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भारत में आर्थिक नियोजन के राजनीतिक परिणाम

भारत में आर्थिक नियोजन के राजनीतिक परिणाम

भारत में आर्थिक नियोजन के राजनीतिक परिणाम

(Political implication of Economic Planning)

भारत में योजना आयोग तथा राष्ट्रीय विकास परिषद् संविधानेत्तर संस्थाएँ हैं जो व्यवहार में मन्त्रिमण्डल और संसद से भी अधिक प्रभुत्वशाली हो गयी हैं। यथार्थ में इन दोनों संस्थाओं की रचना न तो संविधान द्वारा की गयी है और न किसी संसदीय अधिनियम द्वारा, फिर भी व्यवहार में ये नीति-निर्माता निकाय बन गये हैं। व्यवहार में इनके सुझाव नीति निर्देशन (Policy Directives) बन गये हैं जिनका पालन न केवल राज्यों के मन्त्रिमण्डल करते हैं। अपितु हमारी संसद को भी करना होता है। राष्ट्रीय विकास परिषद् के सम्बन्ध में तो कहा जाता कि उसने योजना आयोग को मात दे दी है और उसका दर्जा मात्र शोध संस्थान के तुल्य हो गया है। आयोग तथा परिषद् ने हमारी सम्पूर्ण राज-व्यवस्था को प्रभावित किया है। आर्थिक नियोजन के राजनीतिक प्रभावों का विवेचन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-

  • आर्थिक नियोजन और मन्त्रिमण्डल।
  • आर्थिक नियोजन और संसद।
  • आर्थिक नियोजन और लोकतन्त्र ।
  • आर्थिक नियोजन और वित्त आयोग।
  • आर्थिक नियोजन और संघीय व्यवस्था ।
  • आर्थिक नियोजन और केन्द्रीयकरण एवं विकेन्द्रीयकरण की समस्याएँ
  • जनता के सहभागिता की समस्याएँ।
  1. आर्थिक नियोजन और मन्त्रिमण्डल

    (Planning and the Cabinet)- भारत सरकार का शासन मन्त्रिपरिषद् करती है और मन्त्रिपरिषद् अपने कार्यों के लिए सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। प्रत्येक मन्त्रालय पर यह जिम्मेदारी है कि अपने कार्यक्षेत्र में सरकारी नीति निर्धारित करे, उसे अमल में लाये और साथ ही उन नीतियों की समीक्षा करता रहे किन्तु योजना आयोग तथा राष्ट्रीय विकास परिषद् जैसे निकायों के अस्तित्व में आने से नीति-निर्माता के रूप में मन्त्रिमण्डल का दर्जा घट गया है। अब महत्वपूर्ण निर्णय योजना आयोग तथा परिषद् ही लेती है। अनेक मन्त्रियों को अपने विभागों के बारे में लिये गये निर्णयों का पता बहुत बाद में लगता है। आर्थिक नीति सम्बन्धी महत्वपूर्ण प्रश्नों के निर्धारण में मन्त्रिमण्डल की अपेक्षा आयोग और विकास परिषद् की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। योजना आयोग की बढ़ती हुई भूमिका को देखते हुए इसको एक ‘सर्वोपरि मन्त्रिपरिषद्’ कहा गया है। अशोक चन्द्रा के अनुसार, “आयोग के साथ मन्त्रिमण्डलों के आंशिक परिचय ने संवैधानिक स्थिति को विकृत कर दिया है और आयोग के लिए यह सम्भव बना दिया है कि वह नीति सम्बन्धी मामलों में तथा यहाँ तक कि दिन-प्रतिदिन के मामलों में भी हस्तक्षेप करे।

