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नगरीय स्वशासन की प्रमुख समस्याएँ, सुधार हेतु सुझाव

नगरीय स्वशासन

नगरीय स्वशासन

भारत में नगरीय स्वशासन की प्रमुख समस्याएँ

भारत में नगरीय स्वशासन की संस्थाओं को विभिन्न समस्याओं या संस्थाओं का सामना करना पड़ रहा है। डॉ० वी० एम० सिन्हा ने भारत में स्थानीय शासन संस्थाओं की प्रमुख समस्याओं को इस प्रकार बताया है-

  • इन संस्थाओं को जनसाधारण से जो सम्मान मिलना चाहिए था वह नहीं मिल पाता। जनसाधारण ने इनके प्रति उदासीनता का दृष्टिकोण अपना लिया है। इसका कारण इनकी अक्षमता, अकार्यकुशलता तथा ईमानदारी की कमी है।
  • बड़े शहरों में जनता की उदासीनता तथा फलतः पेशेवर राजनीतिज्ञों की मनमानियों का एक कारण यह है कि इन शहरों में बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो बाहर से आए हैं, जिनका स्थानीय जनता तथा शहर से कोई प्रेम नहीं है। शहर को अच्छा बनाने की भावना इनके मस्तिष्क में आती ही नहीं है।
  • जनसाधारण का काफी बड़ा भाग अशिक्षित है। अपने अधिकार तथा कर्तव्यों के विषय में जागरुक नहीं है। पढ़ा-लिखा वर्ग शायद बाहर से आया हुआ होने के कारण अथवा अपनी ही समस्याओं में उलझे रहने के कारण नगर प्रशासन की समस्याओं की ओर से उदासीन रहता है। फलतः वहाँ ऐसा कोई प्रभावशाली वर्ग नहीं होता जो नगर प्रशासन में सुधार के लिए सक्रिय होकर प्रयत्न करे।
  • निर्वाचित पदाधिकारी अपना अधिकांश समय अपने व्यक्तिगत तथा दलगत लाभ के लिए दाव-पेंचों तथा अखाड़ेबाजी में व्यतीत करते हैं इससे नगर प्रशासन का हित तथा जनता का हित गौण हो जाता है।
  • इन संस्थाओं का प्रशासन दलगत राजनीति का शिकार हो गया है। व्यक्तिगत, दलगत तथा राजनैतिक कारणों से विकास कार्यक्रमों की अवहेलना की जाती है। दिन-प्रतिदिन के प्रशासन पर जैसे-करों की वसूली, लाइसेंस जारी करना, संस्था के उपनियमों को लागू करना आदि पर राजनीति हावी रहती है।
  • जनसाधारण की उदासीनता तथा पेशेवर राजनीतिज्ञों की मनमानियों के कारण अच्छे ईमानदार व्यक्ति इन संस्थाओं की ओर आकर्षित नहीं होते। परिणामस्वरूप इन संस्थाओं की बागडोर क्षेत्र के अच्छे ईमानदार व्यक्तियों के हाथों में न होकर पेशेवर राजनीतिज्ञों के हाथों में होती है।
  • इन संस्थाओं की वित्तीय स्थिति असन्तोषजनक है जिसके मुख्य कारण हैं-
    1. मुद्रा-स्फीति तथा फलस्वरूप मूल्यों में वृद्धि ।
    2. केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों को सम्पत्ति एवं वाहन कर से छूट।
    3. सम्पत्ति कर का आधार वार्षिक किराया है। किराया नियन्त्रण वाले क्षेत्रों में किराया नहीं बढ़ाया जा सकता। अतः इन संस्थाओं को आर्थिक स्थिति का सामना करना होता है।
    4. कर्मचारियों के वेतनमान में वृद्धि।
    5. प्रशासकीय व्यय का विस्तार।
    6. कर बढ़ाने सम्बन्धी आय के साधन न होना।
    7. करों की वसूली में ढील तथा फलस्वरूप बढ़ती हुई बकाया राशि ।
    8. इन संस्थाओं द्वारा धन का अपव्यय।
  • इन संस्थाओं ने अपनी वित्तीय स्थिति सुधारने की दिशा में कोई विशेष कदम नहीं उठाया है। नए कर लगाने अथवा चालू करों में बढ़ोत्तरी करने में कोई उत्साह नहीं दिखाया गया है। निर्वाचित सदस्यों को यह डर बना रहता है कि इससे उनकी लोकप्रियता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। फलतः इन संस्थाओं का सतत प्रयास यह रहता है कि राज्य सरकारों से अनुदान अथवा ऋण के रूप में अधिक से अधिक सहायता प्राप्त कर ली जाए।
