(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});

राष्ट्रीय विकास परिषद

राष्ट्रीय विकास परिषद

राष्ट्रीय विकास परिषद की आवश्यकता

(Need of National Development Council)

आर्थिक नियोजन ने हमारी संघीय राज-व्यवस्था को अत्यधिक प्रभावित किया है। प्रो० ए० एच० हेनसन का कहना है कि भारतीय संविधान निर्माताओं ने नियोजन को केन्द्र एवं राज्यों के मध्य समायोजन की व्यवस्था भले ही माना हो, किन्तु उनकी यह आकांक्षा साकार नहीं हो पायी। प्रत्येक राज्य नियोजन के लिए अधिक से अधिक साधन प्राप्त करने हेतु प्रतिस्पर्धा करने लगा, योजनाओं के निर्माण में राज्यों का सहयोग अत्यन्त सीमित रहा। वित्तीय सहायता के लिए राज्य केन्द्र पर अधिक निर्फर होते गये। सामाजिक और आर्थिक सेवाओं के विस्तार के प्रश्न पर योजना आयोग एवं राज्यों के मध्य संघर्ष उत्पन्न हुआ। अतः एक ऐसे राष्ट्रीय मंच की आवश्यकता महसूस की गयी जहाँ योजना आयोग के सदस्य तथा केन्द्रीय सरकारों के प्रतिनिधि एकत्र होकर पंचवर्षीय योजनाओं के बारे में उच्च स्तरीय निर्णय ले सकें। प्रो० ए० अवस्थी लिखते हैं कि “राष्ट्रीय स्तर पर योजना बनाने का प्रयत्न करते समय सबसे महत्वपूर्ण समस्या यह उत्पन्न होती है कि भारतीय संघ में समाविष्ट स्वायत्त राज्यों की नीतियों तथा कार्यक्रमों में समन्वय कैसे स्थापित किया जाये? समन्वय करने वाले ऐसे किसी अभिकरण के लिए संविधान में कोई प्रबन्ध नहीं किया गया है। नियोजन की प्रक्रिया सम्बन्धी इस कमी को पूरा करने के लिए ही सन् 1952 में राष्ट्रीय विकास परिषद् की रचना की गयी थी। डॉ० सी० पी० भाम्भरी ने भी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए लिखा है कि योजना सम्बन्धी मामलों में केन्द्र तथा राज्यों के मध्य समायोजन की स्थापना के लिए राष्ट्रीय विकास परिषद् की स्थापना की गयी है।

राष्ट्रीय विकास परिषद के उद्देश्य

(N.D.C. Aims & Objectives)

परिषद की स्थापना करने वाली सरकारी आदेश के अनुसार राष्ट्रीय विकास परिषद् के उद्देश्य हैं योजना के समर्थन में राज्यों के साधनों तथा प्रयत्नों का उपयोग करना और उन्हें शक्तिशाली बनाना, सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सामान्य आर्थिक नीतियों की उन्नति करना तथा योजना आयोग की सिफारिश पर देश के सभी भागों का सन्तुलन तथा त्वरित विकास निश्चित करना। संक्षेप में, इसकी स्थापना के निम्नांकित तीन मुख्य उद्देश्य दर्शाये हैं।

  1. योजना की सहायता के लिए राष्ट्र के स्रोतों तथा परिश्रम को सुदृढ़ करना तथा उनको गतिशील करना।
  2. सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में समरूप आर्थिक नीतियों के अपनाने को प्रोत्साहित करना।
  3. देश के सभी भागों के तीव्र तथा सन्तुलित विकास के लिए प्रयास करना।

वस्तुतः राष्ट्रीय विकास परिषद् के माध्यम से राज्यों का सहयोग उच्चतम राजनीतिक स्तर पर प्राप्त किया जाता है। इससे दृष्टिकोण की समानता तथा आम सहमति की धारणा के विकास में सहायता मिलती है।

राष्ट्रीय विकास परिषद् की रचना

(Composition of N.D.C.)

राष्ट्रीय विकास परिषद् में प्रधानमन्त्री, योजना आयोग के सभी सदस्य, सभी राज्यों के मुख्यमन्त्री, संघ शासित क्षेत्रों के प्रतिनिधि तथा भारत सरकार के प्रमुख विभागों के कुछ मंत्री सम्मिलित होते हैं। यदि कोई मुख्यमन्त्री परिषद् की बैठक में उपस्थित होने में असमर्थ होता है तो वह अपना अभिकर्ता भेज सकता है। इसके अतिरिक्त इनमें वे मन्त्री भी आमन्त्रित किये जाते हैं जिनमें मन्त्रालयों से सम्बन्धित विषय इसकी कार्यसूची में सम्मिलित रहते हैं। प्रधानमन्त्री इस परिषद् का अध्यक्ष होता है। सन् 1956 के राज्य पुनर्गठन से पूर्व परिषद् की सदस्य संख्या लगभग 50 थी, क्योंकि कुल मिलाकर अ, ब, स राज्यों की संख्या ही 28 थी। इस प्रकार अधिक सदस्य संख्या के कारण एक सुदृढ़ निकाय के रूप में वाद-विवाद के लिए परिषद् की उपयोगिता कम हो गयी है। इसके फलस्वरूप नवम्बर, 1954 में परिषद् की एक स्थायी समिति का निर्माण किया गया। इस समिति में लगभग 30 सदस्य थे, जिनमें प्रधानमन्त्री, योजना आयोग के सदस्य तथा राज्यों से केवल 9 चयनित मुख्यमंत्री थे।

