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मानवेन्द्र नाथ राय का मौलिक मानववाद

मानवेन्द्र नाथ राय का मौलिक मानववाद

मानवेन्द्र नाथ राय का मौलिक मानववाद

(ROY’S RADICAL HUMANISM)

“व्यक्ति के जीवन और उसके व्यक्तित्व में विवेक सार्वभौमिक समन्वय की प्रतिध्वनि है।”

-एम० एन० राय

कॉमिन्टर्न से निष्कासित होने और भारतीय राजनीति में सक्रिय रूप से प्रवेश करने के बाद मानवेन्द्र नाथ राय धीरे-धीरे मार्क्सवाद से हटते गए। भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस में रहते हुए उन्होने गाँधीवादी नेतृत्व की कटु आलोचना की। जब उन्होंने देखा कि काँग्रेस में उनके प्रति कोई आकर्षण नहीं है तो उन्होंने काँग्रेस का परित्याग करके दिसम्बर, 1940 में अपनी पृथक् ‘रेडिकल डेमोक्रेटिक पाटी’ का संगठन किया। 1945-1946 के निर्वाचनों में इस पार्टी को कोई सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। राय को विश्वास हो चला कि जब तक भारत में साँस्कृतिक और दार्शनिक क्रान्ति नहीं आयेगी तब तक लोग मौलिक लोकतन्त्र (Radical Democracy) के सिद्धान्तों को नहीं समझ सकेंगे, अतः उन्होंने रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी को भंग करके अपनी सम्पूर्ण शक्ति भारतीय पुनर्जागरण के प्रसार में लगा दी जिसका उद्देश्य मौलिक मानववाद के विकास के लिए मार्ग प्रशस्त करना था। अपने जीवन के अन्तिम सात वर्षों में अर्थात् 1947-1954 की अवधि में वे भारत में ही नहीं वरन् विदेशों में भी मौलिक मानववाद (Radical Humanism) के जनक के रूप में यह सिद्ध करना चाहते थे कि उनका मानववाद पूर्ववर्ती और समकालीन सभी विचारकों द्वारा प्रतिपादित मानववाद से भिन्न है। पहले के मानववादी व्यक्ति को किसी अतिमानवीय और अतिप्राकृतिक सत्ता के अधीन करने की इच्छा की धारणा से नहीं बचा पाये थे और आधुनिक मानववादी अपने दर्शन में मनुष्य को वाँछित केन्द्रीय स्थान नहीं दे सके। राजा राममोहन राय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, अरविन्द घोष, गोपालकृष्ण गोखले, महात्मा गाँधी आदि महानुभाव मानवता के उपासक थे, लेकिन राय का मानवतावाद या मानववाद इन सभी से विशिष्ट अथवा भिन्न था।

मानवेन्द्र नाथ राय ने मनुष्य को किसी रहस्य विश्वास का विषय नहीं बनाया। उन्होंने इस विचार का खण्डन किया कि मनुष्य किसी बाह्य, रहस्यमय और अतिप्राकृतिक सत्ता के अधीन है। राय ने मनुष्य को अपने मानववाद का केन्द्र बनाया और विश्वास व्यक्त किया कि–

  1. ‘मनुष्य ही मानव जाति का मूल है’, तथा
  2. ‘मनुष्य ही प्रत्येक वस्तु का मापदण्ड है।’

