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सार्वजनिक निगम की लाभ-हानियाँ

सार्वजनिक निगम की लाभ-हानि

सार्वजनिक निगम के लाभ

(Advantage of Public Corporation)

सार्वजनिक निगम से प्राप्त लाभों के कारण पश्चिम में अनेक देशों के निर्माणकारी तथा अन्य राष्ट्रीयकृत उद्योगों को प्रबन्ध का स्वायत्तशासी प्रतिरूप (Autonomous Pattern) प्रदान करने के लिये सार्वजनिक निगम के रूप में स्थापित किया गया है। इंग्लैण्ड, अमेरिका, फ्रांस तथा कनाडा में लोक उद्योगों के प्रारूप में सार्वजनिक निगम प्रारूप अग्रणी है। अमेरिका में टेनेसी वैली आथोरिटी (T.V.A) सार्वजनिक निगम का सर्वाधिक प्रचलित उदाहरण है। स्वतन्त्रता से पूर्व सिवाय रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया (R.B.I.) के अतिरिक्त भारत में अन्य कोई सार्वजनिक निगम नहीं था, भारत में सार्वजनिक निगमों का विकास स्वतन्त्रता के पश्चात् ही हुआ है। 1947 के पश्चात् व्यापारिक क्रियाओं में हस्तक्षेप तथा तीव्र गति से आर्थिक विकास के उद्देश्य से अनेक सार्वजनिक निगमों की स्थापना की गई है। सार्वजनिक निगम के निम्नलिखित लाभ हैं-

  1. अधिक स्थायी अस्तित्व (Long-term Existence)-

    सार्वजनिक निगमों का निर्माण संसद के विशेष अधिनियम के द्वारा होता है। अतः इनका अस्तित्व अधिक स्थायी तथा दीर्घजीवी होता है। सरकार अथवा सरकारी नीतियों में परिवर्तन का भी सार्वजनिक निगम की नीतियों एवं अस्तित्व पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता।

  2. स्वायत्तता (Autonomy)-

    सार्वजनिक निगम पूर्णतः स्वायत्तशासी संस्था होती है। इनका प्रबन्ध एवं कार्य-संचालन इनको जन्म देने वाले विशेष अधिनियम से नियन्त्रित होता है। अतः इनका आन्तरिक प्रबन्ध एवं वित्तीय मामले राजकीय नियमों एवं बन्धनों से पूर्णतः मुक्त होते हैं। सरकारी उद्योगों की भाँति नौकरशाही तथा लालफीताशाही आदि अवगुण भी सार्वजनिक निगम में नहीं होते। अतः निर्णय लेने में अनावश्यक विलम्ब नहीं लगता है।

  3. संयुक्त लाभ (Joint Benefit)-

    सार्वजनिक निगमों को निजी प्रबन्ध एवं सरकारी अधिकार एवं नियन्त्रण, दोनों के लाभ प्राप्त होते हैं। इनके दिन-प्रतिदिन के कार्यकलापों में किसी प्रकार का शासकीय हस्तक्षेप नहीं होता है। सार्वजनिक निगमों को प्राप्त होने वाले लाभों का उल्लेख करते हुये प्रेसीडेण्ट रूजवेल्ट ने कहा था कि, “सार्वजनिक निगम सरकारी अधिकारों का जामा पहने हुये होते हैं तथा इनमें निजी उपक्रमों की भाँति लोच एवं पहल शक्ति का गुण विद्यमान है।”

