क्रान्तिकारी सम्भावनाएँ उतनी ही थीं जितनी वे उस समय बिहार में बसे भारतीय समाज में थीं। लेकिन किसी भी आन्दोलन का तात्कालिक कार्यक्रम समय और परिस्थिति की सीमा में बँधा होता है। उस हिसाब से भी जनता सरकारों (बिहार में श्री जयप्रकाश के आह्वान पर स्थापित) के लिए जो कार्यक्रम तक किया गया था वह आन्दोलन में शामिल लोगों से काफी हिम्मत और एक बिल्कुल आदर्शवादी मूल्यवान की माँग करता था। कार्यक्रम था-जनता सरकार को समाज में फैली हर अनीति और अन्याय के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। उदाहरण के लिए सीलिंग तथा भूमि के प्रगतिशील कानूनों पर अमल, अनुचित बेदखली पर रोक, भूमिहीनों के लिए बासगीत और खेती लायक भूमि का प्रबन्ध, खेती की वैज्ञानिक व्यवस्था, मजदूर को उचित मजदूरी, घर पर उद्योग, मुनाफाखोरी और सूदखोरी पर नियन्त्रण, गाँव के लिए आवश्यक अनाज का गाँव में संग्रह और उसकी उचित मूल्य पर बिक्री, हर बच्चे-बच्ची को उत्पादक शिक्षा, बीमार का इलाज, झगड़ों का आपसी निपटारा, छुआछूत, तिलक, दहेज, ऊँचनीच के भेदभाव का अन्त, आदिवासी, हरिजन, मुसलमान, स्त्री के साथ समान और सम्मानपूर्ण व्यवहार आदि। दिसम्बर के बाद ही गाँव स्तर पर संगठन को ले जाने और समितियों तथा जनता सरकार आदि की इकाइयाँ गठित करने का काम हाथ में ले लिया गया था। लेकिन इकाइयाँ सघन रूप से उन्हीं प्रखण्डों में गठित हो पाई जहाँ युवा या जन-संघर्ष समितियाँ किसी प्रचार आदर्श से जुड़े लोगों के नेतृत्व में काम कर रही थीं। पर जनता सरकारों या संघर्ष समितियों के लिए जो कार्यक्रम तय किया गया था उसके एक बहुत छोटे अंश पर ही अमल होना शुरू हो सका। इसकी वजह बिलकुल साफ थी। बिहार में उस समय की परिस्थितियाँ अभी इतनी क्रान्तिकारी नहीं बनी थी कि यह कार्यक्रम अमल में लाया जा पाता। पर आन्दोलन बिहार के समाज को इस दिशा में धीमे लेकिन निरन्तर आगे बढ़ा रहा था। इसी सन्दर्भ में इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि आन्दोलन अपनी नियति पर पहुँच कर समाप्त नहीं हुआ था, बल्कि वह उन कारणों से अवरुद्ध हो गया था जो उसके नियन्त्रण से बाहर थे।

