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विभागीय संगठन

विभागीय संगठन

विभागीय संगठन

(Departmental Organisation)

लोक उद्योगों के संचालन का प्राचीनतम स्वरूप विभागीय संगठन है। इस स्वरूप के अन्तर्गत संगठित उद्योगों का संगठन, संचालन, वित्तीय व्यवस्था तथा नियन्त्रण सरकारी विभागों के समान ही होता है। भारत में लोक उद्योगों की प्राम्भिक अवस्था में सरकार के प्रशासनिक कार्यों तथा सरकार द्वारा चलाये जाने वाले लोक उद्योगों के प्रशासन में कोई अन्तर नहीं था। वास्तव में संगठन का यह प्रारूप उतना ही पुराना है जितना कि आधुनिक सरकार । रेल, डाक व तार, सुरक्षा उद्योग आदि इस प्रारूप के प्राचीनतम उदाहरण हैं। विश्व के अधिकांश देशों में ये उद्योग आज भी विभागीय संगठन प्रारूप के अन्तर्गत चलाये जाते हैं। प्रो० हेन्सन के अनुसार, ‘विभागीय संगठन‘ लोक उद्योगों की स्थापना का वह संगठनात्मक प्रारूप है, जिसमें उपक्रम का पूर्ण स्वामित्व सरकार के पास रहता है और जिसका प्रबन्ध-संचालन किसी मन्त्रालय द्वारा या उसके किसी विभाग द्वारा या अन्तर्विभागीय समिति अथवा मण्डल द्वारा किया जाता है। लोक उद्योगों के अन्तर्गत विभागीय

विशेषताएँ

(Characteristics)

संगठन प्रारूप की प्रमुख विशेषताएँ लाभ एवं दोष निम्नलिखित विवेचन में वर्णित किये गये हैं-

  1. सरकार द्वारा विनियोग (Investment by Government)-

    विभागीय संगठन के अन्तर्गत संचालित लोक उद्योगों में सम्पूर्ण विनियोजन सरकार द्वारा ही किया जाता है। निजी विनियोजकों को इस प्रारूप के अन्तर्गत संचालित लोक उद्योगों में विनियोजन की अनुमति नहीं है।

  2. सरकार द्वारा वित्त प्रबन्ध (Financial Arrangement by Govt.)-

    इस संगठन के आधार पर संचालित लोक उद्योगों को वार्षिक वित्त की उपलब्धि सरकारी खजाने से प्राप्त होती है। इन उद्योगों को अपनी समस्त आय सरकारी खजाने में जमा करानी पड़ती है। इनकी वित्तीय आवश्यकता के लिए प्रति वर्ष संसद बजट पारित करती है।

  3. विशेष प्रावधान (Special Provision)-

    विभागीय संगठन पर आधारित उद्योगों पर कोई संस्था अथवा व्यक्ति उस समय तक वाद प्रस्तुत नहीं कर सकता जब तक कि वह ऐसा करने के लिये शासन की पूर्व अनुमति प्राप्त न कर लें।

  4. कर्मचारियों की नियुक्ति (Recruitment of Personnel)-

    विभागीय संगठन के अन्तर्गत संचालित लोक उद्योगों के प्रशासकीय पदों पर नियुक्त किये जाने वाले स्थायी कर्मचारी लोक सेवक(Civil Servants) होते हैं। इन कर्मचारियों की नियुक्ति किये जाने की विधि तथा कार्य दशाएँ (जिनके अन्तर्गत इनकी नियुक्ति होती है), सामान्यतः लोक सेवकों की सेवा-शर्तों के समान ही होती हैं।

  5. जवाबदेयता (Accountability)-

    इन उद्योगों का विभागीय प्रमुख (Departmental Head) सम्बन्धित मन्त्रालय का मन्त्री होता है। अतः सम्बन्धित विभाग का मन्त्री ही संसद के प्रति जवाबदेय होता है, जो उपक्रम की प्रगति, कार्य-प्रणाली, नीति आदि से संसद को अवगत करवाता है।

  6. अंकेक्षण एवं लेखाकर्म (Audit & Accounts)-

    इस प्रारूप के अन्तर्गत संचालित लोक उद्योगों की कार्य-प्रणाली सरकारी उद्योगों के समान ही होने के कारण सरकार के अन्य विभागों की तरह ही इन उपक्रमों में भी बजट, लेखा एवं अंकेक्षण सम्बन्धी नियम लागू होते हैं।

