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गाँधीजी के राजनीतिक विचार- Part 1

गाँधीजी के राजनीतिक विचार

गाँधीजी के राजनीतिक विचार

(Political ideas of Gandhiji)

गाँधी, परम्परागत अर्थों में राजनीतिक दार्शनिक नहीं थे और न उन्होंने कभी ऐसा होने का दावा ही किया। गाँधी का राजनीतिक चिन्तन कर्म के दर्शन के माध्यम से, उद्देश्यों और साधनों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न करता है परन्तु जैसा कि जोन बोन्दुरा ने लिखा है “गाँधी का योगदान सामाजिक और राजनीतिक साधनों के विकास तक ही सीमित रहा, राजनीतिक चिन्तन की गहराइयों में प्रवेश करके उन्होंने राजनीतिक सिद्धान्तों की पूर्व कल्पित मान्यताओं को चुनौती दी।’ उनके प्रमुख राजनीतिक विचार इस प्रकार हैं-

राज्य सम्बन्धी धारणा : राज्य-विहीन समाज

गाँधीजी राज्य विरोधी थे। मार्क्सवादियों तथा अराजकतावादियों के समान वे एक राज्यविहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। वे दार्शनिक, नैतिक, ऐतिहासिक और आर्थिक कारणों के आधार पर राज्य का विरोध करते थे, अतः उनके सिद्धान्त को दार्शनिक अराजकतावाद (Philosophical Anarchism) कहा जाता है।

दार्शनिक आधार पर राज्य का विरोध करते हुए गाँधीजी का विचार है कि राज्य व्यक्ति के नैतिक विकास का मार्ग प्रशस्त नहीं करता। व्यक्ति के नैतिक विकास उसकी आन्तरिक इच्छाओं और कामनाओं पर निर्भर है, लेकिन राज्य संगठन शक्ति पर आधारित होने के कारण व्यक्ति के केवल बाहरी कार्यों को ही प्रभावित कर सकता है। राज्य अनैतिक इसलिए है कि वह हमें सब कार्य अपनी इच्छा से नहीं वरन् दण्ड के भय और कानून की शक्ति से बाधित कर कराना चाहता है।

राज्य के विरोध का एक कारण यह भी है कि वह हिंसा और पाशविक शक्ति पर आधारित है। राज्य कितना ही अधिक लोकतन्त्रात्मक क्यों न हो, उसका आधार सेना और पुलिस का पाशविक बल है। गाँधीजी अहिंसा के पुजारी हैं, वे राज्य का विरोध इसलिए करते हैं कि यह हिंसात्मक है।

राज्य के विरोध का तीसरा कारण इसके अधिकारों में निरन्तर वृद्धि होना है। इससे व्यक्ति के विकास में बड़ी बाधा पहुंच रही है। गाँधीजी ने एक बार यह कहा था-“मैं राज्य की सत्ता में वृद्धि को बहुत ही भय की दृष्टि से देखता हूँ, क्योंकि जाहिर तौर से तो वह शोषण को कम से कम करके लाभ पहुँचाती है, परन्तु मनुष्यों के उस व्यक्तित्व को नष्ट करके वह मानव जाति को अधिकतम हानि पहुँचाती है जो सब प्रकार की उन्नति की जड़ है।”

गाँधीजी : एक दार्शनिक अराजकतावादी

राज्य के सम्बन्ध में गाँधीजी की विचारधारा अराजकतावादी दार्शनिक क्रोपाटकिन और विशेष रूप से दार्शनिक अराजकतावादी टॉलस्टाय के विचारों से प्रभावित है। गाँधीजी ने नैतिक, दार्शनिक और ऐतिहासिक तीनों दृष्टिकोणों के आधार पर राज्य की कटु आलोचना की है। गाँधीजी राज्य को एक ऐसी हिसक संस्था मानते हैं जिसका कार्य निर्धन वर्ग का शोषण करना है। राज्य द्वारा नैतिकता का हनन किया जाता है, अतः या तो राज्य को समाप्त हो जाना चाहिए अन्यथा उसे व्यक्ति रूपी पुस्तक का अन्तिम अध्याय होना चाहिए । स्वयं गाँधीजी के शब्दों में, “राज्य केन्द्रित और संगठित रूप में हिंसा का प्रतिनिधित्व करता है। व्यक्ति एक सचेतन आत्मवान प्राणी है किन्तु राज्य एक ऐसा आत्महीन यन्त्र है जिसे हिंसा से पृथक् नहीं किया जा सकता क्योंकि इसकी उत्पत्ति ही हिंसा से हुई है।”

