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भारत में योजना आयोग

ारतीय योजना आयोग

भारत में योजना आयोग

(Planning Commission of India)

भारत में योजना आयोग की स्थापना 15 मार्च, 1950 को हुई जिसके बारे में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने संकल्प पारित किया था। प्रो. ए.एच. हेन्सन के विचार से मन्त्रिमण्डल ने योजना आयोग को एक ऐसा अंग माना था जिसका कार्य केवल सलाह देना था। मन्त्रिमण्डल संकल्प संख्या पी.सी. (सी.) 50, भारत का राज्यपत्र, 15 मार्च, 1990 में कहा गया था कि वास्तविक संसाधनों को ध्यान में रखते हुए तथा सभी संगत आर्थिक पहलुओं का निष्पक्ष विश्लेषण करते हुए व्यापक योजना बनाने की आवश्यकता है और इस कार्य के लिए एक ऐसे संगठन की आवश्यकता है जो दैनिक प्रशासनिक कार्यकलापों मुक्त हो किन्तु जिसका सरकार से उच्चतम स्तर पर सम्पर्क हो। योजना आयोग इस उद्देश्य से स्थापित किया गया, जिसके मूल निदेश पद सभी नागरिकों जीविका के पर्याप्त साधन, सामूहिक हित में सम्पत्ति का बँटवारा और अर्थ-व्यवस्था का हितकारी विकेन्द्रीकरण के बारे में राज्य की नीति के निदेशक सिद्धान्तों पर आधारित थे। अतः योजना आयोग के निम्नलिखित सात दायित्व थे-

  1. देश के भौतिक संसाधनों और जनशक्ति (तकनीकी व्यक्तियों सहित) का अनुमान लगाना तथा राष्ट्र की आवश्यकता के अनुसार उन संसाधनों की वृद्धि सम्भावनाओं का पता लगाना।
  2. देश के संसाधनों के सन्तुलित उपयोग के लिए अत्यन्त प्रभावकारी योजना बनाना ।
  3. योजना की क्रियान्विति के चरणों का निर्धारण तथा उनके लिए संसाधनों का नियमन करना।
  4. आर्थिक विकास में आने वाली बाधाओं की ओर संकेत करना तथा योजना की सफल क्रियान्वित के लिए परिस्थिति निर्धारित करना ।
  5. योजना के प्रत्येक चरण की सफल क्रियान्वित के लिए आवश्यक तन्त्र का स्वरूप निश्चित करना।
  6. समय-समय पर योजना की चरणवार प्रगति का अवलोकन तथा इस बारे में आवश्यक उपायों की सिफारिश करना।
  7. आयोग के कार्याकलापों को सुविधाजनक बनाने अथवा वर्तमान परिस्थिति और विकास कार्यक्रम को ध्यान में रखते हुए अन्तिम सिफारिश करना अथवा केन्द्र या राज्यों की समस्याओं का समाधान करने के लिए परामर्श देना।

ारतीय योजना आयोग

स्वाधीनता के बाद भारत में आर्थिक विकास के लिए आर्थिक नियोजन की अवधारणा को स्वीकार किया गया। ‘योजना आयोग‘ और राष्ट्रीय विकास परिषद जैसे निकाय अस्तित्व में आये। योजना आयोग सामान्य रूप से आरम्भ हुआ था, किन्तु कुछ ही समय में उसने एक विशाल संगठन का रूप धारण कर लिया। जिसे प्रारम्भ में एक परामर्शदायी संस्था समझा गया था, वह आकार में एक अन्य ‘सरकार’ के रूप में परिवर्तित हो गयी। योजना आयोग और राष्ट्रीय विकास परिषद् ने संविधान की अन्य व्यवस्था जैसे वित्त आयोग, संघवाद तथा प्रजातन्त्र को काफी हद तक प्रभावित किया है।

नियोजन क उद्देश्य

(Objectives of Planning)