  7. नियन्त्रण (Control)-

    इन उद्योगों का संगठन सरकार के केन्द्रीय विभागों के उप-विभागों की भाँति ही होता है। ये उपक्रम विभागीय प्रमुख अथवा सम्बन्धित मन्त्रालय के मन्त्री के प्रत्यक्ष नियन्त्रण में संचालित होते हैं।

विभागीय संगठन के प्रकार

(Types of Department Organisation)

विभागीय संगठन प्रारूप के अन्तर्गत लोक उद्योगों की स्थापना एवं संगठन व्यवस्था निम्नांकित तीन प्रकार से की जा सकती है-

  1. मन्त्रालय स्वयं के अधीन (Controlled by Ministry Itself)-

    इस प्रकार के विभागीय संगठन किसी मन्त्रालय के हिस्से या अंग के रूप में नियन्त्रित न होकर स्वयं मन्त्रालय के अधीन संगठित एवं संचालित होते हैं। इसका उदाहरण भारतीय रेलवे (Indian Railway) है। इसका प्रबन्ध एवं नियन्त्रण रेलवे बोर्ड द्वारा होता है, जो रेल मन्त्रालय के रूप में कार्य करता है।

  2. मन्त्रालय के विभागाधीन (Controlled by a Ministry Department)-

    इस प्रकार के विभागीय संगठन किसी मन्त्रालय के अधीनस्थ के रूप में कार्य करते हैं। आर्डिनेन्स फैक्ट्रीज, चितरंजन लोकोमोटिव वर्क्स, इन्ट्रीगल कोच फैक्ट्री आदि इसके उदाहरण हैं।

  3. अन्तर्विभागीय समिति या मण्डल के अधीन (Controlled by an Inter-Departmental Committee or Board)-

    इस प्रकार के विभागीय संगठन के संचालन एवं नियन्त्रण हेतु विभिन्न मन्त्रालयों या विभागों के प्रतिनिधियों की समिति अथवा मण्डल को गठित किया जाता है।

विभागीय संगठन के उपर्युक्त वर्णित प्रकार पर जहाँ तक सरकारी नियन्त्रण का प्रश्न है, स्वयं सरकारी मन्त्रालय द्वारा नियन्त्रित तथा अन्तर्विभागीय समिति या मण्डल द्वारा नियन्त्रित उद्योग में कोई विशेष अन्तर नहीं है, परन्तु संगठन की व्यवस्था में विलम्ब तथा नौकरशाही के त्याग एवं प्रबन्ध में लोच, शीघ्र निर्णय तथा कार्य-प्रणाली में सरलता के दृष्टिकोण से इस प्रकार के उपक्रमों में अवश्य अन्तर दिखाई देता है। भाखरा नांगल, हीराकुण्ड परियोजना आदि अन्तर्विभागीय समिति संगठन प्रारूप के उदाहरण हैं।

विभागीय संगठन के लाभ

(Advantages of Department Organisation)

लोक उद्योगों के विभागीय संगठन प्रारूप को सामाजिक महत्व, जनहित एवं राष्ट्रीय सुरक्षा के उद्योगों की स्थापना के दृष्टिकोण से सर्वाधिक उपयुक्त समझा गया है। इस प्रारूप के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-

  1. पूर्ण सरकारी नियन्त्रण (Wholly Government Control)-

    विभागीय संगठन अपने कार्य-कलापों पर संसद तथा संसद के माध्यम से जनता को प्रभावशाली एवं पूर्ण नियन्त्रण का अवसर प्रदान करता है।

  2. धन का सदुपयोग (Best Utilisation of Funds)-

    इस प्रारूप के उद्योगों का बजट संसद द्वारा पारित किया जाता है। इनकी समस्त प्राप्तियों (Receipts) को सर्वप्रथम सरकारी खजाने में जमा कराना पड़ता है। इनके द्वारा खर्च की जाने वाली राशि को संसद स्वीकृति प्रदान करती है। इस प्रकार कोषों पर सरकार का श्रेष्ठतम नियन्त्रण होने के कारण धन का सदुपयोग सम्भव होता है।

