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नगरीय स्थानीय निकायों पर राज्य सरकार का नियन्त्रण

नगरीय स्थानीय निकायों पर राज्य सरकार का नियन्त्रण

नगरीय स्थानीय निकायों पर राज्य सरकार का नियन्त्रण

(State government control over urban local bodies)

भारत में विभिन्न राज्यों के नगरीय स्थानीय निकायों का राज्य सरकार द्वारा एवं पर्यवेक्षण रखा जाता है। इस नियन्त्रण की मात्रा एवं प्रकृति प्रत्येक राज्य में भिन्न-भिन्न है, तथापि सामान्य रूप से जिन क्षेत्रों में और जिन तरीकों से यह नियन्त्रण रखा जाता है, उसमें बहुत कुछ एकरूपता परिलक्षित होती है।

नियन्त्रण की विधियाँ

राज्य सरकार नगरीय स्थानीय निकायों पर प्रायः निम्नलिखित विधियों से नियन्त्रण रखती है-

  1. संरक्षण प्रदान करना-

    स्थानीय संस्थाएँ राज्य सरकार का एक अविभाज्य अंग हैं तथा उसके द्वारा हस्तान्तरित शक्तियों का प्रयोग स्थानीय संस्थाएँ करती हैं, अतः यह आवश्यक हो जाता है कि जब कोई स्थानीय निकाय प्रशासन की मौलिकता की अवहेलना करे या जनता के हितों का किसी प्रकार बलिदान करें तो कोई उच्च सत्ता आकर निष्पक्षतापूर्वक उसमें हस्तक्षेप करे। पर्यवेक्षण एवं नियन्त्रण की सामान्य शक्तियाँ राज्य कार्यपालिका में निहित रहती हैं।कार्यपालिका स्थानीय शक्तियों की क्रियान्विति के लिए उत्तरदायी सत्ताओं के लिए मित्र, निर्देशक, दार्शनिक, उत्साहवर्धक एवं उत्प्रेरक के रूप में कार्य करती हैं। यह तुलनात्मक अध्ययन, आलोचना एवं स्पष्टीकरण, वार्षिक प्रदिवेतन, प्रस्ताव, सामान्य एवं विशेष स्मृति-पत्र आदि के माध्यम से विभिन्न नगरपालिका परिषदों को विशेषज्ञतापूर्ण परामर्श प्रदान करती है। विभिन्न आयोगों, समितियों एवं जाँचों के माध्यम से नवीन व्यवस्थापन के अभावों का अध्ययन करने के बाद राज्य सरकार कार्यों एवं शक्तियों के सम्बन्ध में नई नीतियाँ सुझाने में समर्थ होती है। नगरपालिका प्रशासन के सभी पहलुओं की कार्यापालिका के पास पूरी सूचना रहती है इसीलिए नगरपालिका परिषदों को अप्रत्यक्ष एवं सामूहिक रूप से कभी भी निर्देशित कर सकती है। स्थानीय निकायों के सम्बन्ध में राज्य सरकार की ये शक्तियाँ संरक्षण शक्तियाँ कहलाती हैं।

  2. कानून को लागू करना-

    अधिनियम के अन्तर्गत राज्य सरकार को अधिकार प्राप्त होता है कि वह अधिनियम लागू करने के सम्बन्ध में आदेश सभी नगरपालिकाओं अथवा कुछ विशेष नगरपालिकाओं के लिए जारी किए जा सकते हैं। नियम और आदेश राजपत्र में प्रकाशित किए जाते हैं और प्रकाश-तिथि के उपरान्त एक निश्चित अवधि के बाद लागू कर दिए जाते हैं। राज्य सरकार स्थानीय निकायों द्वारा बनाए गए उपनियम आदि तभी लागू समझे जाते हैं जब राज्य सरकार द्वारा उनका अनुमोदन कर दिया जाए। किसी उपनियम में कोई परिवर्तन राज्य सरकार की सहमति से ही किया सकता है।

