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एकता और धर्म-निरपेक्षता पर नेहरू के विचार

नेहरू का एकता और धर्म-निरपेक्षतावाद

नेहरू का एकता और धर्म-निरपेक्षतावाद

जवाहरलाल नेहरू ने भारत के इतिहास का विवेकपूर्ण विश्लेषण किया था। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अपनी फूट और साम्प्रदायिकता की विष-बेल के कारण ही भारत अपने महान् गौरव को खो बैठा है। भारत ने, आन्तरिक कलहों में डूब कर अपनी महान् शक्ति को गँवा दिया था। नेहरू का विश्वास था कि एकता के अभाव में देश अपनी स्वतन्त्रता को सुरक्षित नहीं रख सकता। एकता को खोने का अर्थ है देश को खोना और देश को भुलाना । यदि हम दल-राज्य, भाषा, जाति जैसी अन्य बातों को महत्व देंगे और देश अपने देश को भूल जाएँगे तो हम निश्चय ही अपने सर्वनाश को आमन्त्रित करेंगे। इन सब बातों का अपना-अपना उचित स्थान है लेकिन यदि हम राज्य-भाषा और दल को देश से अधिक महत्व देंगे तो यह राष्ट्र का विनाश होगा। नेहरू ने देश के राजनीतिक एकीकरण को अपर्याप्त मानते हुए देश की भावात्मक एकता पर बल दिया। विविधता को समाप्त करना आवश्यक नहीं है, लेकिन छोटे-छोटे पारस्परिक कलहों में उलझ कर अपनी शक्ति को खो देना मूर्खता है। विविधता में एकता को बनाए रखने में ही देश और समाज का कल्याण है। जो गतिविधियाँ लोगों को एक करती हैं, उनके प्रसार का प्रयल किया जाना चाहिए और जो गतिविधियाँ लोगों में फूट डालती हैं उनका परित्याग कर देना चाहिए। भारत में अनुशासन और एकता को पहला स्थान दिया जाना आवश्यक है- “केवल पैरों के अनुशासन को नहीं बल्कि दिल और दिमाग के अनुशासन को, दिल और दिमाग की एकता को ।”

नेहरू ने देशवासियों को जगया और एकता की समस्या का चुनौती भरा मुकाबला करने का सन्देश दिया। उन्होने कहा-“निश्चित रूप से वह समय आ गया है जब प्रत्येक भारतीय को अपने हृदय को टटोलना चाहिए तथा स्वयं से यह प्रश्न करना चाहिए कि वह राष्ट्र के साथ है अथवा किसी विशेष दल के साथ । यह हमारे समय की एक चुनौती है जिससे हर पुरुष, महिला तथा बच्चे को निपटना है ।” स्पष्ट है कि नेहरू अस्वस्थ दलबन्दी को देश के लिए विघटनकारी मानते थे। उनका कहना था कि देशवासियों की निष्ठा किसी गुट, वर्ग या दल विशेष के प्रति न होकर राष्ट्र के प्रति होनी चाहिए। अपना अपना दल होता है, अपना-अपना वर्ग होता है, लेकिन जहाँ इनके प्रति निष्ठा और अपने राष्ट्र के प्रति निष्ठा में टकराहट आई वहाँ राष्ट्र के प्रति निष्ठा को सर्वोपरि महत्व देना होगा। नेहरू ने राजनीतिक एकीकरण की अपेक्षा भावात्मक एकीकरण पर अधिक बल दिया। उन्होंने कहा कि-“राजनीतिक एकीकरण कुछ सीमा तक हो ही चुका है, किन्तु मैं जो चाहता हूँ वह इससे अधिक है-भारतीय लोगों का भावात्मक एकीकरण, जिससे हम सब मिलकर संयुक्त हो सकें और एक शक्तिशाली राष्ट्रीय इकाई बन जाएँ ।”

