संसदीय नियन्त्रण

संसदीय नियंत्रण

लोक उद्योगों पर संसदीय नियंत्रण

(Control of Public Expenditure)

प्रजातन्त्रात्मक शासन व्यवस्था में संसद जनता की सर्वोच्य वैधानिक प्रतिनिधि संस्था का उत्तरदायित्व ग्रहण किये हुए होती है। इस जन प्रतिनिधि संस्था को सार्वजनिक उपक्रमों पर नियन्त्रण का अधिकार प्राप्त है। लोक उद्योगों पर अपने व्यापक अधिकारों का प्रयोग करते हुए संसद जन प्रतिनिधि के रूप में नैतिक तथा संवैधानिक प्रावधान के अनुसार वैधानिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करती है। अपने इन अधिकारों के अन्तर्गत संसद लोक उद्योगों के कार्यकलापों पर नियन्त्रण स्थापित करती है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि लोक उद्योगों पर इस प्रकार का संसदीय नियन्त्रण मार्गदर्शक, अवरोधक तथा कार्यकलापों के पूर्व-नियन्त्रण के रूप में बहुत ही कम होता है। इस माध्यम से प्रमुखतः विचारों की अभिव्यक्ति, सूचनाओं की माँग करके, प्रतिवेदन प्राप्त करके, आँकड़े तथा लेखों की जाँच करके हिसाबदेयता के उत्तरदायित्व का निर्वाह किया जाता है। संसद की विचारधारा भी लोक उद्योगों के कार्यक्रमों तथा नीतियों को प्रभावित करती है।

संसदीय नियंत्रण की आवश्यकता एवं महत्त्व

(Need and Importance of Parliamentary Control)

विगत दशकों में लोक क्षेत्र के तीव्र विकास के फलस्वरूप लोक उद्योगों में विनियोजित राशि में तेजी से वृद्धि हुई है। भारत में लोक उद्योगों के विकास से अनेक लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की अपेक्षा की गयी है। अतः विनियोजित साधनों के कुशलतम प्रयोग, राष्ट्रीय सम्पत्ति एवं संसाधनों के समुचित प्रयोग हेतु उद्योगों का सुनियोजित विकास आवश्यक है। यह तब ही सम्भव है जब लोक उद्योगों की कार्यप्रणाली एवं क्रियाओं पर पर्याप्त नियन्त्रण रखा जाए। भारत एक प्रजातन्त्रात्मक राष्ट्र है। अतः यहाँ लोक उद्योगों पर नियन्त्रण की दृष्टि से संसदीय नियन्त्रण का विशेष महत्व है। लोक उद्योगों पर संसदीय नियन्त्रण की आवश्यकता एवं महत्व अथवा इसके पक्ष में तर्कों का विवेचन निम्न प्रकार किया जा सकता है-

  1. वैधानिक दायित्वों की पूर्ति (Fulfilment of Legal Obligation)-

    भारतीय संविधान के अनुच्छेद 114(3) व 266(3) के अन्तर्गत राज्य द्वारा संग्रहित कोषों का प्रयोग नियमाधीन व्यवस्थाओं द्वारा किये जाने का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त कोषों का प्रयोग नहीं किया जा सकेगा। संसद अपने इस संवैधानिक वैधानिक उत्तरदायित्व की पूर्ति के लिए लोक उपक्रमों पर समुचित नियन्त्रण रखती है।

  2. संसद द्वारा अंशधारियों का प्रतिनिधित्व (Representation by parliament on behalf of Shareholders)-

    जैसा कि अन्यत्र स्पष्ट किया जा चुका है कि लोक उद्योगों में जनता का धन विनियोजित है। अतः जनता ही लोक उद्योगों की स्वामी है। लोक उद्योगों के अंशधारियों (करदाताओं) का प्रतिनिधित्व संसद करती है। अतः स्वामित्व की दृष्टि से लोक उद्योगों पर संसद के नियन्त्रण का स्पष्ट औचित्य है।

  3. लोक सेवकों की क्रियाओं पर नियन्त्रण (Control on Activities of Civil Servants)-

    भारतीय लोक उद्योगों के प्रबन्ध में लोक सेवकाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस वर्ग के व्यक्तियों का सचिवालय एवं मन्त्रालय से प्रत्यक्ष सम्पर्क होने के कारण ये लोक उद्योगों में अपनी एकाधिकारी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। लोक सेवकों के एकाधिकार पर नियन्त्रण हेतु संसदीय नियन्त्रण आवश्यक है।

  4. सरकारी नीति में समरूपता की आवश्यकता (Need for Uniformity in Govt. Policy)-

    लोक उद्योग सरकारी नीति के अनुरूप कार्य करते हैं। विभिन्न लोक उद्योग भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य करते हैं। इस विभिन्नता तथा सरकारी नीति में समरूपता के लिए संसदीय नियन्त्रण आवश्यक है।

  5. सरकारी पूँजीवाद पर नियन्त्रण (Control on State Capitalism)-

    लोक क्षेत्र संस्कृति में पूँजोवाद का जन्म राष्ट्र के लिए प्रतिकूल हो सकता है। अतः इस पर समुचित नियन्त्रण आवश्यक है।

  6. संसद सदस्यों द्वारा जनता का ट्रस्टी होना (Members of Parliament as Trustees of Public)-

    संसद सदस्य जनता के ट्रस्टी होते हैं। इस सम्बन्ध के कारण श्रमिकों और उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करना संसद का परम उत्तरदायित्व है। संसद इस उत्तरदायित्व का निर्वाह लोक उद्योगों पर नियंत्रित करके करती है।