25 जून, 1975 को श्रीमती गाँधी द्वारा राष्ट्रीय आपात्-स्थिति घोषित कर देने और श्री जयप्रकाश सहित देश के विरोधी पक्ष के सभी शीर्षस्थ नेताओं को जेल में डाल देने के कारण बिहार आन्दोलन शान्त पड़ गया, तथापि मार्च, 1977 में श्रीमती गाँधी और उनकी सरकार का जो अप्रत्याशित पतन हुआ वह वास्तव में बिहार आंदोलन, जयप्रकाश, भारतीय जनता और लोकतन्त्र की ‘बेजोड़-विजय’ थी। जनशक्ति ने निरंकुशता पर सम्पूर्ण शक्ति से प्रहार कर उसे धराशायी कर दिया था। जनता पार्टी की सरकार आने के बाद श्री जयप्रकाश ने लोगों को यह सलाह दी कि फिलहाल ये सरकार से रचनात्मक सहयोग करें। बिहार आन्दोलन का उद्देश्य वास्तव में किसी भी प्रकार की हिंसक क्रान्ति अथवा लोकप्रिय सरकार के विरुद्ध नहीं था। श्री जयप्रकाश ने कहा था-“बिहार आन्दोलन जनता को शिक्षित और संगठित करने की कोशिश कर रहा है ताकि जनता अपने ही कर्म से अपने जीवन में परिवर्तन ला सके और उसे बेहतर बना सके । सामाजिक परिवर्तन का यह केवल एक पक्ष है जिसकी ओर परम्परागत राजनीति ने बहुत कम ध्यान दिया है। राजनीति, कानून और प्रशासन की प्रक्रिया आयोजना और विकास पर आश्रित रही है। कानून है लेकिन उसका कार्यान्वयन जनता के सक्रिय सहयोग के बिना नहीं हो सकता जब तक कि जनता में अपने अधिकारों के प्रति जागरण पैदा नहीं होता वह संगठित नहीं हो सकती। बिहार आन्दोलन संघर्ष समितियों और जनता सरकार के माध्यम से इस उद्देश्य की पूरा करने के लिए प्रयत्नशील है।” लोकनायक ने अपने एक पूर्व भाषण में कहा था-“मैं इस आन्दोलन को क्रान्ति के रूप में देखता हूँ। समाज में आमूलचूल परिवर्तन हो, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, साँस्कृतिक, शैक्षणिक, नैतिक परिवर्तन । एक नया समाज इससे निकले, जो आज के समाज से बिलकुल भिन्न हो, उसमें कम से कम बुराइयाँ हों। हम ऐसा भारत चाहते हैं जिसमें सब सुखी हों, अमीर-गरीब का जो आकाश-पाताल का भेद है, वह न रहे या कम से कम हो। समाज की बुराइयाँ दूर हों, इन्साफ हो । जो आर्थिक परिवर्तन हो उसका फल यह हो कि जो सबसे नीचे के लोग हैं, चाहे वे खेतिहर मजदूर हों। जो आर्थिक परिवर्तन हो उसका फल यह हो कि जो सबसे नीचे के लोग हैं, चाहे वे खेतिहर मजदूर हों, भूमिहीन हों, मुसलमान, हरिजन, आदिवासी ये जो सबसे नीचे हैं उनको पहले उठाना चाहिए।”