आर्थिक नियोजन को निम्न भागों में बाँटा जा सकता है-

  1. आर्थिक उद्देश्य

    नियोजन के आर्थिक उद्देश्य हैं- आर्थिक समानता, अवसर की समानता, अधिकतम उत्पादन, पूर्ण रोजगार तथा अविकसित क्षेत्रों का विकास। नियोजन में राष्ट्रीय आय तथा अवसरों का समान वितरण सम्मिलित है। आय की समानता धनी वर्ग से अधिक कर द्वारा प्राप्त आय को निर्धन वर्ग को सस्ती सेवाएँ-चिकित्सा, शिक्षा, सामाजिक बीमा, सस्ते मकान आदि सुविधाएँ- उपलब्ध कराने पर व्यय करके की जा सकती हैं। राष्ट्र के समस्त नागरिकों को जीविकोपार्जन के समान अवसर प्रदान करके असमानता को दूर किया जाता है। लोगों के जीवन-स्तर को उच्च करने के लिए उत्पादन के समस्त क्षेत्रों-कृषि-उद्योग, खनिज आदि में वृद्धि की जा सकती है। नियोजन द्वारा राष्ट्र के समस्त कार्यशील योग्य नागरिकों के लिए रोजगार का प्रवन्ध करना भी आवश्यक है। सम्पूर्ण राष्ट्र के जीवन-स्तर में समानता स्थापित करने हेतु राष्ट्र के अविकसित तथा अर्द्ध-विकसित क्षेत्रों को राष्ट्र के अन्य उन्नत क्षेत्रों के समान करना भी नियोजन का एक प्रमुख ध्येय होता है।

  2. सामाजिक उद्देश्य

    नियोजन के सामाजिक उद्देश्यों में वर्ग रहित समाज की स्थापना करने का लक्ष्य सम्मिलित है। श्रमिक व उद्योगपति दोनों को उत्पत्ति का उचित अंश मिलना चाहिए। पिछड़ी जातियों को शिक्षा में सुविधाएं देना, सरकारी सेवाओं में प्राथमिकता प्रदान करना तथा अन्य पिछड़ी जातियों को समान स्तर पर लाना नियोजन का ध्येय है।

  3. राजनीतिक उद्देश्य

    नियोजन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य राष्ट्र की राजनीतिक सत्ता की रक्षा, शक्ति तथा सम्मान में वृद्धि करना भी है। देश में राजनीतिक स्थिरता की उपस्थिति में ही अर्थव्यवस्था में स्थिरता सम्भव है।

भारत में नियोजन

(Planning in India)

विख्यात इंजीनियर एम. विश्वश्वरैया ने सन् 1934 में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘प्लाण्ट इकॉनॉमी फॉर इण्डिया‘ में एक ऐसी योजना का रूप रखा था, जिसका उद्देश्य दस वर्ष में देश की राष्ट्रीय आय को दुगना करना था। इसके बाद कांग्रेस ने श्री जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक ‘राष्ट्रीय योजना समिति‘ का गठन किया। इस समिति ने प्रो. के. टी. शाह को अवैतनिक मन्त्री चुना। समिति ने अपना कार्य आरम्भ करने के लिए 26 उपसमितियाँ बनायीं, जिसमें से 25 उपसमितियों ने अपनी रिपोर्ट पेश की। लेकिन तत्कालीन विदेशी सरकार व कांग्रेस में संघर्ष व द्वितीय महायुद्ध के कारण यह समिति अपना कार्य पूरा करने में असमर्थ रही। सन् 1944 में भारत सरकार ने भी एक ‘नियोजन एवं विकास विभाग’ का गठन किया। सन् 1946 में ‘नियोगी समिति‘ ने सिफारिश की थी कि आर्थिक नियोजन के कार्य की प्रकृति ही ऐसी है कि “एक ऐसे एकीकृत शक्तिशाली तथा मन्त्रिपरिषद् के प्रति प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी संगठन की केन्द्र में स्थापना आवश्यक है, जो भारत के आर्थिक पुनर्निर्माण के सम्पूर्ण क्षेत्र पर दत्तचित्र होकर स्थायी रूप से कार्य कर सके।”

योजना आयोग की संरचना

(Composition of the Planning Commission)

केन्द्र में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद योजना आयोग की संरचना में भारी फेरबदल किया गया है। श्री रामकृष्ण हेगड़े को आयोग का उपाध्यक्ष बनाया गया है। प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह इसके अध्यक्ष हैं। उनके अलावा उपप्रधानमंत्री देवीलाल और वित्तमंत्री मधु दण्डवते आयोग के सदस्य होंगे। योजना आयोग में पहली बार तीन मुख्यमंत्री सदस्य के रूप में शरीक किये जायेंगे। बारी-बारी से तीन मुख्य मंत्रियों को एक-एक साल के लिए सदस्य बनाया जायेगा।