गाँधीजी के राज्यविहीन समाज में सभी व्यक्ति पूर्णतया अहिंसक होंगे। उनकी सभी आवश्यकताएँ पूरी होंगी-अतः अपराध नहीं होंगे। फिर पुलिस की आवश्यकता है ही नहीं। यदि कहीं छुट-पुट अपराध हुए तो उनका निर्णय ग्राम पंचायत कर लिया करेगी। ऐसे समाज में सभी अपने शासक होंगे। वे अपने ऊपर इस प्रकार शासन करेंगे कि दूसरों के मार्ग में बाधक न बनें।

जीवन स्वच्छ, निर्मल और सादा होगा। न बड़े-बड़े नगर होंगे, न गन्दी बस्तियाँ । न आधुनिक सभ्यता की तड़क-भड़क होगी और न उससे उत्पन्न रोग । न बड़ी-बड़ी मशीनें होंगी और न ही मनुष्य का शोषण ।

सिद्धान्त रूप में राज्य के अस्तित्व के विरुद्ध होने पर भी गाँधीजी वर्तमान परिस्थितियों में राज्य को समाप्त करने के पक्ष में नहीं थे। उनका विचार था कि वर्तमान समय में मानव जीवन इतना पूर्ण नहीं है कि वह स्वयं संचालित हो सके, इसीलिए समाज में राज्य और राजनीतिक शक्ति की आवश्यकता है, लेकिन इसके साथ-साथ ही उनका विचार है कि राज्य का कार्यक्षेत्र न्यूनतम होना चाहिए। इस प्रकार गाँधीजी के राज्य सम्बन्धी विचारों को ‘सैद्धान्तिक दृष्टि से अराजकतावादी तथा व्यवहार में व्यक्तिवादी’ कहा जा सकता है। किन्तु गाँधीजी न तो क्रोपाटकिन और बाकुनिन की तरह हिंसा के आधार पर राज्य को समाप्त करने के पक्ष में थे और न ही उनका व्यक्तिवाद वह पाश्चात्य व्यक्तिवाद है जिसका परिणाम पूँजीवादी अर्थ व्यवस्था की स्थापना होती है।

राज्य को एक आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकार करते हुए गाँधीजी ने राज्य के प्रभाव और शक्ति को न्यूनतम करने का प्रयल किया, जिससे राज्य के होते हुए भी व्यक्ति वास्तविक रूप में स्वतन्त्रता प्राप्त कर सके। इस सम्बन्ध में गाँधीजी के द्वारा तीन सुझाव दिये गये हैं, जो इस प्रकार हैं-