लोकनायक जयप्रकाश का कहना था कि भारतीय लोकतन्त्र को संतुलित करने वाली सारी मर्यादाएँ आज खत्म हो चुकी हैं-न प्रेस स्वतन्त्र है, न मजबूत विपक्ष है, न विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थानों के अन्तर्गत काम करने वाले बुद्धिजीवी आत्म-निर्भर हैं और न न्यायपालिका की स्वायत्तता ही अक्षुण्ण है। संसदीय लोकतन्त्र की न्यूनतम बुनियाद भी कहीं दिखाई नहीं पड़ रही है। इसलिए जे० पी० ने बिहार आन्दोलन के । माध्यम से लोकतन्त्र की रक्षा का संकल्प लिया। जे० पी० यह मानते थे कि जब तक समाज की सारी संस्थाओं का बुनियादी परिवर्तन नहीं होता हम जनसाधारण की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकते। अतएव आन्दोलन के लिए दो प्रमुख लक्ष्य थे- पहला लक्ष्य था तत्कालीन अविभाजित काँग्रेस का विकल्प तैयार करना। दूसरा लक्ष्य था समाज की सम्पूर्ण बुनियाद को बदलना। बिहार आन्दोलन की यही दो दिशाएँ थीं- सम्पूर्ण क्रान्ति की ओर बढ़ना और लोकतन्त्र को संतुलित करने की व्यवस्था करना। बिहार आन्दोलन ने प्रथम लक्ष्य तो प्राप्त कर लिया, क्योंकि अविभाजित काँग्रेस के रूप में जनता पार्टी सामने आई और उसने केन्द्र में तथा लगभग समस्त उत्तरी भारत में अपनी सरकार गठित की। लेकिन दूसरा लक्ष्य पहली सीढ़ी भी पार न कर सका क्योंकि एक तो राष्ट्रीय आपात् की स्थिति लाद दी गई और दूसरे श्री जयप्रकाश अपनी गम्भीर बीमारी के कारण स्वयं जीवन और मृत्यु के संघर्ष में उलझ गये । वास्तव में बिहार आन्दोलन अनेक कमजोरियों का शिकार बना। इसमें छात्र शक्ति पर जरूरत से ज्यादा बल दिया गया। ग्रामीण क्षेत्र तो आगे बढ़ा लेकिन शहरी क्षेत्र ने आन्दोलन से अपना पल्ला झाड़ लिया। सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि आन्दोलन जयप्रकाश के व्यक्तित्व में ही बहुत दूर तक केन्द्रित हो गया। इसका फल यह हुआ कि अस्वस्थता के कारण जब जयप्रकाश सक्रिय नहीं हो पा रहे थे तो उनके इर्द-गिर्द की भीड़ उँट रही थी। स्वयं जनता पार्टी ने लोकनायक की आशाओं पर तुषारापात किया और उन्हें कहना पड़ा-“जनता पार्टी हमारे आन्दोलन के गर्भ से पैदा हुई है, इसलिए उसकी सफलता-विफलता के लिए हम सारे लोग जिम्मेदार हैं विशेषकर वे युवक और छात्र जिम्मेदार हैं जिन्होंने आन्दोलन में जनता पार्टी को निर्माण में तथा उसको विजयी बनाने के अभियान में हिस्सा लिया है। जनता पार्टी जिस ढंग से और जिस रूप में बनी है वह बहुत दूर तक अपनी वर्तमान गतिविधियों के लिए उत्तरदायी है। कारण चाहे जो हो, जनता पार्टी से जो बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ जनता ने की थीं वे अभी तक पूरी नहीं हुई हैं। सत्ता आज भी थोड़े से हाथों में केन्द्रित है। जब तक सत्ता का यह केन्द्रीयकरण रहेगा, तब तक तानाशाही का खतरा बना रहेगा। इसलिए सत्ता का विकेन्द्रीकरण जरूरी है। इस दिशा में कदम बढ़ाने का वचन जनता पार्टी ने तो दिया है लेकिन वह अभी तक कुछ कर नहीं पाई। इसके अलावा आर्थिक, सामाजिक समस्याओं के हल की दिशा में भी वह विशेष कुछ कर नहीं पाई है इस कारण जनता में असन्तोष फैल रहा है। ऐसी परिस्थिति में हमें क्या करना चाहिए, युवा जनता को तथा अन्य आन्दोलनकारी युवा संगठनों को क्या करना चाहिए, यह एक विचारणीय प्रश्न है।”

सेना : संविधान के लिए

बिहार आन्दोलन के दौरान जो सरकार के मनमाने रवैये और भ्रष्टाचार के विरुद्ध चलाया गया, अप्रैल, 1975 के अन्तिम सप्ताह में अपनी उड़ीसा यात्रा के दौरान श्री जयप्रकाश ने विचार प्रकट किया कि सशस्त्र सैनिकों को अनैतिक आज्ञाएँ नहीं माननी चाहिए। श्री जयप्रकाश के इस वक्तव्य को सरकार ने गम्भीरता से लिया और तत्कालीन केन्द्रीय गृहमन्त्री ने उसे ‘देशद्रोह’ बताया। पर वास्तव में जयप्रकाश की ऐसी कोई मँशा कभी नहीं रही कि सेना विद्रोह पर उतरे। उन जैसे देशभक्त से कभी नहीं कोई आशा भी नहीं की जा सकती। श्री जयप्रकाश ने केन्द्रीय गृहमन्त्री के आरोप का जवाब देते हुए स्पष्टीकरण किया “मैंने इस सम्भावना की ओर इशारा किया कि देश में किसी प्रकार की तानाशाही प्रवृत्तियाँ प्रजातन्त्र का गला घोंटने का प्रयास कर सकती हैं, ऐसी स्थिति में सेना का कर्तव्य देश, उसके ध्वज और उसके संविधान के प्रति है। देश के संसदीय या मौलिक कानूनों में भले ही स्पष्ट रूप से यह न लिखा हो, सेना का यह कर्त्तव्य है कि वह अधिनायकवादी खतरों से देश को बचाए, अगर कोई दलीय सरकार या दलीय नेता अपने दल और सत्ता के हितों को आगे बढ़ाने के लिए सेना का इस्तेमाल करना चाहे तो मेरी धारणा है कि सेना का यह स्पष्ट कर्तव्य है कि वह इस सिलसिले में अपना उपयोंग न होने दे।”