राज्य सरकार को विभिन्न विषयों के सम्बन्ध में नियम बनाने की शक्ति प्राप्त होती है। नगरपालिका परिषद् द्वारा सम्पत्ति प्राप्त एवं स्थानान्तरित किए जाने की शर्तों में भविष्य-निधि की क्रियान्विति में कर लगाने, वित्त एवं अनुमोदन से सम्बन्धित विषयों में, राज्य एवं नगरपालिका सत्ताओं के बीच सम्पर्क रखने वाले कार्यालय के सम्बन्ध में; परिषद् द्वारा कार्य करने के लिए तैयार की गई योग्यताओं एवं अनुमानों में, नगरपालिका परिषदों द्वारा रखे जाने वाले लेखों में, जिस ढंग से राज्य सरकार के अधिकारी नगरपालिका परिषद् को अधिनियम के लक्ष्यों के संचालन में सहायता, परामर्श एवं सहयोग प्रदान करेंगे, उसके बारे में परिषद् की बैठकों इत्यादि के व्यवहार में तथा इसी प्रकार के अन्य बहुत से विषयों में राज्य सरकार को नियम बनाने का अधिकार है। ये विभिन्न विषय स्पष्ट रूप से अधिनियम में दिए होते हैं, किन्तु राज्य सरकार चुनाव, पार्षद के चयन एवं नामजदगी, अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष खड़े होने वाले उम्मीदवारों द्वारा जमा किए जाने वाले धन आदि ऐसे विषयों पर नियम बना सकती है जो अधिनियम में नहीं दिए गए हों।

सरकार की नियम बनाने की शक्ति नगरीय स्थानीय प्रशासन में एकरूपता लाती है। यह लोक सेवकों को, इनके उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने में सहयोग देती है। अंकेक्षकों को लेखों की परीक्षा करने में मदद करती है और स्थानीय स्वायत्त सरकार विधान को उसके प्रतिवेदन तैयार करने तथा नगर-परिषद् कार्यों में पुनरीक्षा करने में सहायता करती है। राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियम एवं उपनियम प्रायः राज्य के स्थानीय स्वायत्त शासन विभाग द्वारा प्रसारित किए जाते हैं।

  1. निरीक्षण करना-

    राज्य सरकार के विभिन्न अधिकारी नगरीय स्थानीय शासन निकायों का निरीक्षण करते हैं। वे इन निकायों या संस्थाओं की सम्पत्ति, निर्माण कार्य, रिकार्ड आदि का निरीक्षण करते हैं। निरीक्षण त्रुटियों की ओर स्थानीय शासन अधिकारियों का ध्यान आकर्षित करते हैं और त्रुटियों को दूर करने के उपाय सुझाये जाते हैं। निरीक्षण का अधिकार मुख्य रूप से जिलाधीश एवं संभागीय आयुक्त को प्राप्त रहता है, लेकिन राज्य सरकार द्वारा अधिकृत कोई अधिकारी नगरपालिका या अन्य स्थानीय शासन निकाय के कार्यालय का निरीक्षण कर सकता है और रिकार्ड आदि को अपने समक्ष पेश किए जाने का आदेश दे सकता है। जिलाधीश की शक्तियाँ व्यापक होती हैं। यदि उसका अभिमत होता है कि नगरपालिका या परिषद् की किसी आज्ञा, प्रस्ताव या कार्य की क्रियान्विति से जिले की शान्ति को खतरा है तो वह उस पर रोक लगा सकता है। नगरपालिका द्वारा संचालित विद्यालयों के पाठ्यक्रम एवं शिक्षा सम्बन्धी सामान्य नीति पर शिक्षा विभाग का पर्यवेक्षण एवं नियन्त्रण रहता है। सफाई से सम्बन्धित विषयों का निरीक्षण करने के लिए जिले का सिविल सर्जन होता है और जन-स्वास्थ्य विभाग का संचालक वार्षिक निरीक्षण करता है। अभिप्राय यह हुआ कि राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के विभिन्न अधिकारी जन कार्य, नियोजन, पशु-चिकित्सा सेवा, अस्पताल से सम्बन्धित निरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग करते हैं।