  1. सत्ता का विकेन्द्रीकरण गाँधीजी के द्वारा सर्वाधिक महत्वपूर्ण सुझाव राजनीतिक क्षेत्र में सत्ता के विकेन्द्रीकरण का दिया गया है। राजनीतिक क्षेत्र में सत्ता के विकेन्द्रीकरण से उनका अभिप्राय यह था कि ग्राम पंचययत को अपने गाँवों का प्रबन्ध और प्रशासन करने के सब अधिकार दे दिये जायें। उनका कहना था कि सत्ता का विकेन्द्रीकरण सदैव ही हानिकारक होता है। इसके परिणामस्वरूप कुछ थोड़े से व्यक्ति राज्य की सत्ता पर एकाधिकार स्थापित कर लेते हैं और छल कपट द्वारा उनके साधनों का प्रयोग अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए करते हैं जिसे रोकने का उपाय सत्ता का विकेन्द्रीकरण ही हो सकता है। राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी गाँवों का चित्र उपस्थित करते उन्होंने लिखा है, “मेरे ग्राम स्वराज्य का आदर्श यह है कि प्रत्येक ग्राम एक पूर्ण गणराज्य हो। अपनी आवश्यक वस्तुओं के लिए यह अपने पड़ोसियों पर निर्भर न रहे। इस प्रकार प्रत्येक ग्राम का पहला काम होगा खाने के लिए अन्न और कपड़ों के लिए रूई की फसल उत्पन्न करना। ग्राम की अपनी नाट्यशाला, सार्वजनिक भवन और पाठशाला भी होनी चाहिए। प्रारम्भिक शिक्षा अन्तिम कक्षा तक अनिवार्य होगी। यथासम्भव प्रत्येक कार्य सहकारिता के आधार पर किया जायेगा। गाँव का शासन पाँच व्यक्तियों की पंचायत द्वारा संचालित होगा। पंचायत ही गाँव की व्यवस्थापिका सभा, कार्यकारिणी व न्यायपालिका सभी कुछ होगी।
  2. प्रभुसत्ता का विरोधबहुलवादियों तथा अराजकतावादियों की भाँति गाँधीजी राज्य की ऐसी निरंकुश प्रभुसत्ता के विरोधी थे; जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का प्रधान कर्तव्य आँख मूंदकर राज्य की आज्ञा का पालन करना है। इसके विपरीत गाँधीजी विशुद्ध नैतिक सत्ता पर आधारित जनता की प्रभुसत्ता में विश्वास रखते थे। वे नैतिकता का विरोध करने वाले सभी कानूनों का प्रतिरोध करने का व्यक्ति को अधिकार ही नहीं प्रदान करते हैं, अपितु उसका यह कर्त्तव्य समझते हैं। उनके मतानुसार सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना के लिए ऐसी व्यवस्था आवश्यक है, किन्तु इससे उत्पन्न होने वाली अराजकता के दोष को कम करने के लिए उन्होंने राजकीय कानूनों की अवहेलना को अहिंसात्मक और सविनय बताया है और सत्याग्रह के लिए बड़ी कड़ी शर्ते रखी हैं, इनसे अराजकता और उच्छृखलता की प्रवृत्ति पर बड़ी मात्रा में नियन्त्रण रखा जा सकता है।
  3. राज्य का न्यूनतम कार्यक्षेत्र राज्यसत्ता की बुराइयों को दूर करने के लिए गाँधीजी का सुझाव था कि राज्य का कार्यक्षेत्र न्यूनतम होना चाहिए। उसके द्वारा व्यक्ति के जीवन में कम से कम हस्तक्षेप होना चाहिए। वे थोरो के इस विचार से सहमत थे कि सर्वोत्तम सरकार वह है जो सबसे कम शासन करती है। उनका कहना था कि स्वराज्य का अर्थ यह है कि व्यक्ति को सरकार के नियन्त्रण से स्वतन्त्र होने का निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए चाहे वह सरकार विदेशी हो या राष्ट्रीय ।

आदर्श राज्य : अहिंसात्मक राज्य की विशेषताएँ 

गाँधीजी ने प्लेटो के समान ही दो आदर्शों का वर्णन किया है-प्रथम, पूर्ण आदर्श, जिसे वे ‘राम-राज्य’ कहते हैं और द्वितीय, उप-आदर्श, जिसे ‘वे अहिंसात्मक समाज’ कहकर पुकारते हैं। उनके पूर्ण आदर्श सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत राज्य के लिए कोई स्थान नहीं है। वे राज्यविहीन समाज (Stateless Society) की स्थापना करना चाहते थे। इसमें सब व्यक्ति सामाजिक जीवन का स्वयमेव अपनी इच्छा से नियमन करते हैं, मनुष्यों का इतना अधिक विकास हो जाता है कि वे अपने कर्तव्यों और नियमों का स्वेच्छापूर्वक पालन करते हैं। लेकिन गाँधीजी यथार्थवादी थे और उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है कि मानव स्वभाव की वर्तमान स्थिति को देखते हुए पूर्ण आदर्श की स्थापना सम्भव नहीं है। इसलिए उनके द्वारा व्यावहारिक दृष्टिकोण से उप आदर्श की कल्पना की गयी है। उनके उप-आदर्श राज्य (अहिंसात्मक राज्य) की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