  1. स्वतन्त्र वित्तीय व्यवस्था (Independent Financial Management)-

    सार्वजनिक निगम अपने वित्तीय मामलों में पूर्णतः स्वतन्त्र होते हैं, इन्हें अन्य लोग उद्योगों (जैसे-विभागीय संगठन) की तरह अपनी प्राप्तियाँ सरकारी खजाने में जमा नहीं करानी पड़ती है। इनका देश के बजट से भी कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता है। सरकार इन निगमों की आय-व्यय के सम्बन्ध में भी किसी प्रकार का विशेष हस्तक्षेप नहीं करती हैं। इन निगमों द्वारा अर्जित लाभ का सम्पूर्ण अथवा कुछ भाग सरकारी खजाने में अवश्य जमा कराया जाता है, किन्तु निगम अपनी आवश्यकतानुसार इसे पुनः प्राप्त भी कर सकता है।

  2. विशेषज्ञों की सेवाओं का लाभ (Advantage of Expert’s Services)-

    सार्वजनिक निगमों का आकार बड़ा होने के कारण निगम अपने संचालक मण्डल में प्रशासकीय, वित्तीय, वाणिज्यिक, सेवीवर्गीय आदि क्षेत्रों के विशेषज्ञों की नियुक्ति करने हेतु पूर्णतः स्वतन्त्र होते हैं। इस प्रकार सार्वजनिक निगमों को विभिन्न प्रकार की नीतियों के निर्धारण में विशेषज्ञों की सेवाओं का लाभ प्राप्त होता है, जिससे निगमों की कार्य-क्षमता में वृद्धि होती है।

  3. विभिन्न वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व (Representation of Various Interests)-

    सार्वजनिक निगम के संचालक मण्डल में श्रमिकों, उपभोक्ताओं, उद्योगपतियों, व्यापारियों आदि सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है। इस प्रकार सार्वजनिक निगमों की नीतियों का निर्धारण किसी वर्ग विशेष के हित को ध्यान में रखकर नहीं किया जाता।

  4. लोच (Flexibility)-

    सार्वजनिक निगमों का कार्य-संचालन किन्हीं कठोर (rigid) नियमों के आधार पर नहीं होता है। निगम का प्रशासकीय मण्डल आवश्यकतानुसार अपने नियमों में परिवर्तन कर सकता है।

  5. सेवा उद्देश्य (Service Motive)-

    सार्वजनिक निगमों की स्थापना प्रायः जनोपयोगी (Public Utility) सेवाओं की उपलब्धि के लिये की जाती है। ये निगम अपने कार्य-संचालन से न्यूनतम लागत पर श्रेष्ठतम वस्तुएँ अथवा सेवाएँ उपलब्ध कराने का प्रयास करते हैं। इनका प्राथमिक उद्देश्य लाभ कमाना न होकर जनसेवा करना होता है। अतः समाज के लिये ऐसे निगमों की स्थापना करना अत्यन्त उपयोगी होता है, जिससे उपयोगी वस्तुओं तथा सेवाओं की पूर्ति जनता को सुगमतापूर्वक हो सके।

  6. सामान्य जीवन-स्तर में सुधार (Improvement in General Living Standard)-

    सार्वजनिक निगम का आधारभूत उद्देश्य जनसेवा करना होता है। इसका प्राथमिक उद्देश्य सेवा करना तथा लाभ कमाना गौण उद्देश्य होता है। अतः इन निगमों द्वारा जनता को उपयुक्त मूल्य पर उचित किस्म की वस्तुएँ तथा सेवाएँ प्राप्त होती हैं, जिससे जन-साधारण के जीवन-स्तर में वृद्धि सम्भव होती है।

  7. व्यावसायिक आधार पर संचालन (Management on Business Lines)-

    लोक उद्योगों के संगठन प्रारूपों में सार्वजनिक निगम के कार्यों का संचालन व्यावसायिक आधार पर होता है। इन निगमों का प्रबन्ध एवं प्रशासन राजनैतिक दबावों से मुक्त होता है। अतः निगम अपने कार्य-कलापों को विशुद्ध व्यावसायिक आधार पर संचालित करके कार्य-कुशलता में वृद्धि तथा घाटे को रोकने के लिये आवश्यक प्रयास करते हैं।

लोक निगम की हानियाँ

(Disadvantages of Public Corporation)

