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अरविन्द घोष के राजनीतिक चिन्तन के आध्यात्मिक आधार

अरविन्द घोष के राजनीतिक चिन्तन 

अरविन्द के राजनीतिक चिन्तन के आध्यात्मिक आधार

(Metaphysical Foundations of Aurobindo’s Political Thoughts)

महर्षि अरविन्द के राजनीतिक चिन्तन और कार्य कलापों को हम तब तक भलीभाँति नहीं समझ सकते जब तक हम इस आधार को लेकर न चलें कि उनके लिए राजनीति और आध्यात्मिकता के बीच एक घनिष्ठ सम्बन्ध था और इसी कारण उनकी राजनीति किसी भी अन्य राष्ट्रवादी नेता की राजनीति से भिन्न रही। अरविन्द की राजनीति एक योगी की राजनीति थी, एक राजनीतिज्ञ की नहीं। “उनके राजनीतिक चिन्तन का सुदृढ़ आधार उनके गहरे आध्यात्मिक विश्वासों में निहित था और उन्हीं में से उस चिन्तन का विकास हुआ। उनके लिए राजनीति वैयक्तिक, राष्ट्रीय एवं वैश्विक आध्यात्मिक विकास के सिद्धान्त का विस्तार ही थी।”

अरविन्द ने देश के स्वाधीनता संग्राम में तभी रुचि लेना आरम्भ कर दिया था जब वे इंग्लैण्ड में थे। लेकिन इंग्लैण्ड के आवास-काल में ही उनके हृदय में आध्यात्मिक अनुभव भी जाग्रत हुए। 1893 में बम्बई में जहाज से उतरते ही उन्हें सुस्पष्ट आध्यात्मिक अनुभव हुई। 1901 में एक बार गाड़ी में चलते समय उन्हें ऐसा लगा मानों उनके शरीर से कोई दिव्य आकृति बाहर आई और उसने गाड़ी को दुर्घटना से बचा लिया। 1903 में कश्मीर यात्रा के दौरान शंकराचार्य पर्वत पर घूमते समय उन्हें ऐसी आध्यात्मिक अनुभूति हुई जैसे कि वे ‘शून्य निस्सीम’ में विचरण कर रहे हों। बड़ौदा-आवास-काल में आध्यात्मिक पहलू अरविन्द के लिए बहुत महत्वपूर्ण बन गया। उनकी आध्यात्मिक अनुभूति को पूर्णता पाण्डिचेरी में प्राप्त हुई। वहाँ योगाभ्यास द्वारा उनकी आत्मा सर्वोत्कृष्ट रूप में विकसित हुई और अपने आध्यात्मिक बल से वे भारत की स्वाधीनता के लिए कार्य करते रहे। उन्होंने स्वयं को अभिव्यक्त करते हुए बताया कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं परमात्मा की इच्छा से कर रहे हैं।

अरविन्द के लिए भारत की स्वाधीनता का अर्थ कोरी राजनीतिक स्वाधीनता नहीं था वरन् यह था कि भारत का लक्ष्य मानव-जाति को आध्यात्मिक नेतृत्व प्रदान करना है और चूँकि एक पराधीन भारत विश्व को आध्यात्मिकता का सन्देश देने तथा मानव-जाति का पथ प्रदर्शक बनने में सहायक नहीं है, अतः उसे स्वाधीन होकर आध्यात्मिकता के प्रसार के उच्च लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए । श्री अरविन्द ने इस बात पर जोर दिया कि उनका योग केवल व्यक्तिगत मुक्ति का मार्ग नहीं है बल्कि सारी मानव-जाति के हित के लिए है। अरविन्द ने कहा कि योगी का कर्त्तव्य है कि वह ऊपर बढ़ने के बाद फिर से नीचे आये ताकि वह जन साधारण का भी मार्गदर्शन कर सके और प्रकृति के कण-कण को उन्नति के पथ पर लाने में सहयोगी बन सके । अरविन्द को यह अनुभूति हो चुकी थी कि आध्यात्मिक शक्ति और योग साधना द्वारा एक ऐसे आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण सम्भव है जिसके द्वारा भारत अपने अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति कर सके।

