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गाँधी जी का राजनीतिक चिंतन- Part 2

गाँधी जी का राजनीतिक चिंतन

गाँधी जी का राजनीतिक चिंतन

गाँधीजी के आदर्श राज्य की व्यावहारिकता

गाँधीजी का अहिंसक समाज क्या इस पृथ्वी पर सम्भव है ? अथवा उनका चिन्तन प्लेटो की भाँति कल्पना लोक का ही विषय है ? गाँधीजी स्वयं मानते थे कि उनके आदर्श समाज की स्थापना पूर्ण रूप से कभी सम्भव नहीं है। उन्हीं के शब्दों में, “एक सरकार कभी भी पूर्ण रूप अहिंसक नहीं बन सकती है क्योंकि इसमें सभी प्रकार के व्यक्ति रहते हैं। मैं ऐसे स्वर्ण युग की कल्पना नहीं करता जब ऐसा समाज स्थापित होगा। किन्तु मैं ऐसे समाज की स्थापना में विश्वास रखता हूँ जो प्रधान रूप से अहिंसक हो और मैं इसके लिए प्रयत्न कर रहा हूँ। अगर हम ऐसे समाज के लिए प्रयत्न करते रहें तो वह किसी हद तक धीरे-धीरे बनता रहेगा और उस हद तक लोगों को उससे फायदा पहुँचेगा।”

व्यक्ति का साध्य तथा राज्य का साधन होना

(Individual as an End State as a Means)

गाँधीजी यह मानते थे कि राज्य अपने आप में कोई साध्य नहीं है, अपितु व्यक्तियों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी परिस्थितियों को उत्कृष्ट बनाने में सहायता देने का साधन है। व्यक्ति राज्य के लिए नहीं अपितु राज्य व्यक्ति के लिए है। राज्य का प्रधान कार्य सभी व्यक्तियों के अधिकतम हित का सम्पादन करना है। इसका लक्ष्य सर्वोदय अर्थात् व्यक्तियों का कल्याण है।

संसदीय शासन, प्रतिनिधित्व और बहुमत शासन

गाँधीजी ने ब्रिटिश संसद की आलोचना करते हुए इसकी तुलना ‘बाँझ और वेश्या’ से की है। उनके अनुसार “वह वेश्या इसलिए है कि जो मन्त्रिमण्डल वह बनाती है, उसके वश में रहती है। आज उसके स्वामी एस्क्विथ हैं, कल बालफोर तथा परसों कोई और। जिस समय बड़े-बड़े मामलों पर बहस हो रही होती है उस समय उसके मेम्बर लम्बी तानते हैं या बैठे-बैठे झपकियाँ लिया करते हैं.”

किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वे प्रतिनिधि संस्थाओं और चुनावों के विरोधी थे। गाँधीजी ने चुनाव के लिए खड़े होने वाले उम्मीदवारों के लिए बड़ी कड़ी योग्यताएँ प्रस्तावित की हैं। उनके मतानुसार उन्हें स्वार्थरहित, योग्य तथा भ्रष्टाचार से मुक्त, आत्म-विज्ञापन से दूर रहने वाला, पद-लोलुपता से रहित तथा छिद्रान्वेषण के दूषण मुक्त होना चाहिए। वोट प्रचार द्वारा नहीं, बल्कि सेवा द्वारा प्राप्त किये जाने चाहिए। मतदाताओं के लिए आवश्यक योग्यता की शर्त सम्पत्ति या सामाजिक स्थिति की नहीं, अपितु शारीरिक श्रम की होनी चाहिए।

लोकतन्त्र की एक विशेषता बहुमत द्वारा शासन है। किन्तु गाँधीजी के मतानुसार इसका यह अभिप्राय नहीं है कि बहुमत सदैव अन्य मत की अवहेलना करे। लोकतन्त्र ऐसा शासन नहीं है कि जिसमें जनता भेड़-चाल का अनुसरण करे । बहुमत के नियम का यह अर्थ नहीं है कि यह एक व्यक्ति द्वारा प्रतिपादित ठीक सम्मति का भी दमन करे। यदि एक व्यक्ति की सम्मति ठीक हो तो इसको अनेक व्यक्तियों की सम्मति से अधिक महत्व दिया जाना चाहिए। गाँधीजी इस बात पर भी बल देते थे कि बहुमत को अल्पसंख्यकों के प्रति उदार होना चाहिए और अल्पमत पर बहुमत का अत्याचार नहीं होना चाहिए।

अधिकार और कर्त्तव्य

(Rights and Duties)

गाँधीवादी दर्शन में मानव अधिकार और कर्त्तव्य का भी प्रतिपादन किया गया है। उनका विचार था कि भारत के प्रत्येक व्यक्ति को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, संगठन की स्वतन्त्रता व धर्म और अन्त करण की स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए। अल्पमतों को अपनी संस्कृत, भाषा और लिपि का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। जाति और लिंग-भेद के बिना व्यक्तियों को कानून के समक्ष समान समझा जाना चाहिए । गाँधीजी मानव अधिकारों की अपनी इस सूची में नवीन वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन करने के लिए तैयार थे।