सार्वजनिक निगम में व्यवहार में होने वाली प्रमुख हानियाँ निम्नलिखित हैं-

  1. व्यक्तिगत हित का अभाव (Lack of Personal Interest)-

    सार्वजनिक निगम में व्यक्तिगत हित का अभाव होता है। प्रबन्धकों, अधिकारियों तथा कर्मचारियों का निगम के लाभ-हानि में व्यक्तिगत हित न होने के कारण रुचिपूर्ण कार्य एवं कुशलतापूर्वक प्रबन्ध का अभाव होता है। इस प्रकार निगम की हानियों में वृद्धि तथा कर्मचारियों की कार्य- -कुशलता में कमी आती है।

  2. वैधानिक परिवर्तन में कठिनाई

    सार्वजनिक निगम का निर्माण संसद के विशेष अधिनियम के अन्तर्गत होता है। यह अधिनियम ही निगम के अधिकार एवं कार्य-क्षेत्र का निर्धारण करता है। यदि आवश्यकतानुसार अधिकारों एवं कार्य-क्षेत्र में कमी या वृद्धि करनी होती है तो ऐसा केवल अधिनियम में संशोधन करके ही किया जा सकता है। वास्तव में अधिनियम में बार-बार संशोधन करना अत्यन्त ही कठिन होता है।

  3. धन का दुरुपयोग (Misutilisation of Funds)-

    सार्वजनिक निगमों द्वारा वित्तीय मामलों में स्वतन्त्र होने के कारण जनता के धन का दुरुपयोग होता है। निगम के अधिकारी तथा कर्मचारी निजी हितों की पूर्ति के लिये सार्वजनिक धन का दुरुपयोग करते हैं।

  4. स्वतन्त्रता का हनन (Curtailment of Freedom)-

    सार्वजनिक निगम का प्रबन्ध प्रशासकीय मण्डल द्वारा होता है। यह मण्डल निगम के कार्य संचालन हेतु नीतियाँ बनाने में पूर्णतः स्वतन्त्र होता है, किन्तु निगम के प्रशासकीय मण्डल का गठन सम्बन्धित मन्त्री के निर्देशन से किया जाता है। अतः मन्त्री तथा शासकीय अधिकार अप्रत्यक्षतः निगम के कार्य-संचालन में हस्तक्षेप करके स्वतन्त्रता का हनन करते हैं।

  5. लालफीताशाही

    अन्य सरकारी उद्योगों तथा विभागों की तरह सार्वजनिक निगम भी लालफीताशाही के दोष से ग्रसित होते हैं। इस बुराई के कारण सार्वजनिक निगम शीघ्र निर्णय लेने तथा व्यावसायिक अवसरों का लाभ उठाने से सदैव वंचित रहते हैं।

  6. हानियों को वहन करना (Sustain Losses)-

    सार्वजनिक निगम के संचालक मण्डल में विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व होता है। अनेक बार ऐसा वर्ग-प्रतिनिधित्व सार्वजनिक हित की उपेक्षा कर देता है। प्रबन्धकीय वर्ग अपने बहुमत का लाभ उठाकर ऐसे निर्णय ले लेते हैं, जिससे होने वाली हानियों का भार अन्ततोगत्वा निगम पर ही पड़ता है।

  7. अंकेक्षण विधियों का अभाव

    सार्वजनिक निगमों के अंकेक्षण कार्य स्वयं की विधि द्वारा तथा स्वयं के प्रशासकीय मण्डल द्वारा निर्धारित प्रावधानों एवं नियुक्त अंकेक्षक (Auditor) के द्वारा होता है। इसके अतिरिक्त सार्वजनिक निगमों के अंकेक्षण का अधिकार संसदीय समितियों तथा महालेखापाल अनुमान समिति आदि को भी होता है। इसका निगम की स्वतन्त्रता एवं कार्य-प्रणाली पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

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