  • करों के विषय में स्थानीय जनता का दृष्टिकोण गलत है। यदि नगर प्रशासन में सुधार लाना है, नयी सेवाएँ उपलब्ध करवानी है तो इनका व्यय भार नगर निवासियों को उठाना ही होगा। नगर निवासी नयी सेवाओं तथा चालू सेवाओं में सुधार की माँग करते हैं पर इससे व्यय के लिए करारोपण अथवा करों की दर में वृद्धि का विरोध करते हैं।
  • सार्वजनिक सम्पत्ति, सेवाओं एवं सुविधाओं को हम बुरी तरह उपयोग में लाने के आदी हो गए हैं। उदाहरण के लिए सड़क पर कूड़ा-कचरा फेंक देना, जहाँ-तहाँ थूक देना, नल के उपयोग के बाद बन्द न करना, सड़क के किनारे बच्चों को मलमूत्र त्याग के लिए बैठाना आदि का उल्लेख किया जा सकता है। इससे एक ओर गन्दगी फैलती है तथा दूसरी ओर इन सेवाओं पर इन संस्थाओं का व्यय भार बढ़ता
  • बड़े शहरों में आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों का बड़ा दबाव रहता है। ये लोग नगरपालिका की आय में कोई योगदान नहीं करते पर नगरपालिका की सेवाओं तथा यातायात, बाजार, अस्पताल तथा शिक्षण संस्थाओं आदि का लाभ अवश्य उठाते हैं।
  • राज्य सरकारों द्वारा नियन्त्रण के अधिकारों का उपयोग कई बार राजनीतिक आधारों पर किया जाता है। विरोधी दलों द्वारा प्रशासित संस्थाओं को अतिक्रमित अथवा भंग कर दिया जाता है। विरोधी दल के चेयरमैन को पद से हटा दिया जाता है अथवा उसे अधिकार विहीन बना दिया जाता है। अनेक बार न्यायालयों ने इस प्रकार के आदेशों को अवैध ठहराया है।
  • राज्य सरकारें कई बार अपने नियन्त्रण के अधिकारों का समय रहते उचित रूप से उपयोग नहीं करती हैं। यदि समय पर उचित मार्गदर्शन हो जाए तो कई अवसरों पर संस्था को अधिक्रमित अथवा भंग करने की स्थिति उत्पन्न ही न हो। यदि पश्चिम बंगाल सरकार ने कलकत्ता नगर प्रशासन पर उचित नियन्त्रण रखा होता तो 1948 में निगम का प्रशासकीय समाप्तीकरण नहीं होता।
  • लेखा-परीक्षण के फलस्वरूप इन संस्थाओं के वित्तीय प्रशासन में साधारणतः कई त्रुटियाँ पाई गई हैं। जैसे—
    1. समय पर करों का वसूल न होना तथा बकाया कर की राशि एकत्रित न होना। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इस दिशा में काफी ढिलाई आई है तथा बकाया राशियाँ प्रभूत मात्रा में बढ़ी हैं।
    2. बजट की निर्धारित राशि से अधिक व्यय की प्रवृत्ति ।
    3. आय के स्रोतों के अनुमान से कम आय की प्राप्ति ।
    4. भुगतान में अनियमितताएँ यथा दुबारा भुगतान, बिना यथेष्ठ जाँच-पड़ताल के भुगतान, झूठे यात्रा बिलों के भुगतान आदि।
    5. स्टॉक रजिस्टर में अनियमितताएँ।
    6. अनुदानों का दुरुपयोग : जिस उद्देश्य के लिए अनुदान प्राप्त किए गए हों उस पर व्यय न करके अन्य मदों पर व्यय करना।
    7. टेण्डर स्वीकार करने के नियमों का उल्लंघन तथा कम दर वाले टेण्डरों को बिना उचित कारण के रद्द कर देना।
    8. निर्वाचित अधिकारियों द्वारा बिना किसी प्रशासकीय औचित्य के दौरे करना ।