जयप्रकाश नारायण ने सेना के सन्दर्भ में एक और बात का स्पष्टीकरण किया-“मैं प्रायः इस बात की ओर इशारा करता हूँ जो कि ऐतिहासिक तथ्य है कि एक हिंसात्मक क्रान्ति तब तक कामयाब नहीं होती जब तक कि सत्तारूढ़ दल का विघटन नहीं होता और अधिकाँश सेनाएँ या तो तटस्थ रहें या फिर क्रान्ति के पक्ष में चली जाएँ। मैंने यह भी बताया है कि एक शान्तिपूर्ण क्रान्ति में सेना को ऐसा करने की जरूरत नहीं। मगर यदि सत्ताधारी एक शान्तिमय क्रान्ति को दबाने के लिए सेना का इस्तेमाल करे तो सेना को इस दुरुपयोग को रोकना चाहिए। मैंने कभी कभी नागरिक अव्यवस्था की अवस्था में सशस्त्र सेनाओं के उपयोग की आलोचना की है, क्योंकि ऐसी गड़बड़ी में असैनिक सशस्त्र दल काफी होते हैं। अगर इस सबका मतलब देशद्रोह होता है तो मुझे उस अपराध के लिए कटघरे में खड़े होने में कोई हिचकिचाहट नहीं ।”

पुलिस के सिलसिले में उन्होंने कहा कि वर्तमान आन्दोलन के सिलसिले में पुलिस ने प्रायः जरूरत से जयादा बल का प्रयोग किया है। उन्होंने कहा कि “मैं यह अपना फर्ज समझाता हूँ कि पुलिस को यह समझाऊँ कि मैं उन्हें विद्रोह करने के लिए कह रहा उन्हें अपना फर्ज पूरा करना चाहिए। मगर उन्हें ऐसी आज्ञाएँ नहीं माननी चाहिए जो गैर-कानूनी हों या उनके अन्त करण के विरुद्ध । मैं नहीं मानता कि यह खतरनाक है। मगर यदि है भी तो यह शान्तिपूर्ण क्रान्ति का हिस्सा है ।” जयप्रकाश नारायण का मत था कि आन्दोलनकारियों को पुलिस के प्रति कोई दुर्भावना नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि संघर्ष उनके साथ नहीं है। वे तो राज्य के स्थायी कर्मचारी हैं और सरकार बदलने पर भी वे सेवा में रहेंगे। जयप्रकाश नारायण ने इस बात को बिलकुल गलत बताया कि उन्होंने सेना या पुलिस को जनता आन्दोलन में शामिल होने के लिए कहा है।

जून, 1978 में एक साक्षात्कार में श्री जयप्रकाश से पूछा गया-“कुछ राजनीतिक प्रेक्षक कहते हैं कि आगे चलकर भारतीय राजनीति में सेना को हस्तक्षेप करना पड़ जाएगा, आपकी क्या राय है ?” लोकनायक का उत्तर था- “मैं नहीं समझता कि भारत में सैनिक हस्तक्षेप आवश्यक होगा। सन्तोष और सौभाग्य की बात है कि अनपढ़, गरीब करोड़ों लोगों ने मौका पड़ने पर लोकतन्त्र और तानाशाही के बीच लोकतन्त्र को चुना। उनसे यह काम अनायास अनजाने नहीं हुआ, जानते-बूझते उनके द्वारा किया गया। हमारी सिखाई राजनीतिक, साँस्कृतिक प्रौढ़ता और इतिहास से हमें जो कुछ मिला है उसके कारण देश में तानाशाही स्वीकार नहीं की गई, न की जाएगी। मेरा विश्वास है कि यदि कभी किसी ने सैनिक तानाशाही लादने की कोशिश की तो भारतीय जनता उसके खिलाफ उठ खड़ी होगी।”