22 दिसम्बर, 1989 को प्रधानमंत्री ने योजना आयोग का पुनर्गठन किया। केबिनेट सचिव टी.एन. शेषन, जे.डी. सेठी, रजनी कोठारी, एल.सी. जैन, इला भट्टा, डॉ. अरुण घोष, डा. वैद्यनाथन, रहमतुल्लाह अंसारी और हरस्वरूप सिंह को आयोग का पूर्णकालिक सदस्य बनाया गया है।

राष्ट्रीय मोर्चा सरकार योजना आयोग में संस्थागत परिवर्तन कर उसे ज्यादा सार्थक बनाना चाहती थी। प्रधानमंत्री के अनुसार योजना आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जायेगा। योजना आयोग में संस्थागत बदलाव लाये बिना उसे अफसरशाही के चंगुल से मुक्त नहीं कराया जा सकता।

क्या मन्त्रियों को आयोग का सदस्य नियुक्त किया जाना चाहिए?

भारत में योजना आयोग की संरचना, भूमिका व स्थिति अत्यधिक विवाद का विषय रही है। इस प्रश्न पर काफी विवाद हो चुका है कि क्या मन्त्रियों को आयोग का सदस्य बनाना उचित है? कुछ विद्वानों के अनुसार योजना आयोग एक पूर्णतया स्वतन्त्र संगठन होना चाहिए। इसका कार्य देश की प्रमुख आर्थिक समस्याओं पर सरकार को परामर्श देना है, इसलिए इसके सदस्य ख्याति प्राप्त विशेषज्ञ होने चाहिए तथा उन्हें स्वायत्त रूप से कार्य करने का अधिकार मिलना चाहिए। प्रो. डी.आर. गाडगिल ने लिखा है “योजना आयोग द्वारा अपने प्रमुख कार्यों की उपेक्षा का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि वह एक विशाल शक्ति संगठन बन गया है तथा इनके सदस्यों में भी मन्त्रियों की भाँति शक्ति व संरक्षण का प्रयोग तथा प्रदर्शन करने की एक स्वाभाविक इच्छा है। आयोग ने अपने निर्धारित मार्ग से हटकर गलत मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति को इस तथ्य से और भी सहायता मिली है कि स्वयं वित्तमन्त्री और प्रधानमंत्री इसके सदस्य हैं।” भारत के प्रशासकीय सुधार आयोग की दृष्टि में, “आयोग को एक पूर्णतः तकनीकी परिषद् बनाया जाये और मन्त्री सदस्यों को उससे पृथक् रखा जाये।” उसका यह भी सुझाव था कि प्रधानमंत्री को भी उससे दूर रखा जाय जो कि प्रारम्भ से ही इसका अध्यक्ष रहा है। वस्तुतः दिसम्बर 1946 में नियुक्त परामर्शदाता नियोजन बोर्ड के अनुसार मौलिक रूप से योजना आयोग को एक समय गैर-राजनीतिक परामर्शदात्री परिषद होना था।

प्रो. अरविन्द शर्मा के अनुसार, योजना आयोग की मत्रिय सदस्यता से जटिलता उत्पन्न होती है वह यह कि आयोग के निर्णय राजनीतिक दृष्टि से अत्यधिक प्रभावित होते हैं और तकनीकी आर्थिक दृष्टि से उनकी उपेक्षा होती है। इसका समाधान यही है कि विशेषज्ञों की एक विशुद्ध विशेषज्ञ परिषद् को अंगीकृत किया जाये अथवा तकनीकी विशेषज्ञों एवं राजनीतिज्ञों के संयुक्त आयोग की स्थापना की जाये जो राजनीतिज्ञों के प्रभाव को सीमित करेगा और विशेषज्ञों को उचित स्थान दे सकेगा।