  7. व्यक्तिगत वित्तीय हित के अभाव का विकल्प (Alternative to Absence of Individual Financial Interests)-

    लोक उद्योगों में व्यक्तिगत एवं वित्तीय हित दोनों का अभाव पाया जाता है। इनके संचालन का सम्पूर्ण कार्य वेतनभोगी कर्मचारियों द्वारा सम्पन्न किया जाता है। अतः इनके कार्य में अरुचि एवं शिथिलता होती है। ये लोग उपक्रम के वित्तीय साधनों के प्रति उत्तम उपयोग तथा उद्योग की लाभदायकता बढ़ाने का भी कोई विशेष प्रयास नहीं करते हैं। अतः इन पर जन प्रतिनिधि संस्था का नियन्त्रण आवश्यक है।

संसदीय नियंत्रण के उद्देश्य

(Objectives of Parliamentary Control)

श्री आर० एस० राय ने लोक उद्योगों पर संसदीय नियन्त्रण के निम्नलिखित उद्देश्य बतलाये हैं-

  1. जनता की विनियोजित राशि का श्रेष्ठतम उपयोग सम्भव होना,
  2. राष्ट्रीय हितों का संरक्षण,
  3. लोक उद्योगों में भ्रष्टाचार एवं अनियमितताओं के उन्मूलन को प्रभावी बनाना,
  4. कर्मचारियों के हितों की रक्षा करना,
  5. लोक उद्योगों की उत्पादन एवं कार्य कुशलता बढ़ाना,
  6. दैनिक कार्यकलाओं की नीति का निर्धारण तथा उनकी सफलता का मूल्यांकन करना,
  7. उत्तरदायित्वों का निर्धारण करना,
  8. उपक्रम के समुचित संसाधनों का समुचित प्रयोग करना,
  9. यथा समय ही सुधारात्मक प्रयास करना।

लोक उद्योगों के सम्बन्ध में संसद के अधिकार एवं कर्तव्य

(Rights and Duties of Parliament in Connection with Public Enterprises)

जैसा कि उपरोक्त विवेचन में स्पष्ट किया गया है, लोक उद्योग एवं इनमें कार्य करने वाले अधिकारी संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं। अतः भारतीय संसद को लोक उद्योगों पर एवं उनके कार्य संचालक पर निरीक्षण एवं नियन्त्रण का अधिकार है। इस अधिकार के अन्तर्गत संसद को लोक उद्योगों की कुशलता पर निगरानी रखने एवं उसमें उपयुक्त सुधार करने का उत्तरदायित्व उत्पन्न होता है। लोक उद्योगों के सम्बन्ध में संसद के अधिकार एवं कर्तव्यों का उल्लेख निम्न प्रकार किया जा सकता है-

  1. सामान्य नीतियों का निर्धारण

    संसद लोक उद्योगों की सामान्य नीतियों का निर्धारण करती है। इन नीतियों में प्रमुखतः प्रशासन एवं संचालन नीतियों को सम्मिलित किया जाता है। इन नीतियों का निर्धारण करते समय संसद उपक्रम के दैनिक प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करती है।

  2. नीतियों के पालन का निरीक्षण

    सरकार का कर्तव्य केवल लोक उद्योगों की सामान्य नीतियों का निर्धारण करना ही नहीं बल्कि यह देखना भी है कि उन नीतियों का उपयुक्त प्रकार से पालन हो रहा है अथवा नहीं।

  3. नीतियों एवं उद्देश्यों के मध्य समन्वय

    लोक उद्योगों की सफलता के लिए इन उद्योगों की नीतियों एवं उनके लिए निर्धारित उद्देश्यों के मध्य समन्वय का निरीक्षण करना भी संसद का कर्तव्य है।

  4. उद्योगों को आवश्यक निर्देश-

    संसद राष्ट्रहित में लोक उद्योगों को आवश्यक निर्देश जारी करती है। संसद इन निर्देशों को सम्बन्धित मन्त्री के माध्यम से उद्योग तक पहुँचाती है।

  5. समान उद्योगों में समन्वय

    संसद समान क्षेत्र में एक ही उद्देश्य को पूरा करने वाले लोक उद्योगों के मध्य सामन्जस्य उत्पन्न करने का कार्य भी करती है।

  6. उद्योग के विस्तार की अनुमति

    लोक उद्योगों के उपयुक्त विस्तार के दृष्टिकोण से संसद उद्योग के विस्तार, पूँजी वृद्धि आदि पर अपनी अनुमति प्रदान करती है।

  7. वार्षिक लेखों की प्राप्ति

    संसद को लोक उद्योगों से प्रत्येक वर्ष उनके कार्यों से सम्बन्धित वार्षिक प्रतिवेदन एवं लेखे माँगने का अधिकार है। इसके अतिरिक्त संसद लोक उद्योगों से सम्बन्धित वित्त विधेयकों, अनुदान माँगों एवं उनके वार्षिक प्रतिवेदन पर अपनी स्वीकृति भी देती है।

  8. निगमों के अधिनियमों पर स्वीकृति

    लोक निगमों (Public Corporation) की स्थापना संसद द्वारा अधिनियम पास करके ही होती है।

  9. संसदीय समिति की नियुक्ति

    लोक उद्योगों पर अधिक प्रभावी नियन्त्रण के उद्देश्य से संसद द्वारा संसदीय समितियाँ नियुक्त की जाती हैं।

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