  1. अहिंसात्मक समाजगाँधीजी अपने आदर्श राज्य को अहिंसात्मक समाज के नाम से भी पुकारते हैं। गाँधीजी के इस आदर्श समाज में राज्य संस्था को अस्तित्व रहेगा और पुलिस, जेल, सेना तथा न्यायालय आदि शासन की बाध्यकारी सत्ताएँ भी होंगी। फिर भी यह इस दृष्टि से अहिंसक समाज है कि इसमें इन सत्ताओं का प्रयोग जनता को आतंकित और उत्पीड़न करने के लिए नहीं वरन् उसकी सेवा करने के लिए किया जायेगा। इस आदर्श समाज में कभी-कभी समाज-विरोधी तत्वों के विरुद्ध दबाव का प्रयोग करना पड़ सकता है किन्तु इस दबाव का रूप सत्याग्रह का होगा हिंसात्मक नहीं।
  2. शासन का लोकतान्त्रिक स्वरूप गाँधीजी के आदर्श समाज में शासन का रूप पूर्णतया लोकतान्त्रिक होगा। जनता को न केवल मत देने का अधिकार प्राप्त होगा वरन् जनता सक्रिय रूप से शासन के संचालन में भी भाग लेगी। शासन सत्ता सीमित होगी और सभी सम्भव रूपों में जनता के प्रति उत्तरदायी होगी।
  3. विकेन्द्रीकृत सत्तागाँधीजी के आदर्श राज्य का एक प्रमुख लक्षण विकेन्द्रीकृत सत्ता है। गाँधीजी सम्पूर्ण भारत में प्राचीन ढंग के स्वतन्त्र और स्वावलम्बी ग्राम समाजों की स्थापना करना चाहते थे जिसका आधार ग्राम पंचायतें होंगी। विकेन्द्रीकरण को और अधिक सफल बनाने के लिए गाँधीजी का सुझाव था कि ग्राम पंचायतों का निर्वाचन तो प्रत्यक्ष रूप से हो, लेकिन ग्राम के ऊपर जो भी प्रशासनिक इकाइयाँ हों, जैसे प्रादेशिक सरकार, राष्ट्रीय सरकार आदि के विधान मण्डलों का चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से हो जिससे सत्ता का समस्त केन्द्र ग्राम पंचायतें ही बनी रहें। इस प्रकार की व्यवस्था में गाँवों में स्वशासन और स्वावलम्बन की भावना उत्पन्न होगी और वे वास्तविक अर्थ में स्वतन्त्र होंगे।
  4. आर्थिक क्षेत्र विकेन्द्रीकरण गाँधीजी के आदर्श राज्य में आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण को अपनाने का सुझाव दिया गया है। विशाल तथा केन्द्रीयकृत उद्योग लगभग समाप्त कर दिये जायेंगे और उनके स्थान पर कुटीर उद्योग चलाये जायेंगे। उन मशीनों का तो प्रयोग किया जा सकेगा जो व्यक्तियों के लिए सुविधाजनक होंगी किन्तु मशीनों का मानवीय श्रम के शोषण का साधन नहीं बनाया जायेगा। हर गाँव अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ स्वयं उत्पन्न करेगा और प्रत्येक व्यक्ति अपने उत्पादन के साधनों का स्वयं स्वामी होगा। इस प्रकार आर्थिक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा और शोषण का अन्त हो जायेगा।
  5. नागरिक अधिकारों पर आधारित गाँधीजी का आदर्श समाज स्वतन्त्रता, समानता तथा अन्य नागरिक अधिकारों पर आधारित होगा। इस समय में प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार व्यक्त करने और समुदायों के निर्माण की स्वतन्त्रता होगी। इस समाज के अन्तर्गत जाति, धर्म, भाषा, वर्ण और लिंग आदि भेदभाव के बिना सभी व्यक्तियों को समान सामाजिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त होंगे।
  6. निजी सम्पत्ति का अस्तित्व इस आदर्श राज्य में निजी सम्पत्ति की प्रथा का अस्तित्व होगा, किन्तु सम्पत्ति के स्वामी अपनी सम्पत्ति का प्रयोग निजी स्वार्थ के लिए नहीं वरन् समस्त समाज के कल्याण के लिए करेंगे। वे यह समझ कर कार्य करेंगे कि उनके पास जो सम्पत्ति है उनका वास्तविक स्वामी समाज ही है और समाज के द्वारा उन्हें इस सम्पत्ति का संरक्षक या ट्रस्टी नियुक्त किया गया है।