  2. सूचना प्राप्त करना-

    राज्य सरकार को नगरीय स्थानीय शासन निकायों से सूचना प्राप्त करने का अधिकार है। अधिनियम और नियमों के अन्तर्गत आवश्यक विभिन्न प्रकार के प्रतिवेदन और विवरण राज्य सरकार को नियमित रूप से भेजना स्थानीय संस्थाओं का कर्तव्य है। राज्य सरकार जो सूचना आवश्यक समझे, वह उपलब्ध कराने का आदेश किसी स्थानीय निकाय को दे सकती है। जाँच अधिकारी किसी व्यक्ति को, उसकी राय में आवश्यक हो, अपने समक्ष उपस्थित होने, बयान देने तथा दस्तावेज आदि प्रस्तुत करने का आदेश दे सकता

  3. स्वीकृति देने का अधिकार-

    अनेक ऐसे कार्य हैं जो स्थानीय निकाय राज्य सरकार की स्वीकृति से ही वैध रूप से कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, राजस्थान नगरपालिका अधिनियम के अन्तर्गत कोई ऐच्छिक कर राज्य सरकार की स्वीकृति के बिना नहीं लगाया जा सकता। स्थानीय निकायों के उपनियम तभी लागू हो सकते हैं जब राज्य सरकार स्वीकृति प्रदान कर देती है।

  4. वित्तीय नियन्त्रण-

    राज्य सरकार स्थानीय शासन निकायों पर वित्तीय नियन्त्रण रखती है। सभी नगरपालिकाओं से अपेक्षित है कि वे अपने आय-व्यय का वार्षिक बजट प्रस्तुत करें। राज्य सरकार नगरपालिका के कोष को लागू और नियमित करने सम्बन्धी नियम बनाती है। नियमों के आधार पर वह भुगतान की आशाओं पर किसके हस्ताक्षर होंगे तथा यह भुगतान किस प्रकार किए जाएँगे आदि-आदि। नगरपालिका द्वारा किसी भी रूप से सरकार की स्वीकृति के बिना कोई धन व्यय नहीं किया जा सकता। नगरपालिका के कोष को किसी ऐसे बैंक में नहीं रखा जा सकता जो राज्य सरकार द्वारा मान्य नहीं है। नगरपालिका अपनी सीमाओं से बाहर खर्चा केवल तभी कर सकती है जबकि राज्य सरकार से पूर्व स्वीकृति प्राप्त कर ले। उसकी सीमाओं के खरच पर राज्य सरकार निर्देश दे सकती है। राज्यों की व्यवस्थापिका द्वारा नगरपालिका के कर निर्धारित किए जाते हैं। राज्य सरकार कर लगाने तथा उसकी अधिक से अधिक मात्रा निश्चित करने के नियम बना सकती है। कर लगाते समय राज्य सरकारों की स्वीकृति लेनी होती है। कई बार अनिवार्य करों की दरें, वसूली की तिथि आदि राज्य सरकार द्वारा निर्धारित की जाती है। वसूली के नियम भी राज्य सरकार ही बनाती है। राज्य सरकार स्थानीय निकायों को ऋण देती है। ऋण राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार कुछ निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही दिए जा सकते हैं। ऋण से सम्बन्धित कार्यों एवं लेखाओं का परीक्षण करने की शक्ति राज्य सरकार को है। जब ऋण के रूप में कोई धन नगरपालिका को दिया जाता है तो राज्य सरकार उससे सम्बन्धित कार्य पर पर्यवेक्षण रखती है। यदि कार्य पूरा हो जाने के बाद ऋण में से कोई धन बच जाता है तो उसे राज्य सरकार को लौटा दिया जाता है। गैर-सरकारी ऋण के सम्बन्ध में राज्य सरकार यह निर्देशित कर सकती है कि खर्च न किए गए धन को ऋण कम करने के काम में लाया जाए।