अरविन्द का विश्वास था कि कठिन आध्यात्मिक यात्रा से ही मानव-जाति का कल्याण सम्भव है। पहले अधिक विकसित कुछ आत्माएँ उठेगी और वे ही शेष मानव समाज का मार्गदर्शन करेंगी। इन महान् आत्माओं को कष्ट झेल कर ही दूसरों के लिए मार्ग प्रशस्त करना होगा। अरविन्द का विश्वास था कि भारत में सदैव आध्यात्मिक विचारों और क्रियाओं की एक दीर्घ और गहन परम्परा रही है, अतः यह स्वाभाविक है कि विकास की दिशा के इस अभियान में भारत अगुवा बने। अरविन्द ने राष्ट्र और राष्ट्रीयता विषयक जो धारणाएँ प्रकट की उनसे स्पष्ट होता है वे कि भारत की राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की कामना केवल भारत के हित की दृष्टि से नहीं करते थे। उनकी कामना का वास्तविक हेतु तो यह था कि भारत स्वतन्त्र होकर ही संसार के आध्यात्मिक पुनरुद्धार में सच्चा योग दे सकता है और मानवता के आध्यात्मिक विकास का पथ प्रशस्त कर सकता है। उनका सूक्ष्म सम्प्रत्ययवाद वह सुदृढ़ आधारशिला है जिस पर उनके राजनीतिक सिद्धान्तों का विशाल भवन खड़ा है।

स्पष्ट है कि अरविन्द ने पाण्डिचेरी जाकर भारत के स्वाधीनता संग्राम से मुख नहीं मोड़ा और न ही भारत के प्रति अपनी देश-भक्ति को झुठलाया, वरन् केवल अपना कार्य-क्षेत्र बदल दिया। कर्म-क्षेत्र वही था पर कार्य करने की पद्धति भिन्न थी। उन्होंने राजनीति को प्रभावित करने का साधन बदल दिया था। भारत के लक्ष्यों को भौतिक साधनों द्वारा प्राप्त करने का भार उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन के अन्य लोगों पर छोड़ दिया था और अपने आध्यात्मिक साधनों द्वारा उन लक्ष्यों को पूरा करने का बोझा वहन किया था। अगस्त, 1905 में ही उन्होंने अपनी धर्मपत्नी को एक पत्र में संकेत दे दिया था कि “मैं इस पतित जाति का उद्धार करने की शक्ति रखता हूँ। शक्ति भौतिक नहीं है। मैं तलवार अथवा बन्दूक से नहीं लडूंगा, बल्कि यह ज्ञान की शक्ति है।” अरविन्द का यह दावा कि उनमें भारत को स्वाधीन कराने की शक्ति है तो स्पष्ट रूप से उनका संकेत उस आध्यात्मिक शक्ति की ओर था जो ईश्वरीय कृपा से उनके भीतर विकसित हो रही थी और जिसके बारे में उनका विश्वास था कि वह कभी विफल नहीं हो सकती। जहाँ अन्य राष्ट्रीय नेताओं ने भौतिक साधनों से भारत का स्वाधीनता संग्राम लड़ा वहाँ अरविन्द ने आध्यात्मिक शक्तियों से इस युद्ध का संचालन किया।