वस्तुतः योजना आयोग के साथ प्रधानमंत्री तथा कतिपय अन्य मन्त्रियों का सम्बन्ध होना नितान्त उपयुक्त है। मत्रियों के अभाव में आयोग के विशेषज्ञ सदस्यों के पास सामाजिक राजनीतिक यथार्थवाद की दृष्टि का अभाव बना रहेगा। प्रधानमंत्री व प्रभावशाली केन्द्रीय मन्त्रियों के आयोग में रहने से आयोग के निर्णय को एक विशिष्ट प्रतिष्ठा व बल मिल जाता है। प्रधानमंत्री और मन्त्रिगण न केवल केन्द्रीय सरकार व आयोग के मध्य सम्पर्क सूत्र का कार्य करते हैं, अपितु आयोग और संसद के मध्य भी सम्पर्क स्थापित करते हैं।

प्रशासनिक संगठन

(Administrative Organisation)

योजना आयोग अनेक विभागों एवं उप-विभागों द्वारा अपने कार्य निभाता है जो परामर्शदाता, मुख्य या सह-सचिव के अन्तर्गत होते हैं। आन्तरिक संगठन के दृष्टिकोण से योजना आयोग को चार भागों में बाँटा गया है-

  1. सामान्य विभाग

    (General Division)- योजना आयोग में छः सामान्य विभाग हैं। (i) आर्थिक विभाग, जिसके पाँच उप-विभाग हैं- वित्तीय संसाधन, आर्थिक नीति एवं वृद्धि, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एवं विकास, मूल्य नीति तथा अन्तः उद्योग अध्ययन खण्ड। प्रत्येक खण्ड या उप-विभाग एक निदेशक के अन्तर्गत कार्य करता है। (ii) दृश्य योजना विभाग (Perspective Planning Division)। (ii) श्रम एवं रोजगार विभाग (iv) सांख्यिकी एवं सर्वेक्षण विभाग, जो केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन से सम्बद्ध है। (v) संसाधन एवं वैधानिक अनुसंधान विभाग, जो विज्ञान एवं तकनीकी विभाग के सहयोग से दीर्घकालीन आर्थिक विकास के लिए प्राकृतिक साधनों के अध्ययनों का संगठन करता है। (vi) प्रबन्ध एवं प्रशासन विभाग।

  2. विषय विभाग

    (Subject Division)- योजना आयोग के दस विषय विभाग हैं जो अपने विषय से सम्बन्धित कार्य करते हैं: (i) कृषि विभाग, जिसमें सहकारिता एवं सामुदायिक विकास भी शामिल है।(ii) सिंचाई एवं विद्युत विभाग, (iii) भूमि सुधार विभाग, (iv) उद्योग एवं खनिज विभाग, जिसके आगे उद्योगों, खनिजों तथा सार्वजनिक उद्योगों के खण्ड हैं। (v) ग्राम एवं लघु उद्योग (vi) परिवहन एवं संचार विभाग, (vii) शिक्षा विभाग, (viii) स्वास्थ्य विभाग, (ix) निवास विभाग, जिसमें शहरी गृह निर्माण भी शामिल है, (x) समाज सेवा। विभाग जो पिछड़ी जातियों के विकास से भी सम्बन्धित है।

  3. समन्वय विभाग

    (Co-ordination Division)- योजना आयोग के दो समन्वय विभाग हैं (i) प्रोग्राम प्रशासन विभाग (Programme Administrative Division) जो राज्यों की योजनाओं का समन्वय करता है तथा आयोग और राज्य सरकारों के बीच राज्य योजनाओं से सम्बन्धित वार्तालाप तथा परामर्श का आयोजन करता है और उनकी विकास योजनाओं की प्रगति पर रिपोर्ट देता है। यह केन्द्र द्वारा राज्यों को दी जाने वाली सहायता के बारे में अध्ययन करता है और योजनाओं के सही कार्यान्वयन के लिए उपाय बताता है। यह विभिन्न राज्यों में पिछड़े हुए प्रदेशों के विकास के लिए परियोजनाओं को बनाता है जिससे उनका शीघ्र विकास किया जा सके। (ii) योजना समन्वय उप-विभाग (Plan Co-ordination Section) यह विभाग योजना के विभिन्न विभागों में समन्वय का कार्य करता है। इसके अतिरिक्त एक समन्वय उप-विभाग भी है जो आयोग की मीटिंगों से सम्बन्धित कार्य करता है। दोनों उप-विभाग अलग-अलग निदेशकों के अन्तर्गत कार्य करते हैं।

