वित्त प्रशासन

वित्त प्रशासन

वित्त प्रशासन

(Finance Administration)

आधुनिक प्रशासनिक व्यवस्थाओं में ‘वित्त’ रक्त या ईंधन की भूमिका निर्वाहित करता है। लॉयड जॉर्ज ने कहा है—“जिसे शासन कहते हैं, वह वास्तव में वित्त ही है।” प्रशासन की प्रत्येक गतिविधि, कार्यक्रम, योजना तथा प्रक्रिया के कुशल संचालन के लिए वित्तीय संसाधनों की महती आवश्यकता है। वर्तमान शासन व्यवस्थाओं के समक्ष वित्तीय संसाधनों का प्रबन्ध तथा लोककल्याणकारी गतिविधियों का सफल कार्यान्वयन सबसे जटिल कार्य है क्योंकि वित्तीय स्रोतों के अभाव में शासकीय कार्य ठप्प पड़ जाते हैं जबकि वित्तीय संसाधनों में अभिवृद्धि करना अत्यन्त दुष्कर है। करों के आरोपण से धन एकत्र किया जा सकता है किन्तु करों में यत्किंचित वृद्धि भी आम जनता में रोष व्याप्त कर देती है।

वित्तीय प्रशासन का आशय लोक प्रशासन की उन गतिविधियों, संगठनात्मक प्रयासों तथा प्रक्रियाओं से है जो प्रशासनिक कार्यों हेतु धन के एकत्रण (आय), बजट निर्माण तथा निष्पादन एवं वित्तीय प्रक्रियाओं पर नियंत्रण कार्य करती हैं।” चूँकि यह व्यवस्था न्यूनाधिक मात्रा में प्रत्येक संगठन में पायी जा सकती है। अतः वित्तीय प्रशासन का स्वरूप सभी संगठनों में व्याप्त रहता है। वित्तीय प्रशासन का मुख्य कार्य मितव्ययिता, नियमानुसार व्यय, कार्य दक्षता, लेखा संधारण तथा वित्तीय नियमों एवं प्रक्रियाओं की अनुपालना करवाना है। स्थूल रूप से वित्तीय प्रशासन को छ: भागों में बाँटा जा सकता

  1. बजट तैयार करना जिसमें आय तथा व्यय का अनुमान हो।
  2. आय-व्यय (बजट) के इन अनुमानों को विधानमंडल से स्वीकृत कराना।
  3. स्वीकृत के अनुसार कर एकत्रित करना तथा व्यय करना।
  4. राजकोषीय व्यवस्था को बनाये रखते हुए सुरक्षा करना एवं धन निकालने की कार्यवाही करना।
  5. नियमानुसार लेखे संधारित करना तथा लेखा-परीक्षण कराना।
  6. मितव्ययिता, कार्यकुशलता तथा वित्तीय प्रबन्ध के क्रम में नवाचार करना।

भारत में वित्तीय प्रशासन

संघात्मक शासन व्यवस्था होने के कारण भारत में केन्द्र तथा राज्य, दोनों स्तरों पर वित्तीय प्रशासन विद्यमान है जो संचालित हो रहे प्रशासनिक तंत्र में अन्तर्निहित है। केन्द्रीय स्तर पर संसद तथा राज्यों में राज्य विधानमंडल बजट को स्वीकृति प्रदान करते हैं जबकि बजट का निर्माण तथा नियंत्रण कार्य वित्त मंत्रालय केन्द्रीय स्तर पर तथा राज्यों में राज्य वित्त विभाग करते हैं। नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक का पद संवैधानिक स्तर प्राप्त है जो प्रशासनिक तंत्र पर नियंत्रणकर्ता की भूमिका निभाता है ताकि लोक प्रशासन में सरकारी धन का दुरुपयोग न हो सके। संविधान के अनुच्छेद 280 के अन्तर्गत गठित होने वाला “वित्त आयोग केन्द्र तथा राज्यों के मध्य करों के बँटवारे के सम्बन्ध में प्रति पाँच वर्ष पश्चात् अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर, वित्तीय प्रशासन में अपनी अहम् भूमिका निभाता है। इसी प्रकार योजनाओं के लिए वित्तीय व्यवस्था संचालन में योजना आयोग की अहम् भूमिका है जबकि केन्द्रीय वित्त मंत्रालय, मंत्रिमंडल सचिवालय तथा प्रधानमंत्री कार्यालय वित्तीय कार्यक्रमों, कानूनों तथा नीतियों के निरूपण में निर्णायक सिद्ध होते हैं। वित्तीय प्रशासन में परामर्शकारी तथा नियंत्रणकारी भूमिका में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया का नाम भी अग्रणी है क्योंकि वित्तीय लेन-देन, ऋण, ब्याज, साख, प्रतिभूति इत्यादि रिजर्व बैंक की नीतियाँ अधिक प्रभावी रहती हैं।