अरविन्द के लिए भारत को भौगोलिक इकाई या विशाल जनसमूह मात्र नहीं था। वे भारत को एक वास्तविक, सजीव और आध्यात्मिक सत्ता मानते थे। उनका विश्वास था कि भारत इस महान् मानवता में विकासमान आत्मा की एक शक्ति है। पाण्डिचेरी में रहते हुए उन्होंने अपनी आध्यात्म साधना द्वारा देश को स्वतन्त्रता के पथ पर बढ़ते हुए उसकी आत्मा की इसी शक्ति को अधिकाधिक उँचा उठाने का प्रयत्न किया। “अरविन्द के लिए स्वाधीनता केवल राजनीतिक लक्ष्य नहीं थी, न सांविधानिक व्यवस्था का पुनर्निरूपण ही थी, वह तो एक मूलभूत आध्यात्मिक अनिवार्यता थी, जिसके बिना राष्ट्र के रूप में भारत का केवल नाम शेष रह जाएगा और मानव-जाति हमेशा के लिए उस आध्यात्मिक प्रकाश से वंचित रह जाएगी जो विदेशी बन्धनों से मुक्त होने पर भारत संसार भर में फैला सकता है।

अरविन्द ने आध्यात्मिक चिन्तन के क्षेत्र में एक नये सिद्धान्त को विकसित किया जिसके द्वारा उन्होंने जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण को बल दिया। उन्होंने जीवन को एक काल कोठरी अथवा दुःख का घर मानने से इन्कार करते हुए जीवन के प्रति चिन्तन को एक नवीन दिशा दी तथा आध्यात्मिक और भौतिकता का समन्वय कर दिया। जिस प्रकार अनेक वैज्ञानिक ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं उसी प्रकार अरविन्द ने भौतिकता के साथ ही आध्यात्मिकता को प्रकट किया। पाण्डिचेरी में आध्यात्मिक साधना में लीन रहते हुए भी अरविन्द भारत और संसार की भौतिक घटनाओं के प्रति सचेत रहे और आवश्यकता पड़ने पर आध्यात्मिक ढंग से उन्होंने अपना सक्रिय हस्तक्षेप भी किया। अरविन्द का दावा था कि द्वितीय महायुद्ध काल में आन्तरिक रूप से उन्होंने अपनी आध्यात्मिक शक्ति को मित्र राष्ट्रों के पीछे डन्क के क्षण से ही रख दिया जबकि प्रत्येक व्यक्ति इंग्लैण्ड के अविलम्ब पतन और हिटलर की निश्चित विजय की आशा कर रहा था। अरविन्द को यह देखकर संतोष हुआ कि आध्यात्मिक शक्ति के बल पर जर्मन-विजय के तूफान को एकदम नियन्त्रित कर दिया गया है और युद्ध की बाढ़ विपरीत दिशा में मुड़ने लगी है। अरविन्द ने ईश्वर की सत्ता में प्रखण्ड विश्वास रखा और इस विश्वास का दुरुपयोग कभी नहीं किया। उनकी यह मान्यता रही कि ईश्वर में विश्वास का अभिप्राय यह नहीं कि मनुष्य अपने जीवन के प्रति निराश और उदासीन हो जाए। अरविन्द ने इस मानवतावादी विचार का प्रतिपादन किया कि हमें अपने जीवन से भागकर ईश्वर तक पहुँचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए वरन् हमारा प्रयत्न यह होना चाहिए कि ईश्वर स्वयं हमारे बीच यहीं इस संसार में हमारे जीवित रहते उतर आए। उन्होंने कहा कि ईश्वर इस सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है और अभिव्यक्त होता रहता है तथा ज्यों-ज्यों ईश्वर की यह अभिव्यक्ति बढ़ती जाएगी त्यों-त्यों मानव समाज अधिकाधिक उदात होता जाएगा।

अरविन्द का विचार था कि भारत और यूरोप दोनों ही अति की ओर चले हैं। उनको आशा थी कि भारतीय आध्यात्मवाद और यूरोपीय लौकिकवाद तथा भौतिकवाद के बीच सामन्जस्य स्थापित किया जा सकता है और यह एक ऐसे दर्शन की सृष्टि करके ही सम्भव हो सकता है जिसमें पदार्थ (भूत द्रव्य) तथा आत्मा दोनों के महत्व को स्वीकार किया जाए। अपने दार्शनिक ग्रन्थों में उन्होंने इसी प्रकार के सामन्जस्य का प्रयत्न किया।

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