    9. स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद के वर्षों में इन संस्थाओं ने अधिक से अधिक राज्य सरकार के अनुदानों पर निर्भर रहने की प्रवृत्ति का परिचय दिया है। योजनाबद्ध विकास के लिए उपलब्ध धनराशि में से इन संस्थाओं को अनुदान आदि दिए गए। फलतः इन संस्थाओं ने धीरे-धीरे स्वावलम्बन की भावना को एकदम भुला दिया है और आज अपने सभी कार्यक्रमों के व्यय के लिए वे राज्य सरकार से सहायता की अपेक्षा करती है।
  • इन संस्थाओं में प्रशासकीय कुशलता का स्तर अत्यन्त निम्न कोटि का रहा है। इन संस्थाओं में अच्छे कर्मचारियों का अभाव है। वैसे ही प्रत्याशी इन संस्थाओं की ओर आकर्षित होते हैं, जो केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों तथा निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों के अच्छे प्रतिष्ठानों द्वारा छाँट दिए गए हैं।
  • कर्मचारियों में ईमानदारी तथा कर्त्तव्य-पालन की भावना की प्रायः कमी पाई जाती है। अधिकतर कर्मचारी किसी तरह राजनीतिज्ञों के सम्पर्क में आकर अपना उल्लू सीधा करने के प्रयास में लगे रहते हैं। उन्हें कार्यालय में आकर ईमानदारी से काम करने का न तो अवसर मिलता है और न इसमें उनकी रुचि ही होती है। इन संस्थाओं के कर्मचारियों का वेतनमान बहुत कम होता है अतः रिश्वत, दस्तूरी आदि का बड़ा जोर रहता है।

भारत में नगरीय स्थानीय प्रशासन में सुधार हेतु सुझाव

डॉ० सिन्हा ने नगरीय स्थानीय प्रशासन में सुधार के लिए कतिपय महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं, जो निम्नलिखित हैं-

  1. इन संस्थाओं को उचित रूप से चलाने के लिए आवश्यक है कि उचित एवं ईमानदार नेता तथा कर्मचारी इन संस्थाओं की ओर आकर्षित हों और यह तभी सम्भव है जबकि इन संस्थाओं के प्रति जनता की सम्मान भावना बढ़े तथा उनका रवैया पक्षपातपूर्ण न हो। यदि अच्छे लोग इन संस्थाओं की ओर आकर्षित होते हैं तो.
  2. इन संस्थाओं के कर्मचारियों का वेतनमान तथा सेवा शर्ते राज्य सरकार के कर्मचारियों की सेवा शर्तों के समकक्ष होनी चाहिए। यदि राजकीय स्तर पर इनकी सभी सेवाओं को एकीकृत करने की अथवा समकालित सेवाओं की व्यवस्था हो जाए तो इस दिशा में अच्छी प्रगति हो सकती है।
  3. कोई भी संस्था बिना उचित प्रकार के नेतृत्व तथा अच्छे कार्मिकों के सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकती। वर्तमान स्थिति अत्यन्त ही असन्तोषजनक है। इस दिशा में सुधार के बिना इन संस्थाओं का भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता।
  4. इन संस्थाओं के निर्वाचनों को यदि दलगत राजनीति से परे रखने का प्रयास किया जाए तो अच्छा हो। स्थानीय संस्थाओं के प्रशासन में दलगत राजनीति का स्थान नहीं होना चाहिए। इन संस्थाओं का निर्वाचन निर्दलीय आधार पर किया जाना चाहिए। सभी राजनीतिक दलों में यह समझौता किया जा सकता है कि वे स्थानीय संस्थाओं के निर्वाचनों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। ऐसी स्थिति में स्थानीय जनता प्रत्याशियों का चुनाव उनकी योग्यता के आधार पर कर सकेगी तथा इन संस्थाओं को उचित प्रकार का नेतृत्व प्राप्त हो सकेगा। इसके साथ ही इन संस्थाओं के निर्वाचन व्यय को सीमित करने का प्रयास किया जाना चाहिए जिससे कि योग्य प्रत्याशी धनाभाव के कारण चुनाव में भाग लेने से वंचित न रह जाएँ।