  2. आर्थिक नियोजन और संसद

    (Planning and Parliament)- अशोक चन्द्रा का मत है कि योजना आयोग ने भारतीय संसद को अर्थ शून्य और गौण संस्था बना दिया और भारत में संसदीय प्रणाली को निरस्त (Supersede) कर दिया है। के० एम० मुन्शी ने भी कहा है कि “वस्तुतः आज देश में संसद शासन नहीं करती, बल्कि योजना आयोग सरकार का नियन्त्रण एवं पथ-प्रदर्शन करता है और मजे की बात यह है कि आयोग संसद के प्रति उत्तरदायी नहीं है।” संसदीय प्रणाली में जनता की सम्प्रभुता संसद में प्रतिबिम्बित होती है और संसद के माध्यम से उस पर कार्यवाही की जाती है। मन्त्रिमण्डल पर संसद का नियन्त्रण होता है और संसद मन्त्रियों के कार्यों की आलोचना कर सकती है। मन्त्रिपरिषद् अपने कार्यों के लिए सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। मन्त्रिपरिषद् के अधिकार अन्ततः लोकसभा में निहित हैं और लोकसभा से ही मन्त्रिपरिषद् को शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।

  3. आर्थिक नियोजन और लोकतन्त्र

    (Planning and the Democracy)- व्यष्टिवादी अर्थशास्त्री आर्थिक नियोजन को अलोकतान्त्रिक मानते हैं। उनकी धारणा है कि आर्थिक नियोजन से जहाँ वैयक्तिक पहल समाप्त होती है वहाँ दूसरी और केन्द्रीयकृत सर्वाधिकारवादी ढाँचा खड़ा हो जाता है। आर्थिक नियोजन से अत्यधिक केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति बढ़ती है और स्थानीय संस्थाओं की स्वायत्तता समाप्त हो जाती है।

लोकतन्त्र की सफलता के लिए यह आवश्यक माना जाता है कि देश में समृद्धि एवं सम्पन्नता की स्थिति हो । जनता सुखी, सन्तुष्ट और खुशहाल तभी रह सकती है जबकि उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी हो। वह गरीबी और बेकारी से पीड़ित न हो। वह अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। इसीलिए तो स्वतन्त्रता के बाद हमारी राष्ट्रीय सरकार ने योजनाबद्ध विकास का मार्ग अपनाया। भारत में आर्थिक समृद्धि के लिए किया जाने वाला कोई भी प्रयास लोकतन्त्र विरोधी कैसे हो सकता है? प्रो० लास्की ने तो कहा भी था कि “आर्थिक स्वाधीनता के अभाव में राजनीतिक और नागरिक स्वतन्त्राएँ व्यर्थ हैं। आर्थिक नियोजन आर्थिक स्वाधीनता की ही कल्पना को साकार करने का प्रयास है।

  1. आर्थिक नियोजन और वित्त आयोग

    (Planning and the Finance Commission)- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 280 में एक निष्पक्ष वित्त आयोग की व्यवस्था की गयी है। वित्त आयोग का कार्य राज्यों की जरूरतों को पूरा करने के लिए तथा विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त असमानताओं को कम करने हेतु वित्तीय सहायता एवं वित्तीय अनुदानों की सिफारिश करना है। वित्त आयोग एक संवैधानिक संस्था है तथा अनुच्छेद 275 के अनुसार राज्यों को दी जाने वाली केन्द्रीय सहायता एवं अनुदान का स्वरूप एवं मात्रा तय करता है। 1950 में योजना आयोग के गठन के पश्चात् एक विवादास्पद स्थिति उत्पन्न हो गयी। अशोक चन्दा लिखते हैं, “एक सर्वोपरि आर्थिक संस्था के रूप में योजना आयोग ने संविधान द्वारा स्थापित वित्त आयोग के क्षेत्र में हस्तक्षेप कर संविधान के लक्ष्य को समाप्त कर दिया और कार्यों में ऐसा विघ्न उपस्थित हो गया है जिसमें योजना आयोग के विचार वित्त आयोग पर प्रभावी होते हैं।

  2. आर्थिक नियोजन और संघीय व्यवस्था

    (Planning and the Federal System)- आर्थिक नियोजन ने हमारी संघीय राज-व्यवस्था को अत्यधिक प्रभावित किया है। के० सन्थानाम के अनुसार, “नियोजन व्यवस्था ने नीति और वित्त सम्बन्धी सभी मामलों में राज्य की स्वायत्तता को एक छाया का रूप प्रदान कर दिया है।” ग्रेनविल ऑस्टिन ने लिखा है कि योजना ने भारत में लोकतन्त्र व संघवाद दोनों को मात दे दी है।

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