प्रशासनिक सुधार आयोग ने सन् 1967 में अपने एक अध्ययन दल को राष्ट्रीय विकास परिषद् के कार्य की समीक्षा करने और भविष्य में इसे अधिक प्रभावशाली बनाने के उपायों के सम्बन्ध में सुझाव देने को कहा था। इस अध्ययन दल द्वारा प्रेषित सुझावों को प्रशासनिक सुधार आयोग ने और बाद में भारत सरकार ने कुछ मामूली संशोधनों के साथ 7 अक्टूबर, 1967 को स्वीकार कर लिया। इन संशोधनों के अनुसार पुनर्गठित राष्ट्रीय परिषद के सदस्य प्रधानमन्त्री, संघीय मन्त्रिमण्डल के सभी मन्त्री, सब राज्यों और संघीय प्रदेशों के मुख्यमन्त्री और योजना आयोग के सदस्य बनाये गये। इस प्रकार इनकी सदस्यता को पहले की अपेक्षा अधिक विस्तृत और व्यापक बनाया गया, क्योंकि पहले इसमें केवल प्रधानमन्त्री, राज्यों के मुख्यमन्त्री और योजना आयोग के सदस्य ही सम्मिलित होते थे। इसमें केन्द्र द्वारा शासित दिल्ली प्रशासन का प्रतिनिधित्व इसके उपराज्यपाल और प्रमुख कार्यकारी पार्षद द्वारा किया जाता है। नवीन व्यवस्था के अनुसार परिषद् की बैठकों में भाग लेने के लिए संघ और राज्यों के अन्य मन्त्रियों को भी बुलाया जा सकता है। योजना आयोग का सचिव राष्ट्रीय विकास परिषद् का सचिव होता है। परिषद की बैठकें साधारणतः वर्ष में दो बार होती हैं, किन्तु इस सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं है। अनेक अवसरों पर वर्ष में इसकी दो से अधिक बैठकें हुई हैं। इसकी कार्यविधि योजना आयोग के सचिवालय द्वारा तैयार की जाती है। उसमें राष्ट्रीय महत्व के ऐसे विषय सम्मिलित रहते हैं जिन पर राज्यों से विचार ज्ञात करना आवश्यक होता है। इसकी बैठकों में प्रत्येक विषय पर स्वतन्त्र रूप से खुलकर चर्चा होती है और निर्णय प्रायः सर्वसम्मति से होते हैं।

राष्ट्रीय विकास परिषद् के कार्य

(Functions Of The N.D.C.)

राष्ट्रीय विकास परिषद् के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं-

  • राष्ट्रीय योजना की प्रगति पर समय-समय पर विचार करना,
  • राष्ट्रीय विकास को प्रभावित करने वाली आर्थिक तथा सामाजिक नीतियों सम्बन्धी विषयों पर विचार करना,
  • राष्ट्रीय योजना के निर्धारित लक्ष्यों व उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सुझाव देना।

परिषद् के कार्यों में सन् 1976 में भी कुछ संशोधन किये हैं अब इसके संशोधित कार्य निम्नलिखित हैं-

  • राष्ट्रीय योजना के निर्माण के लिए तथा इसके साधनों के निर्धारण के लिए पथ प्रदर्शक सूत्र निश्चित करना।
  • योजना आयोग द्वारा तैयार की गयी राष्ट्रीय योजना पर विचार करना ।
  • राष्ट्रीय विकास को प्रभावित करने वाली सामाजिक तथा आर्थिक नीति के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार करना।
  • समय-समय पर योजना के कार्य की समक्षा करना तथा राष्ट्रीय योजना में प्रतिपादित उद्देश्यों तथा कार्य-लक्ष्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक उपायों की सिफारिश करना।

इन नवीन परिवर्तनों से अब राष्ट्रीय विकास परिषद् का महत्व पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ गया है, क्योंकि अब राष्ट्रीय योजना के निर्माण के लिए पथ प्रदर्शक तत्व परिषद् द्वारा प्रतिपादित और निश्चित किये जाते हैं। नवीन व्यवस्था के अनुसार अब योजना अपनी योजना इसके अनुसार ही बनाता है, इस प्रकार अब राष्ट्रीय विकास परिषद् शासन में नीति निर्धारण करने वाली सर्वोपरि और महत्वपूर्ण संस्था बन गयी।

राष्ट्रीय विकास परिषद् : क्या उच्चतम मन्त्रिमण्डल है?