  5. यह आवश्यक है कि निर्वाचित नेताओं तथा अन्य राजनीतिज्ञों के लिए एक आचरण संहिता बनाएँ और फिर उस आचरण संहिता का कठोरता के साथ पालन किया जाना चाहिए।
  6. इन संस्थाओं की आय बढ़ाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
  7. यह निरन्तर प्रयास किया जाना चाहिए कि नगर सुन्दर एवं योजनाबद्ध रूप से विकसित हो। नगरों के बहुमुखी विकास के लिए मास्टर प्लान का निर्माण किया जाना चाहिए और भूमि का उपयोग उसी के अनुसार किया जाना चाहिए। यद्यपि शहरों के पुराने बसे हुए भागों में अब शायद मूलभूत सुधार सम्भव न हों, पर नए नगर बसने वाले भागों को पूर्णतया नियन्त्रित किया जाना चाहिए।
  8. नगर निगम तथा नगरपालिका प्रशासनों को औद्योगीकरण तथा उससे उत्पन्न शहरीकरण की समस्याओं से निबटने के लिए तैयार किया जाना चाहिए। शहरों की प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ किया जाए ताकि वह शहरीकरण तथा जनसंख्या वृद्धि के द्वारा उत्पन्न समस्याओं का मुकाबला कर सकें।
  9. देहातों की भाँति शहरी क्षेत्रों में भी शहरी सामुदायिक विकास योजनाएँ लागू करने का प्रयास किया जाना चाहिए। इस प्रकार की योजनाओं का उद्देश्य स्थानीय जनता के सहयोग से शहर में रहन-सहन की स्थिति में सुधार लाना होना चाहिए। ऐसी योजनाओं से लोगों का नगर-प्रशासन में निकटतम सम्बन्ध स्थापित हो सकेगा तथा वे प्रशासन के कार्यक्रमों में रुचि ले सकेंगे। उस स्थिति में प्रशासन द्वारा संचालित कार्यक्रम उनके कार्यक्रम होंगे।
  10. जनता से निकट सम्पर्क के लिए यह आवश्यक है कि बड़े निगमों तथा नगरपालिकाओं के प्रशासन के क्षेत्रीय आधार पर विकेन्द्रित किया जाए।
  11. इन संस्थाओं के प्रशासन के प्रति जनता बड़ी उदासीन है अतः जनसाधारण का सहयोग प्राप्त करने के लिए प्रयास किया जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि निर्वाचित प्रतिनिधि वार्डों में जाकर लोगों से मिलें, उनकी समस्याओं को समझें तथा उनके निराकरण का प्रयास करें, जिससे लोगों को विश्वास हो कि नगर प्रशासन मात्र कर वसूल करने वाली संस्था ही नहीं वरन् उनके सुख-दुःख के समय काम आने वाली संस्था है। यदि ऐसी सभाओं का गठन हो सके जिनमें नगर प्रशासन तथा निर्वाचित सदस्य जनसाधारण से मिल सके तो इस दिशा में प्रगति हो सकती है।
  12. कई बार नगर प्रशासन में असुविधा तथा समन्वय सम्बन्धी असुविधाएँ जाती हैं कि शहर में प्रशासनिक उत्तरदायित्व अनेक संस्थाओं के बीच विभाजित रहता है। नगरपालिका नगर का प्रशासन सम्भालती है। नगर विकास न्यास शहर के आसपास अविकसित क्षेत्रों को विकसित करता है। जलदाय एवं मलमूत्र निस्तारण बोर्ड जलदाय एवं मलमूत्र निस्तारण का काम सम्भालता है। कई संस्थाओं के होने से प्रशासकीय समन्वय में कठिनाई होती है। यह अधिक उचित होगा कि शहर का सारा प्रशासकीय उत्तरदायित्व एक ही संस्था के हाथ में हो।
  13. नगरपालिकाओं एवं निगमों की स्थापना एवं वर्गीकरण अधिक वस्तुनिष्ठ मापदण्ड से किया जाना चाहिए। सारे देश में इस सम्बन्ध में एक ही मापदण्ड की स्थापना होनी चाहिए। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद कुछ राज्यों में निगमों तथा नगरपालिकाओं की स्थापना की होड़-सी लग गई है। नगरपालिका या निगम शहर की प्रतिष्ठा का मापदण्ड बन गया है, यह अनुचित है।