भारत में वित्त प्रशासन : सम्बद्ध अंग

  1. राष्ट्रपतिसरकार का वार्षिक बजट संसद में प्रस्तुत कराने का दायित्व।
  2. प्रधानमंत्री तथा मंत्रिपरिषद् बजट का अंतिम प्रारूप तैयार कर संसद में प्रस्तुतीकरण तथा स्वीकृत कराना। नीति-निर्माण में शीर्षस्थ।
  3. व्यवस्थापिका सरकार द्वारा प्रस्तुत बजट को बहस के पश्चात् स्वीकृति देना।
  4. वित्त मंत्रालय समस्त विभागों से प्राप्त बजटीय अनुमानों को अन्तिम रूप देना। स्वीकृति के पश्चात् कार्यान्वयन एवं नियंत्रण। आय के साधन जुटाना।
  5. रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया वित्तीय लेन-देन की नीति एवं दिशा-निर्देश।
  6. वित्त आयोग केन्द्र द्वारा राज्यों को अनुदान, ऋण तथा करों के बँटवारे पर अनुशंसा।
  7. योजना आयोगयोजनाओं के लिए संसाधनों का अनुमान तथा बँटवारा।
  8. विश्व बैंक तथा अन्य प्रदत्त वित्तीय सहायता के साथ कुछ दिशा-निर्देश देना जिनकी अनुपालना भारत सरकार को करनी होती है।
  9. वित्तीय औद्योगिक एवं वाणिज्यिक समूह बजट, वित्तीय औद्योगिक, व्यापार इत्यादि नीति बनाते समय सरकार को परामर्श देना, जैसे—फिक्की।
  10. नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यह संवैधानिक निकाय सरकारी व्यय पर अंकेक्षण के माध्यम से नियंत्रण रखता है।
  11. संसदीय समितियाँ- लोक लेखा समिति, प्राक्कलन समिति, विषय समिति तथा सार्वजनिक उपक्रम समिति इत्यादि परामर्श देती हैं।
  12. राज्य प्रशासन राज्य सरकारों के वित्त विभाग केन्द्र से समन्वय करते हैं। भारत में वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल से 31 मार्च तक की अवधि का होता है। प्रति वर्ष केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारें अपना-अपना बजट विधानमंडल में स्वीकृत करा व्यय करने तथा कर एकत्रण की अनुमति प्राप्त करती हैं। वित्त मंत्रालय, उन वित्तीय मामलों पर नियंत्रण तथा नियमन करता है जो देश की समूची आर्थिक एवं वित्तीय परिस्थितियों को प्रभावित करते हैं। संविधान के अनुसार राजकीय कार्यों के लिए धन जुटाने तथा उसे व्यय करने के अधिकारों को केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच बांटा गया है। केन्द्र और राज्यों के राजस्व जुटाने के साधन मोटे तौर पर पृथक्-पृथक हैं। बहुत कम करों और शुल्कों का केन्द्र एवं राज्यों के मध्य बँटवारा होता है। संवैधानिक व्यवस्था यह है कि-
    1. कोई भी कर कानूनी अधिकार के बिना लगाया या वसूला नहीं जा सकता है।
    2. सरकारी निधियों से व्यय केवल संविधान में उल्लेखित विधियों से ही किया जा सकता है।
    3. केन्द्र के सम्बन्ध में संसद द्वारा और राज्यों के सम्बन्ध में राज्य विधानमंडलों या व्यवस्थापिका द्वारा निर्धारित पद्धति से ही कार्यकारी अधिकारी सरकारी धन का व्यय कर सकते हैं।

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