(N.D.C. Super Cabinet)

के० संथानाम के राष्ट्रीय विकास परिषद् की भूमिका का विश्लेषण करते हुए इसे उच्चतम मन्त्रिमण्डल (सुपर कैबिनेट) की संज्ञा दी है। अर्थात् परिषद् में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल के सदस्य एवं राज्यों के मुख्यमंत्री मिल-जुलकर नीति सम्बन्धी निर्णय लेते हैं और उन निर्णयकों को केन्द्र एवं राज्यों की सरकारें ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लेती हैं। राष्ट्रीय विकास परिषद् के अस्तित्व में आने से नीति निर्माता के रूप में केन्द्र एवं राज्यों के मन्त्रिमण्डलों का दर्जा घटता गया है। अब महत्वपूर्ण आर्थिक निर्णय योजना आयोग तथा विकास परिषद् ही लेती है। आर्थिक नीति सम्बन्धी महत्वपूर्ण प्रश्नों के निर्धारण में विकास परिषद् की भूमिका को देखते हुए इसको एक ‘सर्वोपरि मन्त्रिमण्डल’ कहा गया है। अशोक चन्दा के अनुसार, “योजना आयोग तथा राष्ट्रीय विकास परिषद् के साथ मन्त्रिमण्डलों के आंशिक परिचय ने सांविधानिक स्थिति को विकृत कर दिया है।

फिर भी इस व्यवस्था की प्रशंसा ही की गयी है। प्रो० हेनसन ने लिखा है कि “भारतीय व्यवस्था का प्रमुख गुण यह है कि उसने योजना को राजनीतिक स्वरूप प्रदान किया है। योजना निर्माण में केन्द्रीय मन्त्रियों एवं राज्यों के प्रतिनिधियों की उपेक्षा नहीं की गयी है।” राष्ट्रीय विकास परिषद् की बैठकों में राज्यों के मुख्यमन्त्री खुले तौर से अपने दृष्टिकोण प्रस्तुत करने लगे हैं और संघीय केन्द्रीयकरण के बावजूद योजना का क्रियान्वयन चाहे वह कानून द्वारा हो या प्रशासकीय कार्यवाही द्वारा हो, राज्यों के हाथों में है। फिर, केन्द्र और राज्यों के मन्त्रिमण्डलों की सांविधानिक स्थिति, भूमिका और शक्ति में कोई परिवर्तन नहीं आया है। केन्द्र और राज्यों के मन्त्रिमण्डल आज भी नीति निर्माता निकाय के रूप में संविधान के केन्द्र बिन्दु हैं।

राष्ट्रीय विकास परिषद् : समायोजन का प्रतिष्ठित मंच

(N.D.C. A Platform for Co-ordination)

निष्कर्षतः राष्ट्रीय विकास परिषद् संघ प्रणाली में संघीय सरकार, योजना आयोग तथा राज्य सरकारों के मध्य समायोजन का प्रतिष्ठित मंच है। यह सच है कि यह न तो सांविधानिक निकाय है और न सविधिक ही है। इसकी सिफारिशें किसी पर बन्धनकारी नहीं हैं और इसकी स्थिति योजना आयोग के मन्त्रणा निकाय जैसी है। सांविधानिक और कानूनी सत्ता के अभाव में भी इसका स्वरूप और संगठन इसे विशिष्ट स्थिति और गरिमा प्रदान करता है। इसकी सिफारिशें केन्द्रीय और राज्य सरकारों द्वारा बड़े सम्मान के साथ स्वीकार की जाती है। वस्तुतः विकास परिषद् ने भारत की योजनाओं को सच्चा राष्ट्रीय रूप प्रदान करने में बड़ी सहायता की है। परिषद् भारतीय राजनीति में एक मध्यस्थ के रूप में, केन्द्र और राज्यों के बीच एक संचार माध्यम के रूप तथा राजनीतिक व्यवस्था में विभिन्न शक्तियों के बीच समीकरण बनाये रखने के उपकरण के रूप में ख्याति अर्जित करती जा रही है।

सरकारिया आयोग का भी सुझाव है कि राष्ट्रीय विकास परिषद् को अधिक प्रभावी बनाया जाना चाहिए ताकि वह केद्र और राज्य सरकारों के बीच राजनीतिक स्तर की सर्वोच्च संस्था हो सके। आयोग ने केन्द्र-राज्य सम्बन्धों पर अपनी रिपोर्ट में देश के योजनाबद्ध विकास को दिशा देने के लिए परिषद् को और प्रभावी बनाने की आवश्यकता व्यक्त करते हुए सुझाव दिया है कि इसका पुनर्गठन करके नाम बदलकर ‘राष्ट्रीय आर्थिक एवं विकास परिषद् कर दिया जाए।

महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: wandofknowledge.com केवल शिक्षा और ज्ञान के उद्देश्य से बनाया गया है। किसी भी प्रश्न के लिए, अस्वीकरण से अनुरोध है कि कृपया हमसे संपर्क करें। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे। हम नकल को प्रोत्साहन नहीं देते हैं। अगर किसी भी तरह से यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है, तो कृपया हमें wandofknowledge539@gmail.com पर मेल करें।

About the author

Wand of Knowledge Team

Leave a Comment

error: Content is protected !!