पहले कथन से आशय है कि राय की दृष्टि में मानव जीवन में पूर्ण है, अतः मानव को किसी बाह्य और अतिप्राकृतिक सत्ता का आश्रय नहीं लेना चाहिए। दूसरी युक्ति से, जो विख्यात यूनानी दार्शनिक ‘प्रोटेगोरिस’ की है, राय ने यह विश्वास व्यक्त किया है कि मानव प्राणी होने के नाते मनुष्य का सम्बन्ध केवल उन्हीं बातों से है जो मानव जीवन को प्रभावित करती हैं। मनुष्य का मुख्य सम्बन्ध स्वयं मनुष्य से हैं, अत: यह सर्वथा असंगत और अतर्कसंगत है कि मनुष्य स्वयं को दैवी इच्छा, आत्मा, परमात्मा जैसी रहस्यमय और अतिप्राकृतिक वस्तुओं से सम्बद्ध रखे। राय का कहना था कि हम सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, ग्रह आदि के अध्ययन में रुचि भले ही लें, लेकिन इस प्रकार की भावना में न बहें कि उनके प्रकाश की किरणों का प्रभाव हमारे चरित्र पर पड़ता है अथवा वे हमारी भावी भाग्य की निर्धारक हैं। राय ने सन्देश दिया कि मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है और उसमें इतनी क्षमता है कि वह संसार को आज के बनिस्बत अधिक श्रेष्ठ और सुन्दर बना दे। दूसरे शब्दों में राय का मानववाद उन लोगों के लिए है जो ‘इस संसार की वास्तविकता में विश्वास करते हैं। और यह नहीं मानते कि ‘संसार का निर्माण किसी जादूई शब्द’ द्वारा हुआ है। राय यह मानकर चले कि मनुष्य स्वभाव से विवेकपूर्ण और नैतिक है, अतः एक उन्मुक्त और न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में समर्थ है, पर चूँकि समकालीन विश्व का नैतिक और चिन्तन-स्तर गिर चुका है तथा सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो चुका है, अतः एक स्वस्थ, उन्मुक्त और न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के लिए हमें कठोर प्रयत्न करने होंगे, राय का सुझाव था कि वर्तमान सामाजिक दर्शन और राजनीतिक सिद्धान्तों का इस ढंग से पूरी तरह पुनर्नवीनीकरण होना चाहिए कि सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों की सर्वोच्च महत्ता प्रतिष्ठित हो जाय और मनुष्य अपने गौरव को पुनः पा सके ।

राय ने मनुष्य की बौद्धिक और क्रियात्मक शक्ति उत्कृष्टता में विश्वास व्यक्त किया। उनकी दृष्टि में आध्यात्मवाद तो ‘अन्धविश्वास’ था, क्योंकि इसमें तर्क का अभाव पाया जाता है। जब तक हम प्रत्येक बात को तर्क और विवेक की कसौटी पर नहीं कसेंगे तब तक हमारे चिन्तन में वैज्ञानिकता नहीं आ सकती। राय का कहना था कि “व्यक्ति के जीवन और उसके व्यक्तित्व में तर्क और विवेक सार्वभौमिक समन्वय की प्रतिध्वनि है।” राय ने धर्म पर नैतिकता की निर्भरता (Reliability of Morality on Religion) का खण्डन किया, क्योंकि प्रथम तो इससे हमारे हृदय में अतिप्राकृतिक शक्तियों अथवा मूल्यों के अधीन होने की प्रवृत्ति पनपती है, और दूसरे धर्म आज के वैज्ञानिक युग में केवल रूढ़िगत परम्परा मात्र बनकर रह गया है। आधुनिक जीवन और राजनीतिक व्यवहार में धर्म का वास्तव में कोई निर्देशन नहीं रह गया है। वैज्ञानिक विकास ने यह सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य में कोई अतिप्राकृतिक तत्व नहीं है और सम्पूर्ण मानव स्वभाव ‘विकासमान भौतिक प्रगति की पृष्ठभूमि’ का फल है। मानव प्रकृति का मौलिक और विशिष्ट तत्व उसकी बुद्धि है। हमें प्रवृत्तियों, भावनाओं, आत्मा आदि को मानव प्रकृति का आधारभूत तत्व नहीं मानना चाहिए।

स्पष्ट है कि राय ने जिस नैतिकता का प्रतिपादन किया उसका आधार आध्यात्मवाद नहीं था और इसीलिए उनका कहना था कि नैतिकता कोई अतिमानवीय (Super-human) तथा बाह्य वस्तु न होकर एक आन्तरिक शक्ति है जिसका पालन मनुष्य को ईश्वरीय अथवा प्राकृतिक भय से नहीं अपितु समाज कल्याण की भावना से करना चाहिए। राय ने यह विश्वास प्रकट किया कि नैतिकता के अभाव में हम मनुष्य की कल्पना नहीं कर सकते । नैतिकता और बुद्धिवादिता यदि नहीं है तो हम एक मनुष्य को मनुष्य नहीं कह सकते । राय ने नैतिकता के आधार पर राजनीति की वकालत की। जहाँ गोखले और गाँधी राजनीति के आध्यात्मीकरण की बात करते थे वहाँ राय का कहना था कि राजनीति नैतिकता के अनुसार चलनी चाहिए । नैतिकता का स्वरूप धर्म-निरपेक्षवादी है। हम नैतिकता को भुलाकर शक्ति प्रधान राजनीति मे फँस गए हैं, इसीलिए हमारे सार्वजनिक जीवन का नैतिक पतन होता जा रहा है और हम नाना संकटों में फँस गए हैं।