  3. गोपनीयता (Secrecy)-

    इन उद्योगों पर सम्बन्धित मन्त्रालय का प्रत्यक्ष नियन्त्रण होता है। अतः इन उद्योगों का मन्त्रालय ही प्रत्येक बात से अवगत रहता है। यद्यपि संसद में सम्बन्धित उद्योग के मन्त्री से उद्योग के कार्य-कलापों के सम्बन्ध में प्रत्येक जानकारी प्राप्त की जा सकती है, किन्तु सम्बन्धित मन्त्री, यदि ऐसा किया जाना वह आवश्यक समझे तो जनहित एवं राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से उन बातों को गोपनीय रख सकता है। संसद उसे ऐसी जानकारी देने के लिए बाध्य नहीं कर सकती है। गोपनीयता के इस गुण के कारण ही जनहित, सुरक्षा एवं अणु शक्ति का निर्माण करने वाले उद्योगों के लिये यह प्रारूप सर्वथा उपयुक्त है।

  4. सार्वजनिक जवाबदेयता (Public Accountability)-

    यद्यपि इन उद्योगों का प्रशासनिक उत्तरदायित्व राजनीतिज्ञ के हाथों में होता है लेकिन प्रशासनिक कार्यों का संचालन लोक सेवकों द्वारा किया जाता है। ये प्रशासनिक अधिकारी एक तरफ विभागीय संगठन पर राजनीतिक प्रभाव को न्यूनतम करके कार्य-कुशलता का उच्च स्तर स्थापित करते हैं तथा दूसरी तरफ सम्बन्धित मन्त्री की सांसदों के प्रश्नों के बौछार से रक्षा करके सार्वजनिक जवाबदेही का निर्वाह करते हैं। अतः विभागीय संगठन उच्च स्तर की सार्वजनिक जवाबदेही तथा कार्य-संचालन कुशलता की उपलब्धि करता है।

  5. कुशल एवं नियमित व्यवस्था (Efficient and regularise Arrangement)-

    विभागीय संगठन के अन्तर्गत संचालित लोक उद्योगों की स्थापना के बाद इनका प्रबन्ध, संचालन तथा नियन्त्रण पूर्व निर्धारित सरकारी नियमों द्वारा होता है। इन पूर्व में निर्धारित नियमों के कारण विभागीय संगठन की प्रबन्ध व्यवस्था में किसी प्रकार शिथिलता तथा असमंजत की स्थिति उत्पन्न नहीं होती है। इस प्रकार इन उद्योगों का कार्य कुशलतापूर्वक नियमित तरीके से सम्पन्न होता है।

  6. विकासमान उद्योगों के लिये उपयुक्त (Suitable for developing Industries)-

    विभागीय संगठन प्रारूप उन उद्योगों के लिये अत्यन्त उपयुक्त माना गया है जो या तो विकास की प्रारम्भिक अवस्था में हैं अथवा जिनका विकास पूर्णतः नहीं हो पाया है। यह प्रारूप ऐसे उद्योगों के लिये भी उपयुक्त है, जो यद्यपि हानि पर चल रहे लेकिन जिनकी विद्यमानता किन्हीं कारणों से आवश्यक है।

विभागीय संगठन के दोष

(Disadvantages of Departmental Organisation)

लोक उद्योगों के विभागीय संगठन प्रारूप की असामान्य विशेषताओं के कारण इनके कार्य-संचालन में अनेक कमजोरियों तथा बुराइयों की उत्पत्ति होती है। अतः औद्योगिक एवं व्यवसायिक प्रकृति के लोक उद्योगों के संगठन हेतु इस प्रारूप को अनुपयुक्त समझा जात है। विभागीय संगठन के प्रमुख दोष निम्नांकित हैं-

  1. कठोर वित्तीय नियन्त्रण (Rigid Financial Control)-

    विभागीय संगठन पर आधारित लोक उद्योगों पर कठोर वित्तीय नियन्त्रण होता है। विभागीय संगठन की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति सरकारी खजाने के वार्षिक विनियोजन द्वारा होती है तथा इसकी समस्त आय को सरकारी खजाने में जमा कराना पड़ता है। ये उद्योग अधिकांशतः जनहित कार्यों में संलग्न होते हैं। अतः इन उद्योगों द्वारा पूर्ति की जाने वाली वस्तु अथवा सेवाओं पर किये जाने वाले खर्चों में उपभोक्ताओं की माँग के अनुरूप उतार-चढ़ाव सम्भव है। अतः इन खर्चों को पूर्व अनुमानित कर सकना अथवा वार्षिक बजट सीमा में रखना सम्भव नहीं होता है। इस प्रकार के कठोर वित्तीय नियन्त्रण के कारण इन संगठनों का भली-भाँति संचालित होना संदिग्ध है।