  4. विशिष्ट विकास प्रोग्राम विभाग

    (Special Development Programme Division)- इसके दो खण्ड हैं (i) ग्राम कार्य विभाग (Rural Work Division), जो स्थानीय विकास कार्यों, जिनके द्वारा ग्राम जनशक्ति साधनों का उचित उपयोग होता है, से सम्बन्धित है। (ii) लोक सहयोग विभाग(Public Co-operation Division) जो राष्ट्रीय विकास के विशिष्ट प्रोग्रामों में जन सहयोग प्राप्त करने से सम्बद्ध है तथा जन सहयोग के लिए ‘राष्ट्रीय सलाहकार समिति’ (National Advisory Committee for Public Co-operation) का कार्य करता है। सम्बद्ध दल की सहायता करते हैं जैसे विभिन्न केन्द्रीय मन्त्रालय, भारतीय रिजर्व बैंक का अर्थशास्त्र विभाग, केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन (Central Statistical Organisation)। इन संस्थाओं के द्वारा योजना आयोग विभिन्न विषयों से सम्बन्धित अध्ययन करवाता है। तथा केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन विस्तृत आँकड़े एकत्र करके योजना के निर्माण तथा मूल्यांकन के लिए आयोग की सहायता करता है।

  5. कार्यकारी दल

    (Working Group)- योजना निर्माण के समय आयोग अनेक कार्यकारी दल नियुक्त करता है जिन पर विभिन्न समस्याओं से सम्बद्ध विशेषज्ञ होते हैं। ये दल योजना निर्माण के लिए विभिन्न विषयों पर अपनी रिपोर्ट देते हैं जिनके आधार पर योजना बनायी जाती है। उदाहरणार्थ, तृतीय योजना के निर्माण के समय 22 कार्यकारी दल बनाये गये जबकि छठीं योजना के लिए 21 कार्यकारी दल थे। ये संसाधनों, कृषि, इस्पात, मशीनरी, ईंधन, शिक्षा आदि से सम्बद्ध थे।

  6. मूल्यांकन समितियाँ

    (Evaluation Committees)- योजना के संचालन का मूल्यांकन करने हेतु आयोग ने मूल्यांकन समितियाँ स्थापित की हुई हैं जैसे ‘योजना परियोजनाओं पर समिति’ (Committee of Plan Projects) तथा ‘प्रोग्राम मूल्यांकन संगठन’ (Programme Evaluation Organisation) पहली कमेटी परियोजनाओं के प्रबन्ध, प्रशासन और निर्माण लागतों की किफायतों से सम्बद्ध समस्याओं का मूल्यांकन करती है। जबकि प्रोग्राम मूल्यांकन संगठन मुख्य तौर से सामुदायिक विकास प्रोग्राम के मूल्यांकन के लिए बनाया गया था। परन्तु अब यह ग्राम विकास से सम्बद्ध प्रोग्रामों का मूल्यांकन करता है।

  7. राष्ट्रीय विकास परिषद्

    (National Development Council)- योजना सम्बन्धी मामलों में केन्द्र तथा राज्यों के मध्य समायोजन (Co-ordination) की स्थापना के लिए ‘राष्ट्रीय विकास परिषद्’ (National Development Council) नामक एक महत्वपूर्ण संगठन की रचना की गयी है। राष्ट्रीय विकास परिषद् (D.C.) में राज्यों के मुख्य मंत्रियों की सदस्यता तथा योजना आयोग द्वारा निर्धारित कार्यक्रमों पर उनकी स्वीकृति के कारण योजना को राज्यों की ओर से एक प्रकार की पूर्व स्वीकृति (Prior sanction) प्राप्त हो जाती है। इसे परिषद् ने एक ‘सर्वोपरि केबिनेट’ (Super Cabinet) की ख्याति प्राप्त कर ली है। इसके उच्च स्वरूप के कारण इसके परामर्श को केन्द्रीय तथा राज्य सरकारें सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करती हैं। परिषद् ने योजनाओं को एक सच्चा राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया है तथा योजनाओं के निर्माण में “दृष्टिकोण की एकरूपता एवं कार्य संचालन की समानता सम्पन्न की है।”

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