राय का आग्रह था कि हमारा उद्देश्य समाज को एक भौतिक आधार पर संगठित करना होना चाहिए क्योंकि समाज का आधार जितना अधिक नैतिकतावादी और बुद्धिवादी होगा, मानव व्यक्तित्व के विकास पर लगे हुए प्रतिबन्ध उतने ही अधिक शिथिल अथवा समाप्त हो जाएंगे और उसे उतनी ही अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त हो सकेगी। समाज का पुनर्निर्माण प्रार्थना, जादू टोना या अन्धविश्वास के आधार पर नहीं किया जा सकता बल्कि बुद्धिवादिता और वैज्ञानिक साधनों के प्रयोग पर ही किया जा सकता है। हम भूमि के उत्पादन को समुचित खाद और सिंचाई साधनों द्वारा बढ़ा सकते हैं, देवी-देवताओं के नाम पर यज्ञ या हवन करके नहीं। भूमि के भीतर छिपे हुए खनिज पदार्थों का वैज्ञानिक साधनों द्वारा विदोहन किया जा सकता है, देवताओं की प्रार्थना करके नहीं। राय ने अनुरोध किया कि हमें विज्ञान और बुद्धि की सहायता से रचनात्मक कार्य करने की ओर कदम बढ़ाने चाहिए। हमें एक स्पष्ट और बुद्धिवादी दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए ताकि अपनी समस्याओं का समुचित निराकरण कर सकें और एक स्वतन्त्र और उन्मुक्त वातावरण में मानव सभ्यता का विकास कर सकें। हमें यह मानकर चलना चाहिए कि व्यक्ति प्रधान तत्व है और समाज व्यक्ति की सृष्टि है। व्यक्तियों ने ही अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समाज को बनाया है, अतः सभी प्रकार के सामाजिक और राजनीतिक, आर्थिक और नैतिक सम्बन्धों का निर्धारण इस रूप में किया जाना चाहिए कि उनसे व्यक्ति की स्वतन्त्रता को अधिकाधिक सम्बल मिले। राय ने व्यक्ति को समाज का ‘मूल आदर्श’ स्वीकार किया। स्वतन्त्रता को उन्होंने मानववाद का आधार माना और स्पष्ट रूप से कहा कि राज्य को व्यक्ति की स्वतन्त्रता सीमित करने वाला कोई कार्य नहीं करना चाहिए। यदि राज्य अपने प्रभाव से वैयक्तिक स्वतन्त्रता का अथवा व्यक्ति के व्यक्तित्व का दमन करता है तो यह स्थिति मानव सभ्यता व मानवता के लिए अत्यन्त घातक होगी।

राय ने स्वतन्त्रता के तीन आधार-स्तम्भ बनाए-मानववाद, व्यक्तिवाद और विवेकवाद । चूँकि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है, अतः वह स्वतन्त्रता की कामना करता है। स्वतन्त्रता के मार्ग में कठिनाइयाँ और बाधाएँ आती हैं जिनके लिए आंशिक रूप से प्रकृति और आंशिक रूप से मनुष्य स्वयं उत्तरदायी है। न केवल प्राकृतिक बाधाओं ने वरन् धर्म और जादू ने भी मानव स्वतन्त्रता को सीमित किया है। धर्म ने अपना बुद्धिवादी चरित्र खोकर अपनी कठोरता और कट्टरता से मानव स्वतन्त्रता और मानव सभ्यता को बड़ा आघात पहुँचाया है। परिवार, राज्य, कानून, विवाद आदि विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक संस्थाएँ भी अपने रूढ़िवादी और गतिहीन रुख के कारण मानव स्वतन्त्रता के मार्ग में काफी बाधाएँ पहुँचाती रही हैं। विभिन्न संस्थाओं ने हमारे दृष्टिकोण को संकीर्ण और स्वार्थपूर्ण बनाकर स्वतन्त्रता के मार्ग को संकटमय बनाया है। मानव इन विभिन्न बाधाओं से संघर्ष करते हुए अपनी स्वतन्त्रता को बनाए रख सके हैं। इन बाधाओं से हमारे संघर्ष की कहानी ‘हमारी स्वतन्त्रता का स्रोत’ भी है। राय ने ही सम्भव है।

