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सार्वजनिक निगम

सार्वजनिक निगम

सार्वजनिक निगम

सार्वजनिक निगम का आशय ऐसे निगम से है, जिसकी स्थापना संसद द्वारा विशेष अधिनियम के अधीन की जाती है और यह अधिनियम ही उसके अधिकारों, दायित्वों एवं कार्य-क्षेत्र की सीमाओं का निर्धारण करता है। इन पर सरकार का स्वामित्व अवश्य रहता है लेकिन इनका प्रबन्ध एवं संचालन निजी साहसियों द्वारा संचालित उद्योगों की व्यवस्था के अनुरूप ही होता है। राज्य द्वारा उद्योगों में सहभागिता की बढ़ती हुई प्रवृत्ति को देखते हुये यह आवश्यक समझा गया कि नवीन व्यावसायिक संस्थाओं पर नियन्त्रण सरकार का रहे लेकिन उनमें निजी उपक्रमों के समान ही संचालनात्मक लचीलेपन (Operational Flexibility) का गुण विद्यमान रहे। प्रो० डब्ल्यू ए० रॉब्सन का विचार है कि सार्वजनिक निगम सरकारी संस्थाओं के क्षेत्र में 20वीं शताब्दी की एक उल्लेखनीय खोज है।

परिभाषा

(Definition of Public Corporation)

सार्वजनिक निगम की प्रमुख परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं-

प्रो० डिमोक के अनुसार, “सार्वजनिक निगम सार्वजनिक स्वामित्व का एक ऐसा उपक्रम है, जिसकी स्थापना किसी विशेष व्यवसाय को चलाने अथवा वित्तीय उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये किसी संघीय राज्य अथवा स्थानीय अधिनियम के अन्तर्गत की गई हो।”

स्व० प्रेसीडेण्ट रूजवेल्ट के अनुसार, “लोक निगम, सार्वजनिक अधिकार सत्ता द्वारा निर्मित एक ऐसी संस्था है, जिसके अधिकार एवं कर्त्तव्य निश्चित होते हैं और जो वित्तीय मामलों में स्वतन्त्र होता है। इनका प्रशासन सार्वजनिक सत्ता द्वारा नियुक्त एक संचालक मण्डल द्वारा किया जाता है और यह (मण्डल) इसके प्रति उत्तरदायी होता है। इसकी पूँजी संरचना तथा वित्तीय क्रियाएँ सार्वजनिक कम्पनी जैसी ही होती है। इसके स्कन्धधारियों को किसी प्रकार का हित रखने, वोट देने तथा संचालकों की नियुक्ति करने का अधिकार नहीं होता है।”

एम० सी० शुक्ला के अनुसार, ”सार्वजनिक निगम विधान बनाने वाली सभा द्वारा निर्मित वह निगमित संस्था है, जिसके निश्चित अधिकार तथा कार्य होते हैं, जो वित्तीय मामलों में स्वतन्त्र होता है और जिसका कार्य-क्षेत्र किसी निश्चित स्थान या विशेष प्रकार की वाणिज्यिक क्रिया तक विस्तृत होता है।”

उपर्युक्त वर्णित परिभाषाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि “सार्वजनिक निगम एक समामेलित संस्था है, जिसकी स्थापना संसद द्वारा विशेष अधिनियम पारित किये जाने से होती है और इनका प्रबन्ध तथा संचालन इसी अधिनियम द्वारा होता है। इनकी नीतियों पर सरकारी नियन्त्रण अवश्य होता है, लेकिन इनके कार्य संचालन में निजी उपक्रमों की तरह व्यावसायिक लोच होती है।” अन्य शब्दों में, सार्वजनिक निगम राजविधि द्वारा गठित एक न्यायिक-व्यक्ति के रूप में तथा स्वयं के नाम से व्यवसाय करने वाली संस्था है।