जनशक्ति : जनसमिति का दर्शन

मार्च, 1977 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी की काँग्रेस सरकार के पतन के कुछ ही दिन बाद जयप्रकाश नारायण ने आकाशवाणी को दी गई एक भेटवार्ता में हाल में ही पटरी पर वापस आए ‘लोकतन्त्र’ को निर्बाध गति से चलाने की एक चाबी लोगों में सौंपने की कोशिश की। काँग्रेस सत्ता से हट चुकी थी-जयप्रकाश नारायण का एक तात्कालिक लक्ष्य पूरा हो चुका था, पर उन्होंने बिना समय गँवाये अपने दीर्घकालिक लक्ष्य को लोगों के सामने रख दिया। जयप्रकाश नारायण ने प्रथम चरण के रूप में जनसमितियों की स्थापना का प्रस्ताव रखा। यह सुझाव एकदम नया नहीं था। 1974 में ‘लोकतन्त्र के लिए युवा’ नामक एक अभियान में जयप्रकाश ने युवकों के बीच घूम-घूम कर निगरानी समितियों के गठन का प्रयास किया था। उन समितियों का स्वरूप सीमित ही था। चुनाव के दौरान होने वाले भ्रष्टाचार आदि पर युवक नजर रखें। तब परिस्थितियाँ भिन्न थीं। वह काम ज्यादा फैल नहीं सका। बिहार आन्दोलन की लम्बी अवधि में जयप्रकाशजी ने इस कार्यक्रम की और अधिक विस्तृत ढंग से सोचा। सिर्फ चुनावी निगरानी की सीमाएँ तोड़ी और चुनाव के बाद जीते हुए प्रतिनिधियों और मतदाताओं के बीच लगातार संवाद और सम्पर्क के आयाम भी इसमें जोड़े। मार्च, 1977 के चुनाव अभियान में भी उन्होंने इस विचार को जगह-जगह रखा। 20 मार्च, 1977 के फैसले ने परिस्थिति एकदम बदल दी। लोगों का यह फैसला काँग्रेस को अस्वीकृत या जनता पार्टी को स्वीकृत किये जाने तक ही सीमित नहीं था, उसने रोटी और प्रगति के बदले सरकार और सत्तारूढ़ दल के हाथ में अपनी व्यक्तिगत आजादी और देश के लोकतन्त्र को गिरवी रखने से इन्कार किया और इस तरह भी एक साफ इशारा किया कि लोकतन्त्र का अर्थ ‘जनता के नाम पर चलने वाली सरकार नहीं है, बल्कि जनता की इच्छा द्वारा चलने वाली सरकार है।

जनसमितियों के गठन के सुझाव पर लोगों की प्रतिक्रियाएँ बड़ी तेजी से सामने आई। लोगों ने इन समितियों के गठन की प्रक्रिया, इनकी रूपरेखा और कामकाज के तरीकों के बारे में तरह-तरह की जिज्ञासाएँ प्रकट की। पर एक स्पष्ट रूपरेखा के अभाव में इन प्रयासों में एकरूपता नहीं आ पाई। जयप्रकाश नारायण ने अपने इलाज के सिलसिले में अमेरिका रवाना होने से पहले इस कार्यक्रम को निश्चित रूप देने के लिए एक तदर्थ समिति की स्थापना की ओर जो मोटी रूपरेखा सामने आई वह इस प्रकार है-

“फिलहाल यह काम ऊपर से नीचे की ओर चलेगा, पर यह रहेगा तदर्थ ही। नीचे के सभी स्तरों पर जैसे-जैसे चुने हुए संगठन बनते जाएँगे, ऊपर की तदर्थ समितियाँ खुद-बखुद भंग होती जाएँगी।”