विश्वास व्यक्त किया है कि ‘स्वतन्त्रता’ इस विश्व की सीमा से परे नहीं वरन् इस धरा पर राय ने अपने नव-मानववाद में व्यक्ति को राष्ट्रवाद की संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठकर विश्वबन्धुत्व की दीक्षा दी। उन्होंने लोगों को प्रेम और विश्वास के राष्ट्रमंडल’ का सदस्य बनाना चाहा जिसे भौगोलिक सीमाओं ने दूषित न किया हो। राय ने नव-मानववाद के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए डॉ० वर्मा ने लिखा है-“नवीन मानववाद का दृष्टिकोण विश्व राज्यवादी है। उनके समाज दर्शन में राष्ट्रवाद अन्तिम अवस्था नहीं है। राष्ट्रवाद का आधार जातिगत विद्वेष है, और जिस सीमा तक वह सामाजिक समस्याओं की उपेक्षा करता है, वहाँ तक प्रतिक्रियावादी है। इसलिए राष्ट्रवाद की अपेक्षा विश्व- बन्धुत्व की आवश्यकता है। अरविन्द, टैगोर तथा गाँधी की भाँति राय भी मानव जाति के सहकारिता मूलक संघ में विश्वास करते हैं। नवीन मानववाद स्वतन्त्र मनुष्य के समाज तथा बिरादरी के आदर्श को साकार करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध है।” राय ने विश्व संघ का उत्साह के साथ समर्थन किया। उन्होंने लिखा, “नवीन मानववाद विश्वराज्यवादी है। आध्यात्मिक दृष्टि से स्वतन्त्र व्यक्तियों का विश्व राज्य राष्ट्रीय राज्यों की सीमाओं से परिबद्ध नहीं होगा। वे राज्य पूँजीवादी, फासीवादी, समाजवादी, साम्यवादी, अथवा अन्य प्रकार के क्यों न हों। राष्ट्रीय राज्य मानव के बीसवीं शताब्दी के पुनर्जागरण के आघात से धीरे-धीरे विलुप्त हो जाएँगे ।” राय ने विश्व राज्यवाद तथा अन्तर्राष्ट्रीयवाद के बीच भेद किया। “उन्होंने आध्यात्मिक समाज अथवा विश्व-राज्यवादी मानववाद का समर्थन किया। अन्तर्राष्ट्रीयवाद में पृथक् राष्ट्रीय राज्यों के अस्तित्व का विचार है जबकि राय का विश्वास था कि एक सच्ची विश्व सरकार की स्थापना राष्ट्रीय राज्यों का निराकरण करके ही की जा सकती है।”

इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि राय का नवीन मानववाद कोई अमूर्त दर्शन मात्र नहीं है अथवा केवल मात्र राजनीतिक और आर्थिक सिद्धान्त नहीं है, अपितु इसे हम ऐसे सिद्धान्तों का संग्रह मान सकते हैं जो मानव जीवन के क्रियाकलापों और उसके सामाजिक अस्तित्व से सम्बन्धित होकर उसकी अनुभूति का मार्ग प्रशस्त करता है। नवीन मानववाद का ध्येय है कि सामाजिक ढाँचे का नव-निर्माण करने के लिए और मानव जीवन को वास्तव में सुखमय बनाने के लिए आवश्यक है कि हम मानव का पुनर्मूल्यांकन करें। राय ने अपने नव-मानववाद को कठोरता की परिधि में नहीं बाँधा है वरन् उसे बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप विकसित होने वाला सिद्धान्त बताया है।

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