संसदीय समिति
संसदीय समिति
(Parliamentary Committee)
भारत में समाजवाद के लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु लोक उद्योगों को महत्वपूर्ण उपकरण माना गया है। इसी महत्व के अनुरूप राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में लोक उद्योगों की स्थापना कुछ विशिष्ट लक्ष्यों, नीतियों तथा उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विशाल पूँजीगत साधनों के विनियोजन के साथ की गयी है। सीमित वित्तीय साधनों वाली अर्थव्यवस्था में इन विशाल विनियोजनों के समयानुसार मूल्यांकन का विशिष्ट महत्व है। यद्यपि प्रकृति से व्यावसायिक होने के कारण ये उपक्रम व्यावसायिक सिद्धान्तों के आधार पर पर्याप्त वित्तीय स्वतन्त्रता तथा कार्य सम्पादन में लोग चाहते हैं। लेकिन राष्ट्र के सीमित वित्तीय साधनों का इन उपक्रमों में विनियोजन के कारण इन पर पर्याप्त, कुशल एवं युक्ति संगत नियन्त्रण भी आवश्यक है। प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था में संसद जनता की प्रतिनिधि होती है। अतः संसद द्वारा इन उपक्रमों पर नियन्त्रण सर्वश्रेष्ठ विधि है। संसद नियन्त्रण का यह कार्य विशिष्ट संसदीय समितियों की सहायता में करती है।
संसदीय समितियों की आवश्यकता एवं महत्व
(Need and Importance of Parliamentary Committee)
राष्ट्रीयकृत उद्योगों से आशय ऐसे उद्योगों से होता है जिनका संचालन पहले निजी क्षेत्र में रहा था। लेकिन जिन्हें अब सार्वजनिक क्षेत्र के अन्तर्गत सरकार ने अपने अधिकार में ले लिया है। अब इन उद्योगों के विस्तार तथा विकास का दायित्व भी सरकार का है। सरकार इन उद्योगों में जो धन लगाती है वह अप्रत्यक्ष रूप से ही जनता से ही प्राप्त करती है। अतः इन उद्योगों में लगाये गये धन पर जनता का नियंत्रण होना चाहिए। प्रजातन्त्रात्मक शासन व्यवस्था में जनता के इस उत्तरदायित्व का निर्वाह संसद करती है। अतः निम्नलिखित कारणों से संसदीय समितियों की आवश्यकता होती है-
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संसद का विशाल आकार–
संसद एक विशाल आकार वाली प्रतिनिधि संस्था है। सब सदस्यों द्वारा मिलकर किसी लोक उद्योग से सम्बन्धित समस्याओं अथवा जाँच पड़ताल से सम्बन्धित कार्य को सम्पन्न करना सम्भव नहीं होता है। अतः सुविधा की दृष्टि से कुछ सदस्य की समिति बना दी जाती है।
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समय का अभाव–
देश के नागरिकों की प्रतिनिधि संस्था होने के कारण संसद को अनेक कार्य सम्पन्न करने पड़ते हैं। इस कारण संसद के पास इतना पर्याप्त समय नहीं होता है कि विभिन्न प्रकृति वाले लोक उद्योगों के कार्य कलापों की जाँच पड़ताल का कार्य कर सके। अतः समितियों का गठन किया जाता है।
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तकनीकी विशेषज्ञों का अभाव–
लोक उद्योगों की विभिन्न समस्याओं का अध्ययन करने के लिए विशिष्ट विशेषज्ञों की आवश्यकता पड़ती है। इन विशेषज्ञों की उपलब्धि तथा नियुक्ति दोनों कठिन होते हैं। संसद सदस्यों का विभिन्न राजनीतिक दलों से सम्बन्ध होता है तथा इन्हें विभिन्न क्षेत्रों का ज्ञान होता है। अनेक सदस्य तो अनेक बार विभिन्न लोक उद्योगों के अध्यक्ष भी रह चुके होते हैं। अतः लोक उद्योगों के क्रिया कलापों को समझने तथा इन उद्योगों के प्रतिवेदनों की जाँच पड़ताल करने में संसद सदस्य पारंगत होते हैं।
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संसद की अनभिज्ञता–
प्रजातन्त्रात्मक शासन व्यवस्था में राष्ट्र की महत्वपूर्ण संस्था होने के कारण संसद को सीमित समय में असीमित तथा महत्वपूर्ण कार्य करने पड़ते हैं। इस प्रकार संसद के सम्मुख अनेक तथ्यों की जानकारी नहीं आ पाती है। इस अभाव की पूर्ति के लिए संसद विभिन्न समितियों का गठन करती है। ये समितियाँ जाँच पड़ताल करके लोक उद्योगों के महत्वपूर्ण तथ्यों को संसद के सम्मुख प्रस्तुत करती हैं।
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सार्वजनिक क्षेत्र का बढ़ता हुआ आकार–
भारतीय अर्थव्यवस्था में लोक उद्योगों का आकार निरन्तर बढ़ रहा है। इस बढ़ते हुए आकार को ध्यान में रखते हुए लोक उद्योगों पर संसद द्वारा अनुकूलतम नियंत्रण करना कठिन है। अतः संसद के कुछ विशिष्ट सदस्यों की जाँच समितियाँ बना देना उपयक्त नीति है।
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