जनसमितियों की जिम्मेदारियाँ कुछ इस प्रकार होगी। अपने-अपने स्तरों पर इस बात की निगरानी करना कि सरकार की योजनाएँ और कार्यक्रम उनकी घोषित नीति के अनुरूप ही चलते रहें। पिछड़े वर्गों के लिए बनाई गई कल्याणकारी योजनाएँ ठीक ढंग से निर्बाध रूप से लागू होती रहें, नागरिकों और विशेषकर पिछड़े वर्गों के अधिकारों की रक्षा करना, अपने क्षेत्र से लोकसभा और राज्यसभा के लिए चुन कर भेजे गये प्रतिनिधियों से हर तीन महीने में एक बार मिलना तथा प्रतिनिधियों से उनके वर्तमान काम का और भविष्य की योजनाओं का विवरण प्राप्त करना तथा अपने चुनाव क्षेत्र की समस्याओं पर उनसे विचार-विमर्श करना, वर्ष में एक बार इन प्रतिनिधियों से उनकी आय और सम्पत्ति का पूरा ब्यौरा लेना, स्थानीय अत्याचारों और अन्यायों से निपटना तथा स्थानीय झगड़ों को पुलिस और अदालत की कम से कम मदद लेते हुए सुलझाने का प्रयत्न करना, स्थानीय विकास के रास्ते में आने वाली बाधाओं को हल करने के लिए स्थानीय प्रशासकीय एजेन्सियों की मदद लेना, मदद करना और जरूरत पड़ने पर लोगों को संगठित करके शान्तिपूर्ण अहिंसक सत्याग्रह के जरिए प्रशासन और समाज को गलत कामों से विरत करना और सही कामों की तरफ प्रेरित करना।

संगठन के ढाँचे को चार स्तरों में बाँटा गया। देहाती इलाकों में गाँवों को तथा शहरी इलाकों में 150 से लेकर 200 परिवारों की पड़ौसी सभा को बुनियादी इकाई माना गया। दूसरे स्तर में पंचायत और शहर की 8 से लेकर 10 हजार तक की आबादी के मोहल्ले को शामिल किया गया। तीसरे स्तर में प्रखण्ड और वार्ड रहेंगे चौथे स्तर में संसदीय

चुनाव क्षेत्र आयेगा। बुनियादी इकाई का गठन गाँव के सभी लोगों की उपस्थिति में सर्वानुमति से किया जाएगा। इसमें 5 से 15 सदस्य चुने जाएंगे। इस बात की पूरी सावधानी बरती जाएगी कि इसमें स्त्रियाँ, हरिजन और अन्य कमजोर वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व मिले। समिति का कम से कम आधा भाग युवाओं का हो । समिति का एक संयोजक रहेगा। यह समिति किसी राजनीतिक पार्टी की समिति का रूप न ले बैठे, इसलिए यह ध्यान रखा जाएगा कि इसमें आने वाले सदस्य चाहे किसी राजनीतिक दल से सम्बद्ध हों या न हों वे पूरे समाज के विश्वासपात्र हों। लेकिन संयोजक का गैर-राजनीतिक होना आवश्यक ही माना गया है।

ग्रामीण स्तरीय जनसमितियों के संयोजकों और हर गाँव से एक अन्य प्रतिनिधि को मिलाकर पंचायत स्तरीय समिति का गठन किया जाएगा। प्रखण्ड या संसदीय स्तर की समिति में क्षेत्र की हर पंचायत समिति के तीन या चार सदस्य होंगे। यह भी माना गया है कि प्रखण्ड या संसदीय स्तर की समितियों के सदस्य लोकसभा या विधानसभाओं के चुनाव लड़ने का प्रयत्न नहीं करेंगे । शहरी स्तर का संगठन भी करीब करीब इसी ढाँचे पर खड़ा किया जाएगा।