सार्वजनिक निगम की विशेषताएँ

राज्य द्वारा उद्योगों तथा व्यापार में सहभागिता की वृद्धि के कारण यह आवश्यक हो गया कि लोक उद्योगों के संगठन हेतु किसी ऐसे प्रारूप को विकसित किया जाय, जिसमें सरकारी नियन्त्रण के साथ निजी उपक्रम की तरह ही संचालनात्मक लचीलेपन का गुण विद्यमान हो। सार्वजनिक निगम प्रारूप इस आवश्यकता की पूर्ति करता है। संगठन के एक नये प्रारूप की आवश्यकता अर्थात् सार्वजनिक निगम को प्रोफेसर रॉब्सन द्वारा पूर्ण रूप से वर्णित किया गया है। “आधुनिक प्रकार के सार्वजनिक निगम के निर्माण का प्रमुख कारण औद्योगिक तथा व्यावसायिक प्रकृति वाले उपक्रम के प्रबन्ध में उच्च स्तर की स्वतन्त्रता तथा साहस की आवश्यकता है।” अतः न केवल भारत वरन् सम्पूर्ण विश्व में सरकारी स्वामित्व वाले उपक्रमों में संगठन के इस प्रारूप का तीव्र गति से विकास हो रहा है, क्योंकि यह व्यावसायिक स्वतन्त्रता तथा सरकारी नियन्त्रण का ठीक सम्मिश्रण है। सार्वजनिक निगम की निम्नांकित प्रमुख विशेषताएँ हैं-

  1. पृथक् वैधानिक अस्तित्व (Separate Legal Entity)-

    सार्वजनिक निगम एक निगमित संस्था होने के कारण वैधानिक प्रयोजनों के लिए पृथक् अस्तित्व रखते हैं, जिस पर दावा किया जा सकता है कि जो दूसरों पर भी दावा कर सकता है। सार्वजनिक निगम अपने नाम से अनुबन्ध(Contracts) कर सकते हैं तथा अपने नाम से सम्पत्ति प्राप्त कर सकते हैं। अपने स्वयं के नाम से व्यवसाय करने वाले निगम को सामान्यतः साधारण सरकारी विभाग की अपेक्षा अनुबन्ध करने, सम्पत्ति को प्राप्त करने, विक्रय करने में पूर्ण स्वतन्त्रता होती है।

  2. राज्य का पूर्ण स्वामित्व (Wholly owned the Government)-

    सार्वजनिक निगम पर सरकार का पूर्णतः स्वामित्व होता है। इनकी समस्त पूँजी सरकार को ही लगानी पड़ती है। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में निजी संस्थाएँ सार्वजनिक निगम की सम्पूर्ण पूँजी अथवा इसका कोई भाग प्रदान कर सकती हैं लेकिन उसकी हिस्सेदारी नहीं बन सकती। ऐसे निगम को मिश्रित स्वामित्व वाला उपक्रम कहा जाता है।

  3. विशेष अधिनियम द्वारा समामेलित संस्था (Incorporated under Special Statute)-

    सार्वजनिक निगमों का निर्माण संसद द्वारा पारित विशेष अधिनियम द्वारा होता है।

इस विशेष अधिनियम में ही निगम के अधिकारों, दायित्वों, कर्त्तव्यों, कार्य-क्षेत्र तथा प्रबन्ध व संचालन सम्बन्धी नियमों का उल्लेख होता है। इस अधिनियम में निगम को स्थापित करने वाले विभाग तथा मन्त्रालय के साथ इसके (निगम) सम्बन्ध (Relationship) का भी उल्लेख होता है।

  1. स्वतन्त्र वित्त व्यवस्था (Independent Financial Management)-

    सार्वजनिक निगम की प्रारम्भिक पूँजी तथा हानियों की पूर्ति के अतिरिक्त, स्वतन्त्र वित्तीय व्यवस्था का प्रावधान होता है। इनकी वित्त व्यवस्था का विभागीय बजट से कोई सम्बन्ध नहीं दर्शाये जाते हैं। ये अपनी वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति सरकारी खजाने (Treasury) अथवा जनता से उधार लेकर तथा अपने उत्पादन तथा सेवाओं का विक्रय करके आय प्राप्त करते हैं। निगम अपनी आमदनी को प्रयोग करने तथा उसमें से ऋण देने हेतु पूर्णतः अधिकृत होते हैं।