  5. यदि नगरपालिका या अन्य नगरीय स्थानीय निकाय अपना कार्य न करें तो राज्य सरकारों को अधिकार होता है कि अपने अधिकारियों से यह कार्य करवा ले और कार्य-व्यय स्थानीय निकायों से वसूल कर ले। व्यय वसूल करना या न करना राज्य सरकार की इच्छा पर है। कुछ अधिनियमों के द्वारा राज्य सरकार को यह अधिकार दे दिया जाता है कि वह स्थानीय निकायों को जनहित में कुछ कार्य करने के लिए निर्देश दे सके। ऐसे निर्देशों का पालन किया जाना अनिवार्य होता है।
  6. अनेक अवसरों पर नगरपालिका के अधिकारियों के निर्णय एवं आदेश विरोध का कारण बन जाते हैं। इनके विरुद्ध की गई अपीलें राज्य सरकार को प्रस्तुत की जाती हैं। यदि कानून का संचालन सही ढंग से न किया जाए और नगरपालिका परिषदें उनकी अवहेलना करें तो राज्य सरकार से इसकी अपील की जा सकती है। विभिन्न राज्यों में ऐसे अनेक विषयों का उल्लेख कर दिया गया है कि जिन पर दी गई आज्ञाएँ अपील का विषय बन सकती हैं। सामान्य रूप से परिषद् की आज्ञाओं के विरुद्ध की गई अपील तथ्य के विषयों से सम्बद्ध रखती है न की कानून के विषयों से। अपील सुनने वाली सत्ता का निर्णय प्रत्येक स्थिति में अन्तिम माना जाता है तथा कोई न्यायालय इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता और विषय को पुनरीक्षा या पुनरावलोकन के लिए नहीं मँगा सकता है। साधारणतः लाइसेन्स देने या न देने या रद्द करने, भवन निर्माण सम्बन्धी उपनियमों को लागू करने में एवं कर्मचारियों के विरुद्ध की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही के विरुद्ध राज्य सरकार से अपील की जा सकती है।
  7. अधिनियमों के अन्तर्गत राज्य सरकारों को यह अधिकार प्राप्त होता है कि कुछ विशेष परिस्थितियों में नगरपालिका अथवा नगर परिषद को भंग कर दे या उसका अतिक्रमण कर दे। यदि परिषद् अपने कर्तव्यों की पूरी तरह अवहेलना करती है या मतभेद के कारण प्रशासनिक कार्य अवरुद्ध हो जाता है या परिषद् अपनी शक्तियों का उल्लंघन या दुरुपयोग करने लगती है तो राज्य सरकार को अधिकार है कि परिषद् को भंग करके नए निर्वाचन की आज्ञा जारी कर दे। इस प्रकार की आज्ञा प्रसारित करने के पहले साधारणतः संस्था को आरोप पत्र दिया जाता है, जाँच समिति द्वारा आरोप की जाँच कराई जाती है। संस्था को अवसर दिया जाता है कि वह जाँच समिति के समक्ष अपनी सफाई पेश करे। कुछ अधिनियमों के अन्तर्गत जाँच समिति की राय मानना अनिवार्य होता है। उदाहरणार्थ राजस्थान में जाँच समिति के निर्णयों के विरुद्ध कोई आदेश जारी नहीं किया जा सकता है। अधिनियम द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार लिया जाना चाहिए अन्यथा सम्बन्धित संस्थान ऐसे आदेश को न्यायालय में चुनौती दे सकती है। न्यायपालिका राज्यादेश को आवश्यक सुनवाई के बाद वैध या अवैध घोषित कर सकती है।
  8. सेवीवर्ग पर शक्तियाँ-

