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गांधी जी के धार्मिक और राजनीतिक विचार

गाँधी जी का धर्म और राजनीति पर विचार

गाँधी जी का धर्म और राजनीति पर विचार

(Religion and Politics)

राज्य को धर्मरहित बनाने में 15वीं शताब्दी के इटली के मैकियावेली का बड़ा योग रहा। उसने यह प्रतिपादित किया कि राजनीतिक सफलता के लिए नीति और धर्म को राजनीति से पूर्णतः पृथक् रखना चाहिए। उसने कुटिल राजनीति का समर्थन किया। मध्ययुग में तथाकथित धर्म ने राजनीति पर नियन्त्रण करके समाज का बहुत अहित किया था। अतः प्रतिक्रियास्वरूप धर्मनिरपेक्ष राजनीति को समर्थन मिला, किन्तु धर्मनिरपेक्ष होकर राजनीति पूर्णतः स्वच्छन्द और कुपथगामिनी हो गयी, धूर्तता का पर्याय बन गयी, मानवता के विनाश का एक कारण हो गयी। धर्म को ‘अफीम की गोली’ बताकर उसे त्याज्य और घृणित स्वरूप प्रदान किया गया।

महात्मा गाँधी का उद्भव भी इसी मैकियावेलीय राजनीति के युग में हुआ। किन्तु इस धार्मिक और आध्यात्मिक सन्त ने राजनीति के विकृत रूप को स्वीकार नहीं किया। गाँधीजी ने स्पष्ट घोषणा की कि धर्म के बिना राजनीति पाप है। उन्होंने राजनीति के प्रचलित मूल्यों को अस्वीकार किया और राजनीति में शुद्ध धार्मिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए पूर्ण प्रयत्न किया।

महात्मा गाँधी ने राजनीति का आध्यात्मीकरण किया। उनका विश्वास था कि यदि राजनीति को मानव समाज के लिए वरदान होना है तो उसे उच्चतम नैतिक और आध्यात्मिक सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए। उन्होंने राजनीति को उच्च नैतिकता और धार्मिक भावना से ओत प्रोत किया। वे धर्म और राजनीति को पृथक् नहीं मानते। उन्हीं के शब्दों में, “जो यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है वे यह नहीं जानते कि धर्म का क्या अर्थ है। धर्म से पृथक कोई राजनीति नहीं हो सकती। धर्म से पृथक् राजनीति तो मृत्यु जाल है क्योंकि यह आत्मा का हनन करती है।”

गाँधीजी मूलत: धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और जिस प्रकार उन्होंने अपने जीवन में धर्म का निर्वाह किया, उस आधार पर उन्हें भारतीय परम्परा का एक महान् सन्त कहा जा सकता है। एक धार्मिक नेता होते हुए भी गाँधीजी धार्मिक रूढ़िवादिता और धर्मान्धता के समर्थक नहीं थे तथा धर्म के सम्बन्ध में उनका दृष्टिकोण लौकिक तथा मानवतावादी था। वे प्राणिमात्र की सेवा ही वास्तविक आध्यात्मिक जीवन का मूल तत्व मानते थे और उनका कथन था कि “मानव क्रियाओं से पृथक कोई धर्म नहीं।” इसी प्रकार वे राजनीतिक शब्द में ‘नीति’ अर्थात् धर्म और मानवता को प्राथमिकता देते थे, ‘राज्य अर्थात् सत्ता को नहीं। धर्म के सम्बन्ध में अपने इस लौकिक दृष्टिकोण के कारण ही गाँधीजी ने राजनीति में प्रवेश कर राजनीति में नीति के महत्व का प्रतिपादन किया। उन्होंने राजनीति में प्रवेश इसलिए किया क्योंकि राजनीति धर्म विहीन होती जा रही थी और उसमें धर्म की पुर्नस्थापना करना वे अपना कर्तव्य समझते थे। उन्हीं के शब्दों में, “यदि मैं राजनीति में भाग लेता हूँ तो केवल इसलिए कि राजनीति हमें एक साँप की भाँति चारों ओर से घेरे हुए है, मैं इस साँप से लड़ना चाहता हूँ “मैं राजनीति में धर्म का प्रवेश चाहता हूँ लल्लइस कथन से यह स्पष्ट होता है कि राजनीतिक क्षेत्र में जो कार्य गाँधीजी कर रहे थे वे धार्मिक कार्य ही थे। वे उनसे अलग नहीं रह सकते थे क्योंकि उनका उनके जीवन से अविभाज्य सम्बन्ध था। एक बार पोलक से चर्चा करते कहा भी था, “अधिकतर धार्मिक मनुष्य निनसे मैं मिला हूँ, वे छिपे तौर से राजनीतिज्ञ हैं किन्तू मैं राजनीतिज्ञ का जामा पहने हुए, हृदय से एक धार्मिक मनुष्य हूँ ।”

गाँधीजी एक महान कर्मयोगी थे जो जीवन को एक ऐसी अविभाज्य इकाई समझते थे जिसकी विभिन्न क्रियाओं को एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता और इसलिए वे यह मानते थे कि उन्होंने अपने धार्मिक कर्तव्यों के एक अंग के रूप में ही राजनीति में भाग लिया है। उन्होंने राजनीति में धर्म का समावेश करके नैतिकता के उस दोहरे मापदण्ड को मिटाने का प्रयास किया जो ऐसे शब्दों में निहित होता है कि, “राजनीति-राजनीति है”, और “व्यापार-व्यापार है।” उनका यह विश्वास था कि यदि जीवन के लौकिक तथा धार्मिक पक्षों के मध्य पार्थक्य की एक दीवार खड़ी कर दी गयी तो न केवल धर्म का प्रतिष्ठित स्थान जाता रहेगा बाल्कि वह अपने उस वास्तविक कार्य को करना भी बन्द कर देगा जिसके लिए उसका अस्तित्व है। गाँधीजी के शब्दों में, “जो यह कहते हैं कि राजनीति से धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं वे धर्म को नहीं जानते । जो देश-प्रेम को नहीं जानता वह धर्म को नहीं जानता।”