  2. बजट, लेखाकर्म एवं अंकेक्षण सम्बन्धी नियमों से मुक्ति (Exempted from budget, accounting and Audit Laws)-

    सार्वजनिक निगम, गैर-निगमीय संस्थाओं पर लागू होने वाले बजट, लेखाकर्म एवं अंकेक्षण सम्बन्धी नियमों से पूर्णतः स्वतन्त्र होते हैं। इनके अंकेक्षण तथा लेखाकर्म विधि का निर्धारण इनका संचालन मण्डल करता है।

  3. व्यय सम्बन्धी नियमों से मुक्ति (Exempted from l Expenditure Law)-

    इन निगमों को व्यय करने से पूर्व सरकार से किसी प्रकार की पूर्व अनुमति नहीं लेनी पड़ती है। ये अपने कोष(Funds) से अपनी योजनानुसार किसी मद पर व्यय कर सकते हैं।

  4. संचालक मण्डल द्वारा प्रबन्ध (Management by Board of Directors)-

    सार्वजनिक निगम का प्रबन्ध एक संचालन मण्डल द्वारा किया जाता है। इस मण्डल की नियुक्ति सम्बन्धित मन्त्री द्वारा की जाती है, किन्तु मण्डल अपने दैनिक कार्यों में स्वतन्त्र होता है। संचालक मण्डल के कार्यों में सम्बन्धित विभाग का मन्त्री किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करता है। यह मण्डल प्रबन्ध व संचालन सम्बन्धी नियम तथा उप-नियम बनाता है।

  5. सेवा उद्देश्य (Service Motive)-

    सार्वजनिक निगमों का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना न होकर जनहित में कार्य करके वैधानिक उद्देश्य की पूर्ति करना होता है। यद्यपि सार्वजनिक निगम वाणिज्यिक प्रकृति के होते हैं, फिर भी लाभ कमाना इनका गौण (Secondary) उद्देश्य होता है। इन निगमों द्वारा अर्जित लाभ को भी समाज तथा उपभोक्ता वर्ग की सेवा, किस्म सुधार, मूल्य नियन्त्रण तथा उपक्रम के विस्तार हेतु प्रयुक्त किया जाता है।

  6. वाणिज्यिक प्रकृति (Commercial Nature)-

    सार्वजनिक निगमों की कार्य-प्रणाली व्यावसायिक उपक्रमों के समान ही होती है। निजी उद्योगों के समान ही सार्वजनिक निगमों के प्रबन्ध में पूर्णतः लोच का गुण विद्यमान होता है।

  7. नियुक्तियाँ (Recruitment)-

    सार्वजनिक निगम अपने कर्मचारियों की नियुक्ति स्वयं द्वारा बनाई गई नीतियों के आधार पर करते हैं। इन निगमों की नियुक्तियों के सम्बन्ध में सिविल सर्विस कण्डक्ट रूल्स लागू नहीं होते हैं। अधिकांशतः सार्वजनिक निगमों के कर्मचारी लोक सेवक (Civil Servants) भी नहीं होते हैं।

सार्वजनिक निगम के प्रकार

(Types of Public Corporation)

भारत में पूँजी एवं स्वामित्व के आधार पर दो प्रकार के लोक निगम स्थापित किये जाते है-

  1. पूर्णतः सरकारी निगम

    (Wholly Government Corporation)- पूर्णतः सरकारी निगमों में शत प्रतिशत पूँजी केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकारों द्वारा अथवा दोनों द्वारा मिलकर लगाई जाती है। उदाहरण के लिये, दामोदर घाटी निगम पूर्णतः सरकारी निगम है।

  2. मिश्रित निगम

    (Mixed Corporation)- मिश्रित निगम में पूँजी केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों एवं निजी क्षेत्र के पूँजीपतियों द्वारा मिलकर विनियोजित की जाती है। उदाहरण के लिये औद्योगिक वित्तीय निगम, सेन्ट्रल वेयरहाउसिंग कारपोरेशन, एग्रीकल्चर रिफाइनेन्स कारपोरेशन आदि मिश्रित निगम हैं।

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