    नगरपालिका स्तर पर अधिकारी एवं गैर-अधिकारी दोनों प्रकार के सदस्य कार्य करते हैं। जहाँ तक गैर-अधिकारी सदस्यों का प्रश्न है राज्य सरकार पार्षदों की संख्या निश्चित करती है, परिषद् में निर्वाचित, चयन किए हुए एवं मनोनीत सदस्यों का अनुपात निश्चित करती है और उनके चुनाव का नियमन करने के लिए नियम बनाती है। जहाँ सदस्यों को मनोनीत करने का प्रावधान होता है वहाँ पार्षदों की कुल संख्या को सरकार द्वारा मनोनीत किया जाता है। पंजाब में सरकार को यह अधिकार है कि वह किसी निर्वाचित सदस्य का पद खाली होने पर उस पद को खाली करने या नियुक्ति द्वारा भरने के लिए निर्देशित करे। वह निर्वाचित या नियुक्त किसी विशेष सदस्य की सीट को खाली करा सकती है। राज्य सरकार को यद्यपि यह शक्ति है कि वह परिषद् के किसी सदस्य को हटा सके, किन्तु इस शक्ति का प्रयोग तब तक नहीं किया जाएगा, जब तक कि सम्बन्धित पार्षद को स्पष्टीकरण का अवसर न दे दिया जाए। यदि किसी नगरपालिका के सदस्य को कार्यालय से गलती से हटा दिया जाए तो वह सरकार के विरुद्ध मुकदमा लड़ सकता है। ऐसी स्थिति में हटाने वाले को यह सिद्ध करना होगा कि वह उचित कारणों से ही हटाया गया है। चेन्नई, आन्ध्र, पंजाब और केरल राज्य में सरकार अध्यक्ष को शक्ति के दुरुपयोग या कर्त्तव्यों के पालन में स्वभावगत असफलता के लिए हटा सकती है। राज्य सरकार शिक्षा, जन कार्य, मेडिकल, स्वास्थ्य एवं अन्य तकनीकी विभागों के लोगों को समिति की बैठकों में भाग लेने के लिए तथा उनके विभाग को प्रभावित करने वाले विषयों पर बोलने के लिए आमन्त्रित कर सकती है।

नगरपालिका के लोक सेवकों की दृष्टि से राज्य सरकार को विभिन्न शक्तियाँ सौंपी गई हैं। उसे अधिकार होता है कि सचिव, अभियन्ता, स्वास्थ्य अधिकारी, सफाई निरीक्षक, लेखाधिकारी, ओवरसीयर, नर्स आदि की नियुक्ति के सम्बन्ध में नियम बना सके।

  1. न्यायिक नियन्त्रण-

    राज्य सरकार का एक प्रमुख अंग न्यायपालिका है जो स्थानीय निकायों पर न्यायिक नियन्त्रण की भूमिका निभाता है। न्यायिक नियन्त्रण प्रशासनिक नियन्त्रण से भिन्न होता है। कोई न्यायालय तब तक स्थानीय निकायों की शक्तियों में हस्तक्षेप नहीं करता जब तक कि उनके द्वारा अपनी शक्तियों को घातक रूप में अधिनियम के प्रतूकल और बुरे विश्वास के साथ न अपनाया गया हो। न्यायाधीश स्वयं अपनी तरफ से पहल करके कदम नहीं उठा सकता, पहल अन्य पक्षों द्वारा होनी चाहिए। न्यायिक नियन्त्रण स्थानीय सत्ताओं को सीमा में रखता है इसलिए नागरिकों की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। नगरपालिकाओं पर न्यायालय का नियन्त्रण तीन प्रकार से प्रयुक्त किया जाता है। प्रथम, न्यायालय अधिनियम और कानूनों की व्याख्या करता है और उन्हें कानून का स्तर देता है। द्वितीय, न्यायालय नगरपालिका की सत्ताओं को गैर-कानूनी कार्य करने से मना करता है। तृतीय, अधिनियम के अधीन न्यायालयों को नगरपालिका के कार्यों एवं प्रशासन पर अपील सुनने का अधिकार होता है।

दोष

उपर्युक्त विवेचन से यह प्रकट होता है कि नगरीय स्थानीय निकायों पर राज्य सरकार की नियन्त्रणकारी शक्तियाँ विस्तृत और व्यापक हैं, पर व्यवहार में वर्तमान नियन्त्रण व्यवस्था प्रभावकारी प्रतीत नहीं होती है। राज्य सरकार का नियन्त्रण कुल मिलाकर स्थानीय शासन निकायों की कार्यक्षमता बढ़ाने में सफल नहीं हुआ है। इस नियन्त्रण व्यवस्था के मुख्य दोषों को निम्नानुसार विश्लेषित किया जा सकता है-