  2. लेखा एवं अंकेक्षण नियन्त्रण (Accounts and Audit Control)-

    इस प्रकार के संगठन में लेखा पालन एवं अंकेक्षण नियन्त्रण के नियम उसी प्रकार लागू होते हैं, जैसे कि सरकारी विभागों पर लागू होते हैं, किन्तु इस प्रकार के अधिकांश उद्योग औद्योगिक तथा व्यावसायिक प्रकृति के हैं। अतः सरकारी अंकेक्षक के लिये यह सम्भव नहीं होता कि वह व्यावसायिक सोच, नियमबद्धता एवं कार्य-पद्धति के अनुसार स्वयं को समायोजित कर लें। इस प्रकार ऐसे संगठन पर कारगर अंकेक्षण विधि का क्रियान्वयन असम्भव है।

  3. अधिकारों का केन्द्रीयकरण (Centralisation of Authority)-

    ऐसे उपक्रमों पर अधिकतम सरकारी नियन्त्रण लागू होते हैं। कुछेक प्रमुख अधिकारियों के पास अधिकारों का केन्द्रीयकरण होने का परिणाम संगठन की लोच, पहल शक्ति तथा शीघ्र निर्णय के विनाश के रूप में दिखलाई देती है। अतः यह प्रारूप लोक उद्योगों के संचालन हेतु आवश्यक लोच प्रदान करने में असमर्थ है।

  4. लालफीताशाही (Red tapism)-

    विभागीय संगठन पर लालफीताशाहीकी विद्यमानता, विलम्ब पूर्व निर्णय तथा उपभोक्ता सेवाओं की उपलब्धि में अपर्याप्तता एव असंवेदनशीलता(Insensitiveness) का भी दोषारोपण किया जाता है। इस प्रकार के संगठनों की कठोर नियमों में संलग्नता अनेक बार ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देती है जब नियम दरअसल सेवक न रहकर स्वामी बन जाते हैं। किसी उपक्रम के सफलतम संचालन हेतु व्यक्तिगत प्रेरणा एवं निर्णय की सर्वप्रमुख आवश्यकता का विभागीय संगठन में नितान्त अभाव होता है। संगठन का प्रत्येक अधीनस्थ अधिकारी स्वयंमेव निष्टिस समय तथा शीघ्र निर्णय लेने की बजाय ऊपर से आदेशों तथा निर्देशों की प्रतीक्षा करता है।

  5. योग्य एवं अनुभवी व्यक्तियों का अभाव (Lack of Capable and Experienced Persons)-

    भारत जैसे विकासशील देश में सामान्यतः ऐसे अनुभव तथा पूर्णतः योग्य व्यक्तियों का नितान्त अभाव है जो इन लोक उद्योगों का प्रबन्ध कर सकें। इन उद्योगों के प्रबन्ध के लिये लोक सेवकों (Civil servants) की नियुक्ति की जाती है, जिनमें प्रशासकीय योग्यता के अतिरिक्त प्रशिक्षण एवं व्यावसायिक योग्यता का नितान्त अभाव होता है। इन सभी बुराइयों के कारण विभागीय संगठन में कुप्रबन्ध का विकास होता है।

  6. स्थानान्तर (Transfer)-

    विभागीय संगठन के आधार पर चलने वाले लोक उद्योगों में कार्य करने वाले व्यक्तियों का समय-समय पर स्थानान्तरण होता रहता है। इस प्रकार की स्थानान्तरण नीति के कारण कर्मचारियों में संगठन के प्रति अपनत्व की भावना का विकास नहीं हो पाता। इसके अतिरिक्त सरकार की लोक सेवकों को बार-बार एक कार्य से दूसरे कार्य पर हस्तान्तरण की नीति व्यावसायिक उपक्रम के लिये उपयुक्त नहीं है।