मानव अधिकारों की इस प्रकार की सूची को देखते हुए गाँधीवादी दर्शन अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों पर अधिक बल देता है। गाँधीजी के अनुसार, “कर्त्तव्य-पालन का अधिकार ही सर्वोच्च अधिकार है और कर्त्तव्यपालन के बिना किसी भी प्रकार के अधिकार की कल्पना नहीं की जा सकती है।” वास्तव में कर्त्तव्यपालन में ही अधिकारों की प्राप्ति होती है। स्वयं गाँधीजी के शब्दों में, “अधिकारों का वास्तविक स्रोत कर्त्तव्य ही है। यदि हम कर्तव्यों का पालन करें तो अधिकार हम से दूर नहीं रह जायेंगे। लेकिन यदि हम कर्तव्यों को अधूरा छोड़कर अधिकारों के पीछे दौड़ेंगे तो अधिकार हमसे मृगतृष्णा के समान दूर होते जायेंगे।” आगे वे लिखते हैं-“कर्म कर्त्तव्य है, फल अधिकार है।”

राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रीयवाद

(Nationalism and Internationalism)

यद्यपि गाँधीजी मानवतावादी विचारक थे और उनका दृष्टिकोण ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का था किन्तु इसके साथ ही वे राष्ट्र और राष्ट्रवाद के समर्थक थे। उनका कथन था कि मानव जाति के विकास में सार्वजनिक जीवन के अनेक स्तर देखने को मिलते हैं जैसे परिवार, जाति, गाँव, प्रदेश और राष्ट्र। इन सब को पार करने के बाद ही विश्व-बन्धुत्व या अन्तर्राष्ट्रीयता के अन्तिम आदर्श को प्राप्त किया जा सकता है। अतः व्यक्ति का सामाजिक कर्तव्य परिवार से आरम्भ होता है और मानवता की सेवा तक पहुँचता है। पहले की सामाजिक इकाइयों के प्रति अपने कर्तव्य का पालन न कर मानवता की सेवा की बात करना अपने उत्तरदायित्व से विमुख होना है।

अपनी उपर्युक्त विचाराधारा के आधार पर गाँधीजी का कथन था कि प्रत्येक व्यक्ति के अपने देश के प्रति कुछ विशेष कर्त्तव्य होते हैं, जिन्हें उसके द्वारा आवश्यक रूप से पूरा किया जाना चाहिए। गाँधीजी के इन विचारों और उनके द्वारा भारतीय स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व किये जाने के कारण उन्हें एक महान् राष्ट्रवादी कहा जा सकता है। लेकिन गाँधीजी संकीर्ण या उग्र राष्ट्रवाद के उपासक नहीं थे। वे तो एक रचनात्मक और मानवतावादी राष्ट्रीयता के उपासक थे, जिसके आधार पर ही अन्तर्राष्ट्रवाद के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। गाँधीजी राष्ट्रवाद को अन्तर्राष्ट्रवाद के मार्ग की एक बाधा नहीं समझते थे और उनका विचार था कि अन्तर्राष्ट्रवाद और विश्व बन्धुत्व के लिए राष्ट्रीयता आधार का कार्य करती है। स्वयं उन्हीं के शब्दों में, “मेरे विचार से बिना राष्ट्रवादी हुए अन्तर्राष्ट्रवादी होना असम्भव है। अन्तर्राष्ट्रवाद तभी सम्भव हो सकता है, जबकि राष्ट्रवाद एक यथार्थ बन जाए।”

भारत के स्वाधीनता संग्राम के नेतृत्व में भी राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता की यह अन्योन्याश्रिता ही महात्मा गाँधी का मार्गदर्शक रही। उन्होंने राष्ट्रीयता को कभी भी संकीर्ण, स्वार्थी और एकाकी अर्थों में ग्रहण नहीं किया और भारत के राष्ट्रीय संघर्ष में उन्होंने मानवता के व्यापक हितों की अवहेलना कभी नहीं की। उन्होंने ‘यंग इण्डिया’ के 4 अप्रैल, 1929 के अंक में लिखा था कि मैं भारत का उत्थान इसलिए चाहता हूँ कि जिससे सम्पूर्ण विश्व का हित हो सके। मैं भारतवर्ष का उत्थान दूसरे राष्ट्र के विनाश पर नहीं चाहता । मैं उस राष्ट्रभक्ति की निन्दा करता हूँ जो हमें दूसरे राष्ट्रों के शोषण तथा मुसीबतों से लाभ उठाने के लिए उत्साहित करती है।”

इसके अतिरिक्त गाँधीजी स्वावलम्बी और स्वाधीन इकाइयों के समर्थक होते हुए भी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को परम आवश्यक मानते थे और चाहते थे कि विश्व के राष्ट्र आत्मनिर्भरता की आत्मघातक नीति को छोड़कर अन्तनिर्भर रहते हुए विश्व संघ की स्थापना करें। गाँधीजी की कल्पना का विश्व अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति, सहयोग और मित्रता का विश्व था। इस प्रकार गाँधीजी राष्ट्रवादी और अन्तर्राष्ट्रवादी दोनों थे।

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