गाँधीजी के अनुसार राजनीति देश-धर्म है, उससे अलग होकर व्यक्ति आत्मघात करता है। लेकिन उनकी धार्मिकता का अर्थ रूढ़िवादी धर्म से नहीं था क्योंकि धार्मिक पाखण्ड और आडम्बरयुक्त मूर्ति पूजा के वे विरोधी थे। निष्प्राण मूर्ति पूजा के स्थान पर वे मानव पूजा में विश्वास करते थे। गाँधीजी के लिए, “धर्म से अलग होकर राजनीति एक मृत देह के समान थी जिसको जला देना ही उचित था।” राजनीति उनकी दृष्टि में धर्म और नैतिकता की एक शाखा थी। उनके मतानुसार राजनीति शक्ति और सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए संघर्ष नहीं है बल्कि वह लाखों पद-दलितों को सुन्दर जीवन यापन करने योग्य बनाने, मानव के गुणों का विकास करने, उन्हें स्वतनत्रता एवं बन्धुत्व तथा आध्यात्मिक गहराइयों एवं सामाजिक समानता के बारे में प्रशिक्षित करने का निरन्तर प्रयास है। एक राजनीतिज्ञ जो इन उपदेशों की प्राप्ति के लिए काम करता है धार्मिक हुए बिना नहीं रह सकता।

राजनीति को धर्मानुमोदित नानने से गाँधीजी का यह अभिप्राय नहीं है कि राजसत्ता धर्माधिकारियों के हाथों में सौंपी जानी चाहिए अथवा राज्य को किसी धर्म विशेष या सम्प्रदाय विशेष का प्रचारक बनना चाहिए। उनकी आदर्श सर्वोदय-समाज-व्यवस्था में तो राजधर्म निरपेक्ष है, जिसका आशय है कि राज्य के नागरिकों को निर्विवाद रूप से स्वधर्म पालन का पूर्ण अधिकार हो, राज्य न किसी धर्म का संरक्षण करे और न किसी धर्म के उचित विकास में ही बाधक हो । राज्य का अपना कोई विशेष धर्म या सम्प्रदाय न हो, किन्तु राज्य धर्म रहित भी न हो, अर्थात् राजनीति धर्म के सार्वभौमिक नियमों-सत्य, अहिंसा, प्रेम, सेवा आदि का पूर्ण पालन करे। गाँधीजी ने कहा कि राजनीतिज्ञों को सब धर्मों के प्रति समयन भाव रखना चाहिए और राजनीति या सार्वजनिक जीवन में नीति-धर्म के सार्वभौमिक मूल्यों पर अटल रहना चाहिए।

गाँधीजी ने धर्म व राजनीति के एक होने का प्रमाण अपने कार्यों से दिया। उन्होंने देशी शासन से भारत की स्वतन्त्रता के आन्दोलन को एक साधु की तरह चलाया। उन्होंने प्रेम तथा अहिंसा पर आधारित आत्मा की नैतिक शक्ति से ब्रिटिश हुकूमत का सामना किया। उन्होंने झूठे कानूनों का शान्तिपूर्ण विरोध तथा झूठे कानूनों को बनाने वाले शासकों से शान्तिपूर्ण असहयोग का मार्ग निर्धारित किया। शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार ने अन्त में अपने आपको उनके अहिंसात्मक विद्रोह के सामने असहाय अनुभव किया और वह जनता के प्रतिनिधियों को शासन सत्ता सौंपकर बुद्धिमानीपूर्वक हट गयी।

गाँधीजी नैतिकता और शुद्ध आचार-विचार को ही सच्चा धर्म मानते थे और उन्होंने राजनीति में भी नैतिक मूल्यों को महत्व दिया। उनकी दृष्टि में वह राजनीति हिंसक है जो जीवन के आधारभूत सत्यों को लेकर नहीं चलती। चूँकि जीवन के आधारभूत सत्य या मूल्य धर्म का ही रूप है अथवा ये ही धर्म का रूप हैं, और इन्हीं से मानव जीवन को गति मिलती है, अतः वह राजनीति के आध्यात्मीकरण के पक्ष में हैं। जब वे राजनीति का आध्यात्मीकरण करने को कहते हैं तो वे राजनीति से विग्रह, विघटन, विद्रोह और विनाश की प्रवृत्तियों का उन्मूलन करना चाहते हैं तथा सद्भावना, सहयोग, समन्वय तथा संगठन के तत्वों का अधिकतम समावेश चाहते हैं। सारांशतः उनकी राजनीति धर्म की पूरक है।

दरअसल गाँधीजी पहले धार्मिक फिर राजनीतिज्ञ थे। वे राजनीति में पड़ने पर नीति, धर्म या नैतिकता को नहीं छोड़ सकते थे। वे मन, वचन और कर्म से धार्मिक-आध्यात्मिक थे, अतः राजनीति में भी उन्होंने सफल प्रयोग करके प्रदर्शित कर दिया कि धार्मिक राजनीति का सिद्धान्त अव्यावहारिक नहीं है अपितु पूर्ण व्यावहारिक है।

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