जवाहरलाल नेहरू ने धर्म-निरपेक्षता के प्रति अपनी गहन निष्ठा रखी। उनका अभिमत था कि धर्म-निरपेक्षता का मार्ग एकता को सुदृढ़ करने वाला है। धर्म-निरपेक्षता पर विचार व्यक्त करते हुए अपने एक भाषण में उन्होंने कहा-“भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है, इसका अर्थ धर्म-हीनता नहीं, इसका अर्थ सभी धर्मों के प्रति समान आदर भाव तथा सभी व्यक्तियों के लिए समान अवसर है-चाहे कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म का अनुयायी क्यों न हो। इसलिए हमें अपने दिमाग, अपनी संस्कृति के इस आदर्शमय पहलू ही को सदा ध्यान में रखना चाहिए जिसका आज के भारत में सबसे अधिक महत्व है।” पुनश्च, “हम देश में किसी भी प्रकार साम्प्रदायिकता सहन नहीं करेंगे। हम एक ऐसे स्वतन्त्र धर्म-निरपेक्ष राज्य का निर्माण कर रहे हैं जिसमें प्रत्येक धर्म तथा मत को पूरी स्वतन्त्रता तथा समान आदर-भाव प्राप्त होगा और प्रत्येक नागरिक को समान स्वतन्त्रता तथा समान अवसर की सुविधा प्राप्त होगी।”

नेहरू की धर्म-निरपेक्षता से यह अर्थ निकालना भ्रामक होगा कि वे अधार्मिक थे अथवा धर्म और ईश्वर-इन शब्दों से उन्हें घृणा थी। नेहरू की प्रवृत्ति सत्य को ग्रहण करने की, संकीर्णता और अन्धविश्वास से मुक्त रहने की थी। धर्म और ईश्वर के सही अर्थों में उन्हें विश्वास था और यही कारण है कि सत्य और करुणा के आध्यात्मिक मूल्यों में उनकी निष्ठा जीवन पर्यान्त रही। नेहरू के सम्पूर्ण जीवन-दर्शन में उन तत्वों की प्रधानता रही जिन्हें महात्मा गाँधी ने धर्म का सार बताया था। धर्म के वैज्ञानिक और स्वस्थ दृष्टिकोण से उन्हें कोई चिढ़ न थी। पर उन्हें यह देखकर अवश्य ही कष्ट होता था कि धर्म के नाम पर मानव द्वेषी रुख अपनाया जाय, संगठित धर्म की अवधारणा पर चलकर असहिष्णुता का प्रसार किया जाय । स्पष्ट है कि एक औपचारिक अथवा संस्थाबद्ध धर्म में नेहरू को आस्था न थी। उनके जीवन-दर्शन में अन्धविश्वास, कट्टरता, कर्मकाण्ड और संस्कारवाद को स्थान न था। धर्म को वे सामाजिक हितों का महान् साधक मानते थे। धर्म से उनका आशय था निष्ठापूर्वक सत्य की खोज करना, सत्य के लिए सब कुछ बलिदान करने को उद्यत रहना। अपने स्वस्थ स्वरूप में धर्म असंख्य व्याकुल, आत्माओं को शान्ति देने वाली महौषधि है-ऐसा नेहरू को विश्वास था। नेहरू का मन्तव्य उनके इन शब्दों में स्पष्ट है-“मैं कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं हूँ, परन्तु मैं किसी वस्तु में विश्वास अवश्य करता हूँ-आप उसे धर्म कह सकते हैं या जो चाहे सो कह सकते हैं जो मनुष्य को उसके सामान्य स्तर से ऊँचा उठाती है और मनुष्य के व्यक्तित्व को आध्यात्मिक गुण तथा नैतिक गहराई का एक नवीन प्रमाण प्रदान करती है। अब जो भी वस्तु मनुष्य को उसकी क्षुद्रताओं से ऊपर उठाने में सहायता देती है, चाहे वह कोई देवता हो अथवा कोई पाषाण प्रतिमा हो, वह शुभ है और उसे ठुकराया नहीं जाना चाहिए।”

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