  7. कठोर संसदीय नियन्त्रण (Strict Parliamentary Control)-

    विभागीय संगठन प्रारूप पर संसद का कठोर नियन्त्रण होता है। अतः सम्बन्धित विभाग के मन्त्री तथा अधिकारीगण सदैव संसदीय पूछताछ के अधिकार से दबे रहते हैं। वे सदैव यह सोचते रहते हैं कि इन पूछताछों में अपने पक्ष को किस प्रकार प्रबल बनाये रखा जा सकता है। अतः मन्त्री तथा अधिकारियों के पास उपक्रम के नीति सम्बन्धी प्रश्नों पर विचार के लिये बहुत ही कम समय रह पाना सम्भव होता है।

  8. संसद के प्रति उत्तरदायित्व (Accountability to Parliament)-

    इन उपक्रमों पर संसद का कठोर नियन्त्रण होने के कारण उपक्रम की संसद के प्रति जवाबदेयता का निर्वाह भी इन उपक्रमों की स्वायत्तता को प्रभावित करता है। संसद में सम्बन्धित मन्त्री तथा सम्बन्धित अधिकारियों से उपक्रम के कार्य संचालन के सम्बन्ध में प्रश्नों के उत्तरों की अपेक्षा की जाती है। अतः मन्त्री उपक्रम के दिन-प्रतिदिन के प्रशासन में हस्तक्षेप करता रहता है, जो प्रबन्धकों की वाणिज्यिक स्वतन्त्रता को नुकसान पहुंचाता है।

  9. जनता पर वित्तीय भार (Financial burden on Public)-

    विभागीय उपक्रम प्रकृति से व्यावसायिक तथा औद्योगिक आवश्यक होते हैं लेकिन इनका संचालन व्यावसायिक सिद्धान्तों पर न होकर सरकारी नीतियों के आधार पर होता है। इसके अतिरिक्त उपक्रमों में लालफीताशाही एवं नौकरशाही की बहुतायत तथा निजी हित एवं योग्य कर्मचारियों का अभाव तथा राजनैतिक दलों की स्वार्थ-सिद्धि की नीति आदि दोनों का भी वर्चस्व होता है। इन सभी दोषों का कुल प्रभाव उपक्रम के कार्य संचालन पर विपरीत पड़ता है। इन बुराइयों के कारण ही उपक्रमों को भारी हानि उठानी पड़ती है, जिसे विभागीय बजट से अपलिखित किये जाने के कारण जनता पर करभार में वृद्धि होती है।

यद्यपि विभागीय संगठन प्रारूप में उपर्युक्त वर्णित कमजोरियाँ तथा बुराइयाँ विद्यमान हैं लेकिन इनके बावजूद भी इस प्रारूप को उन गतिविधियों के संचालन हेतु उपयुक्त तथा आवश्यक स्वीकार किया गया है, जिनका संचालन सरकार द्वारा आय प्राप्त करने के लिये किया जाए अथवा जिन्हें सैनिक रूप में महत्वपूर्ण समझा जाय। इस प्रारूप को सामान्य तथा आपातिक समय में आर्थिक गतिविधियों पर पूर्ण नियन्त्रण स्थापित करने हेतु भी उपयुक्त समझा जाता है। प्राकलन समिति (Estimates Committee) ने भी सुझाव दिया है कि, “सुरक्षा से सम्बन्धित उद्योग तथा जिन उद्योगों पर वित्तीय नियन्त्रण की अधिक आवश्यकता है, उन्हें इसी प्रकार के आधार पर चलाया जाना चाहिए।”