  7. प्रत्येक व्यक्ति के लिए श्रम अनिवार्थ इस आदर्श समाज में प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने भरण-पोषण हेतु श्रम करना अनिवार्य होगा। कोई भी मनुष्य अपने निर्वाह के लिए दूसरों की कमाई हड़पने का प्रयत्न नहीं करेगा और बौद्धिक श्रम करने वाले व्यक्तियों के लिए भी थोड़ा बहुत शारीरिक श्रम करना अनिवार्य होगा। सभी व्यक्तियों के द्वारा कुछ न कुछ शारीरिक श्रम किये जाने पर समाज में वास्तविक समानता स्थापित हो सकेगी।
  8. वर्ण व्यवस्था गाँधीजी का”आदर्श समाज वर्ण व्यवस्था पर आधारित होगा। प्राचीन काल की भाँति समाज चार वर्गों में विभाजित होगा-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । प्रत्येक वर्ण वंश परम्परा के आधार पर अपना कार्य करेगा, किन्तु विविध वर्गों के व्यक्तियों को सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक क्षेत्र में समान अधिकार प्राप्त होंगे और किसी प्रकार की ऊँच-नीच की भावना नहीं होगी।
  9. अस्पृश्यता का अन्त गाँधीजी अस्पृश्यता को भारतीय समाज के लिए कलंक मानते थे और उनके आदर्श समाज में अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान नहीं था।
  10. धर्म निरपेक्ष समाज इस समाज में किसी एक विशेष धर्म को राज्य का आश्रय प्राप्त नहीं होगा। राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान होंगे और सभी धर्मों के अनुयायियों को समान सुविधाएँ प्राप्त होंगी।
  11. गौवध निषेध गाँधीजी भारत जैसे राज्य में धार्मिक तथा आर्थिक दोनों ही दृष्टि से गाय की रक्षा को बहुत अधिक आवश्यक मानते थे। इसलिए उनके द्वारा अपने आदर्श समाज में गौ-हत्या का निषेध किया गया है।
  12. मद्य निषेधगाँधीजी का निश्चित विचार था कि मद्य और अन्य मादक पदार्थों का प्रयोग व्यक्तियों का चारित्रिक पतन करता है। अतः उनके आदर्श समाज में मादक पदार्थों का न तो उत्पादन होगा न उनकी बिक्री।
  13. निःशुल्क प्राथमिक शिक्षागाँधीजी के आदर्श समाज में गाँव-गाँव में बुनियादी तालीम देने के लिए स्वावलम्बी पाठशालाएँ होंगी, जिससे प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क प्रदान की जायेगी।
  14. पुलिस और सेनागाँधीजी मानते थे कि सभी व्यक्ति अहिंसावादी नहीं हो सकते। समाज-विरोधी तत्वों का दमन करने के लिए पुलिस की आवश्यकता यदा-कदा पड़ सकती है परन्तु आधुनिक पुलिस से उसका स्वरूप भिन्न होगा। आदर्श राज्य की पुलिस जनता की वास्तविक सहायक और सेवक होगी। व्यक्ति नौकरी पाने के लिए नहीं अपितु जनता की सेवा की भावना से पुलिस में भर्ती होंगे। पुलिस अपने कार्य में अहिंसा का सहारा लेगी। आदर्श राज्य में सेना नहीं होगी। चूँकि आदर्श राज्य केवल एक देश तक सीमित नहीं है, वह सम्पूर्ण विश्व के लिए एक आदर्श व्यवस्था है। ऐसी स्थिति में संसार के देश युद्ध-प्रिय नहीं, शान्ति-प्रिय होंगे । शान्ति के लिए यदि किसी सेना की आवश्यकता हो तो वह होगी ‘शान्ति सेना।’

गाँधीजी के आदर्श राज्य में न्याय व्यवस्था का स्वरूप ऐसा नहीं होगा जैसा कि आज है। आधुनिक न्याय प्रणाली महँगी और पेचीदा है। गाँधीजी के अनुसार न्याय मार्ग पंचायतों द्वारा होगा अथवा मध्यस्थों द्वारा।

आदर्श राज्य में डॉक्टरों की लम्बी-चौड़ी फौज की आवश्यकता नहीं होगी। कार्य करने की परिस्थितियाँ स्वस्थ होंगी। बड़े बड़े नगर और मशीनें नहीं होंगी। रोग और गन्दगी का अभाव होगा। फिर भी यदि कुछ डॉक्टर हुए तो वे समाज सेवी होंगे, धन-लोलुप नहीं।

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