  1. नियन्त्रण के साधन नकारात्मक हैं। नियन्त्रण का उद्देश्य समुचित मार्गदर्शन न होकर दण्डात्मक प्रतीत होता है। राज्य सरकार को नगरपालिका एवं नगर परिषद् को भंग करके नए निर्वाचन का आदेश देने का अधिकार है, लेकिन इसे सुधारात्मक उपाय नहीं कहा जा सकता है। उचित तो यह है कि सरकारी विभाग की देख-रेख में प्रभावी निर्देश देकर स्थानीय सत्ता को अपने को सुधारने का अवसर दिया जाए।
  2. स्थानीय शासन संस्थाओं को बार-बार भंग करने, अतिक्रमण करने, सदस्यों एवं चेयरमैन को निष्कासित करने से न केवल सार्वजनिक धन और शक्ति का अपव्यय होता है, बल्कि स्थानीय संस्थाओं से जनता का विश्वास उठने लगता है।
  3. ऐसे अनेक अधिकरण हैं जिनके द्वारा परिषदों पर राज्य का नियन्त्रण लागू किया जाता है। शिक्षा एवं स्वास्थ्य, सफाई, पशु चिकित्सालय आदि पर विभिन्न सरकारी, तकनीकी विभाग अपने कर्यालयों द्वारा प्रत्यक्ष नियन्त्रण रखते हैं। सामान्य प्रशासन एवं वित्त के क्षेत्र में स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं पर सरकार मंत्रालय आयुक्तों एवं जिला अधिकारियों के माध्यम से नियन्त्रण रखती है, किन्तु ये अधिकारी राजस्व विभाग के अधिकारी होते हैं और इनको स्थानीय प्रशासन पर पर्यवेक्षण रखने के लिए कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं मिलता है। वे अन्य कार्यों में अत्यन्त व्यस्त रहने के कारण स्थानीय निकायों में अधिक समय नहीं दे पाते, फलतः स्थानीय निकायों पर पर्यवेक्षण एवं नियन्त्रण अत्यन्त अपर्याप्त रहता है। उत्तर प्रदेश की स्थानीय स्वायत्त सरकार समिति ने बताया था कि जिला अधिकारियों एवं आयुक्तों द्वारा सरकार की ओर से स्थानीय निकायों पर जो नियन्त्रण एवं पर्यवेक्षण रखा जाता है उसमें पर्याप्त रुचि नहीं लेते क्योंकि उन पर उनके अपने ही कार्यों पर भार काफी रहता है।
  4. कई बार नियन्त्रण की कठोरता से स्थानीय पहल को ठेस पहुँचती है। राजस्थान में वित्तीय सहायता और ऋण प्राप्ति के नियम काफी कठोर और जटिल हैं।
  5. ऐसी शिकायतें प्रायः सुनने में आती हैं कि नियन्त्रण-शक्तियों का प्रयोग दलगत राजनीति के व्यक्तिगत लाभ अथवा बदले की भावना से किया जाता है। एक ही आधार की परिस्थितियों में कुछ नगरपालिकाएँ भग कर दी जाती हैं, जबकि अन्य को कुछ नहीं कहा जाता है।
  6. कई बार स्थानीय शासन संस्थाओं का अधिक्रमण वर्षों तक चलता रहता है जिसे उचित नहीं कहा जा सकता। यह आवश्यक है कि अधिनियम के अन्तर्गत अधिक्रमण की अधिकतम सीमा निर्धारित कर दी जाए।
  7. प्रायः देखा गया है कि राज्य सरकार और स्थानीय शासन संस्थाओं के बीच खींचतान चलती रहती है। अधिकारी-अधीनस्थ सम्बन्ध का स्वरूप वर्ती बदली हुई परिस्थितियों में ठीक नहीं है। दोनों ही सत्ताओं को पारस्परिक सहयोग की भावना से कार्य करना चाहिए ताकि जनता का अधिकतम हित हो सके।
  8. नियन्त्रण की वर्तमान व्यवस्था में रचनात्मकता की कमी है। प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों को भाँति यहाँ भी नौकरशाही का बोलबाला है।
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