इस तरह कोशिश की जायगी कि ये जनसमितियाँ देश की राजनीतिक पद्धति का एक स्थाई अंग बन सकें और मतदाताओं और उनके चुने हुए प्रतिनिधियों के बीच, आम जनता और प्रशासन के बीच एक मजबूत पुल की भूमिका निभा सकें। जयप्रकाश जी का कहना है कि “सरकार में जाने या कुर्सी सम्भालने के बाद गलती किसी भी व्यक्ति से हो सकती है। इसलिए उसे इस बात पर खुशी ही होनी चाहिए कि दूसरे लोग उसके या उसके सहयोगियों का गठन सरकार के हित में कर रहे हैं। जो राजनीतिक दल आज सत्ता में हैं उनसे मुझे आशा है कि वे इस तरह के कदम का स्वागत करेंगे। इन समितियों को वे अपना विरोधी नहीं बल्कि अपने सहयोगी की तरह ही मानेंगे।”

श्री जयप्रकाश नारायण राष्ट्रीय जनसमिति स्थापना के लिए उत्सुक थे जो उनकी अस्वस्थता के कारण लम्बे समय तक नहीं बन सकी। आखिर यह समिति बन गई, जिसकी पहली बैठक पटना में दिनांक 30-31 जुलाई, 1977 को जयप्रकाश नारायण की अध्यक्षता में हुई। इस समिति में देश के जानेमाने 30 सदस्य नियुक्त किये गये, जिनमें कुछ प्रमुख थे-आचार्य कृपलानी, श्री एम० सी० छागला, श्री वी० सी० जॉन, नारायण देसाई आदि। श्री जयप्रकाश नारायण की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में कई प्रस्ताव पारित किये गये। एक प्रस्ताव में महँगाई और बेरोजारी में वृद्धि और भ्रष्टाचार पर चिन्ता व्यक्त की गई और सरकार से आग्रह किया गया कि केन्द्र और राज्यों की सरकारें आर्थिक और सामाजिक पुनर्निर्माण की दिशा में सक्रिय हों-जनता ने उन्हें इसीलिए चुनकर सत्ता सौंपी है।

एक दूसरे प्रस्ताव में आन्तरिक सुरक्षा अधिनियम के तरह आर्थिक तथा अन्य अपराधियों को नजरबन्द करने के विचार को गलत बताते हुए सभी राजनीतिक बन्दियों को रिहा करने की माँग की गई।

एक अन्य प्रस्ताव में हरिजनों तथा अन्य कमजोर वर्गों के प्रति अमानवीय व्यवहार की निन्दा की गई और कहा गया कि ऐसी घटनाओं को कानून और व्यवस्था का मामला कह कर नहीं टाला जा सकता-सरकार को इधर तत्काल ध्यान देना चाहिए।

उद्घाटन भाषण में जयप्रकाशजी ने समिति की उपयोगिता, कार्य-विधि और लक्ष्यों की व्याख्या की और कहा कि-