उपर्युक्त वर्णित विभागीय संगठन प्रारूप के अन्तर्गत स्थापित लोक उद्योगों के अतिरिक्त सामान्यतः किसी उद्योग अथवा वाणिज्यिक सेवा के संचालन हेतु इस प्रारूप को अनुपयुक्त समझा जाता है। डॉ० प्रसाद के विचार से सरकार के विभागीय कार्यों तथा व्यापार के कार्यों में बड़ा अन्तर है। श्री ए० डी० गोरवाला ने तो विभागीय संगठन की निरर्थकता के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए यहाँ तक कह दिया कि, “विभागीय प्रारूप प्रणाली का उपयोग अपवाद स्वरूप ही होना चाहिए, एक सामान्य नियम के रूप में नहीं।” प्रथम पंचवर्षीय योजना के समय योजना आयोग ने स्वयं स्वीकार किया कि, “लोक उद्योग संगठन प्रारूप में विभागीय प्रबन्ध के दोष सर्वविदित हैं। इण्डियन टेलीफोन इण्डस्ट्रीज, भारत इलेक्ट्रोनिक्स तथा निवेल्ली लिग्नाइट का विभागीय प्रबन्ध से सरकारी कम्पनी के रूप में तथा आयरल एण्ड नेचुरल गैस कमीशन का विभागीय प्रबन्ध से सार्वजनिक निगम के रूप में परिवर्तन किया जाना स्वयं इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि सरकार भी इस बात को अनुभव करती है कि औद्योगिक उपक्रमों के लिये विभागीय प्रबन्ध उपयुक्त नहीं है।

श्री शर्मा ने विभागीय संगठन की विश्व प्रसिद्धि का विवेचन करते हुए लिखा है कि, “इस प्रकार के संगठन पर कड़े हमलों तथा कड़ी आलोचनाओं के बाद भी यह संगठन अनेक राष्ट्रों में डाक-तार सेवाओं, रेल उद्योग एवं राष्ट्रीयकृत उद्योगों के संचालन हेतु मुख्य उपकरण बना हुआ है। ब्रिटेन, जर्मनी तथा भारत में डाक-तार सेवाओं का संचालन इसी प्रारूप के अन्तर्गत होता है। स्वीडन में रेलवे तथा न्यूजीलैण्ड में राष्ट्रीयकृत उद्योगों का संचालन सरकारी विभागों द्वारा ही किया जाता है। अमेरिका में तो जब तक कोई अत्यधिक तकनीकी कारण न हो, विभागीय संगठन प्रारूप को ही अधिक प्रसन्द किया जाता है।” अतः यह कहा जा सकता है कि आवश्यकता इस प्रारूप को समाप्त किये जाने की नहीं वरन् इस प्रारूप में व्याप्त दोषों को दूर करने की है।

प्रो० डिमोक का भी विचार है कि “अधिक स्वायत्तता तथा लोच की दृष्टि से यदि विभागों में पर्याप्त सुधार कर दिया जाय तो सार्वजनिक निगमों की स्थापना करने का कोई औचित्य न होगा।’

विभागीय संगठन प्रारूप में सुधार

विभागीय संगठन के उपर्युक्त दोषों एवं आलोचनाओं के उपचार हेतु विभागीय ढाँचे एवं कार्य-पद्धति में सुधार किये गये हैं। इन सुधारों के कारण इस प्रारूप के विरुद्ध आलोचनाओं में कुछ कमी हुई है। सम्भवतः विभागीय संगठन की सर्वप्रमुख आलोचना इस पर विद्यमान कठोर वित्तीय नियन्त्रण को लेकर की जाती है। विभागीय संगठन की इस बुराई के उपचारस्वरूप एक चक्राकार दोष (Revolving Funds) की योजना लागू की गई है। अब विभागीय संगठन पर संचालित लोक उद्योगों को प्राप्त आय को एक कोष में जमा कराया जाता है। इस कोष से यह उपक्रम उद्देश्य के लिये राशि निकाल सकता है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य विद्यमान प्रावधानों में भी कुछ सुधार किये गये हैं, जो निःसन्देह सराहनीय हैं। ये सुधार निम्नलिखित हैं-

  1. शीघ्र निर्णय का गुण संगठन में उत्पन्न करने के लिये विभिन्न मन्त्रालयों के प्रतिनिधियों की समितियाँ अथवा बोर्ड बनाये गये हैं।
  2. कम्पट्रोलर तथा ऑडिटर जनरल को अंकेक्षण के समय तथा स्थान में परिवर्तन का अधिकार दिया गया है, जिससे संस्था का व्यापक अंकेक्षण सम्भव हो सके।
  3. अंकेक्षण व लेखापालन को अलग कर दिया गया है।
  4. अनेक देशों द्वारा इस प्रारूप के अन्तर्गत चल रहे उद्योगों को कुछ समय के लिये अनेक नियमों के पालन मुक्ति प्रदान कर दी गई है।

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