  14. अनेक शहरों में नगर प्रशासन का उत्तरदायित्व अनेक संस्थाओं के बीच विभाजित है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो जाता है कि उनमें पारस्परिक समन्वय तथा उनके संतुलित विकास के लिए प्रयास किए जायें। इसके अतिरिक्त इस बात की आवश्यकता है कि नगर प्रशासन से सम्बन्धित राज्य की सभी संस्थाओं में समन्वय हो, अतः राज्य स्तर पर एक उच्च शक्ति प्राप्त शहरी विकास बोर्ड अधिकरण की स्थापना की जाए जो विभिन्न संस्थाओं में समन्वय स्थापित कर सके।
  15. राज्य सरकारों को अपने नियन्त्रण के अधिकार को निष्पक्ष रूप से उपयोग में लाना चाहिए। प्रजातन्त्र में निर्वाचित सदस्यों को बिना उचित कारण के केवल दलगत आधार पर हटा देना या पदच्युत कर देना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता।
  16. नगर प्रशासन के लिए जनता को अपना उत्तरदायित्व निभाना होगा। यदि नगर प्रशासन अकार्यकुशल, भ्रष्ट और अक्षम है तो यह जनता का उत्तरदायित्व है कि वह उसे सुधारे। यह कार्य दो प्रकार से किया जा सकता है-एक ओर जनता स्वयं नियमानुसार ईमानदारी से काम करे, अपने लिए किसी ऐसे लाभ के लिए प्रयास न करे जो नियमानुसार उसे नहीं मिलना चाहिए, दूसरी ओर जहाँ कहीं निर्वाचित सदस्य, प्रशासक, राजनीतिक दल अथवा अन्य कोई व्यक्ति निगमों के विरुद्ध अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए कार्य करे तो उसे चैलेन्ज किया जाना चाहिए। लेकिन जनता जागरूक नहीं है अतः स्वार्थी तत्व सक्रिय हो जाते हैं। यदि स्वार्थी तत्वों को यह पता लग जाए कि अब जनता जागरूक हो गई है तथा उनकी अपनी सफलता की सम्भावनाएँ घट रही हैं तो वे स्वयं ऐसा करना बन्द कर देंगे। अन्ततः नगर प्रशासन का वही रूप होगा जो जनता उसे देगी।
  17. इन संस्थाओं की वर्तमान बिगड़ी स्थिति का एक कारण यह भी है कि निर्वाचन के बाद सदस्यों से जनता का न कोई सम्पर्क रहता है और न उस पर कोई नियन्त्रण ही रहता है। जनता के सदस्यों द्वारा निरन्तर सम्पर्क बनाए रखने के लिए दो प्रकार के सुझाव दिए जा सकते हैं। पहला यह कि सदस्यों का निर्वाचन तीन वर्षों के लिए हो तथा 1/3 सदस्यों का निर्वाचन प्रतिवर्ष किया जाए। इस प्रकार की पद्धति से लाभ यह होगा कि बदलते हुए लोकमत को प्रतिनिधित्व मिल सकेगा। नगरपालिका क्षेत्र को तीन सदस्यों वाले निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया जाना चाहिए तथा प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से प्रतिवर्ष एक सदस्य निर्वाचित किया जाना चाहिए। दूसरा विकल्प इस दिशा में यह हो सकता है कि निर्वाचित सदस्यों को वापस बुलाने की व्यवस्था होनी चाहिए (जैसा कि 1999 में मध्य प्रदेश सरकार ने प्रथम बार ऐसा प्रयास किया) यदि किसी निर्वाचन क्षेत्र के 1/10 मतदाता प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत करें कि सम्बन्धित सदस्य का ‘रिकाल’ होना चाहिये तो इस सम्बन्ध में मतदान किया जाना चाहिए। यदि मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों का बहुमत उस निर्वाचित सदस्य के विरुद्ध हो तो उसे सदस्यता से हटा दिया जाना चाहिए।
  18. इन संस्थाओं की समिति-पद्धति को अधिक शक्तिशाली बनाया जाना चाहिए।
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