  1. समिति जनता और उन प्रतिनिधियों के बीच कड़ी का काम करेगी। यह देखना जनता का कर्तव्य है कि उनके निर्वाचित प्रतिनिधि अपने कर्तव्य पथ से च्युत न होने पाएँ।
  2. जनशक्ति को संगठित और विकसित करना समिति का कर्तव्य है-यह काम उसे लेखन और भाषणबाजी में नहीं, उदाहरण प्रस्तुत करके करना है।
  3. जनसमितियों को राजनीति, जाति या वर्गों के प्रभाव से मुक्त होना चाहिए और दलित तथा शोषित वर्गों के हितों की रक्षा करनी चाहिए।
  4. जनसमितियाँ ग्राम स्तर तक लोकतन्त्री संस्थाओं को सलाह देंगी और उन्हें निर्देशित करेंगी। जनसमितियों की परिकल्पना के पीछे भावना यही है कि इस आन्दोलन में शामिल व्यक्ति जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करेंगे, क्योंकि सरकारी व्यवस्या में शामिल जनप्रतिनिधि तमाम औपचारिकताओं और परस्पर विरोधी दबावों में फँस जाते हैं। इसलिए वे जनता से दूर होते चले जाते हैं। व्यवहार में बहुधा यही होता है कि लोकतन्त्री संस्थाएँ विभिन्न वर्गों और व्यक्तियों के हितों के दबाव के कारण अपनी गतिशीलता खो बैठती हैं। चाहे राजनीतिक दल हों या नौकरशाही, उत्पादक वर्ग हों या श्रमिक वर्ग या अन्य सुविधा प्राप्त वर्ग, इन सबके हितों के संघर्ष शासनतन्त्र पर हावी होने लगते हैं। प्रबल और प्रबुद्ध जनमत ही सरकार को सही दिशा में सक्रिय बनाये रख सकता है, लेकिन विकासशील देशों का जनता में आम जनता का मत उभरने ही नहीं पाता-अखबारों और दूसरी जगह स्थान ही नहीं मिलता, क्योंकि वह आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टियों से पिछड़ा हुआ होता है। सम्भवतः इसीलिए महात्मा गाँधी की राय थी कि आजादी मिल जाने पर काँग्रेस पार्टी के रूप में काम न करके जन आन्दोलन के रूप में कार्य करे। इसलिए जरूरी है कि सरकार और राजनीतिक दलों के चौखटे के बाहर जन-चेतना का विकास हो और उसे वाणी मिले।

जयप्रकाश और उनके दर्शन में विश्वास रखने वालों को इस बात से निराशा होना स्वाभाविक ही है कि हर गाँव और मोहल्ले में जनसमिति बनाने का आन्दोलन चला नहीं। पर जनसमितियों के दर्शन से हमें लोकतन्त्र के हाथ में सशक्त ‘रक्षा कवच’ का बोध होता है जो अपने-आप में बहुत ही महत्वपूर्ण है।

भूदान आन्दोलन को एक नया आयाम

1957 में बम्बई में आयोजित एशियाई मुल्कों के समाजवादियों के सम्मेलन में जयप्रकाशजी ने कहा था-राजसत्ता के जरिए समाजवाद लाने की कोशिश मानव-जाति को ‘कल्याणकारी राज्य‘ तक ही ले जा सकती है। मनुष्य मात्र की आजादी, समता और भाईचारे के जो आदर्श हैं उन तक नहीं। इस अवसर पर जे० पी० ने भूदान आन्दोलन के जरिए लोकशक्ति को जाग्रत करने की सम्भावनाओं को रेखांकित किया। अन्ततः यदि भूदान आन्दोलन धीरे-धीरे मर गया तो मुख्यतः दो कारणों से । मन्त्रियों और सरकारी मशीनरी को आन्दोलन का अन्तरंग हिस्सा मान लिये जाने पर भूदान का नैतिक पक्ष कुण्ठित हो गया और फिर जो होना था वही हुआ। दूसरे आन्दोलन के कार्यकर्ताओं ने भूदान या भूमि वितरण के बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा कि क्रान्ति सचमुच जीवित है या मर गई। फिर भी मानना होगा कि असफलताओं के बावजूद भूदान के कारण जमीन बँटी उतनी शायद कोई भी राज्य सरकार सीमाबन्दी कानून के अधीन ही बँटवा सकी।

1970 में मुजफ्फरपुर की विशाल जनसभा में जे० पी० ने भूदान आन्दोलनों को एक नया आयाम दिया। ग्राम-प्राप्ति की पुष्टि और स्वराज्य की स्थापना भी जरूरी है, जिसके लिए ग्राम सभा की स्थापना, जमीन का बीसवाँ हिस्सा भूमिहीनों में बाँटना, ग्रामकोष की स्थापना और शान्ति सेना की स्थापना की जाए। नक्सलपंथी समस्या के सन्दर्भ में जे० पी० ने बासगीत जमीन के पर्चे दिलवाने, मजदूरों की समस्याएँ समझने और सुलझाने और शक्तिशाली तत्वों के शोषण से गरीबों को बचाने के लिए खुद काम करने का संकल्प किया। इसके लिए मुसहरी प्रखण्ड जे० पी० की प्रयोगशाला बना।

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