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बाल गंगाधर तिलक का राजनीतिक चिंतन

बाल गंगाधर तिलक के राजनीतिक विचार

बाल गंगाधर तिलक के राजनीतिक विचार

(Political Thoughts of Tilak)

“तिलक की बहुमखी प्रतिभा का सबसे प्रभावशाली पहलू था उनके विचारों की आधुनिकता। मैं अक्सर सोचता हूँ कि उनकी तीव्र दृष्टि ने दूर भविष्य तक देख लिया था। उन प्रारम्भिक दिनों में भी उनके मन में रूपरेखा थी-देश का संविधान तैयार करने के लिए एक संविधान सभा की, वयस्कों के लिए मताधिकार की, भाषा के आधार पर प्रान्तों के विभाजन की, देशव्यापी नशाबन्दी की, अल्पतम बेतन की गारण्टी के द्वारा श्रमिकों के हितों की और विशिष्ट उद्योगों के लिए लोक-क्षेत्र की स्थापना की।”

दुर्गादास

तिलक सच्चे अर्थों में भारतीय उग्र राष्ट्रवाद के जनक थे जिन्होंने भारतीय राजनीति को एक नई दिशा प्रदान करके काँग्रेस को एक जन-आन्दोलन में परिणत कर दिया। तिलक ने जनता के सामने, नेताओं के सामने एक रचनात्मक कार्यक्रम विकसित किया और स्वतन्त्र भारत की भूमिका की ओर इन चिरस्मरणीय शब्दों में संकेत किया-“एशिया तथा संसार की शान्ति के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि भारत को आत्म-शासन प्रदान करके पूर्व में स्वतन्त्रता का गढ़ बना दिया जाए।” तिलक उग्रराष्ट्रवादी थे, लेकिन उन्होंने हिंसा और रक्तपात को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया। तिलक के राजनीतिक दर्शन को मुख्य बिन्दुओं में विभाजित करना अध्ययन की दृष्टि से अधिक उपयोगी होगा।

तिलक के राजनीतिक चिन्तन के आधार

तिलक ने राजनीतिक दर्शन के क्षेत्र में एक यथार्थवादी व्यावहारिक नेता की भूमिका अदा की। उदारवादियों की निष्क्रिय नीति की प्रतिक्रिया के रूप में तिलक ने सम्पूर्ण देश को मूर्ति और गतिशील विचार देकर अद्भुत जन-जागरण पैदा किया। यह ध्यान रहे कि यद्यपि तिलक के विचार और दृष्टिकोण में हमें यथार्थवाद का तत्व देखने को मिलता है, लेकिन वे मैकियावेली और हॉब्स की भाँति के यथार्थवादी नहीं थे अथवा उन्होंने प्लेटो, अरस्तू या सिसरो की भाँति सर्वोत्तम राज्य के लक्षणों और सम्भावना का विवेचन नहीं किया। जीवन में उनका मुख्य उद्देश्य भारत की राजनीतिक दासता से मुक्ति था और इसी दिशा में एक व्यावहारिक राजनीतिक नेता के रूप में उनके कार्यकलाप रहे, उनकी चिन्तनधारा बही। तिलक के राजनीतिक चिन्तन में हमें भारतीय दर्शन की कुछ प्रमुख धारणाओं तथा आधुनिक यूरोप के राष्ट्रवादी और लोकतान्त्रिक विचारों का समन्वय देखने को मिलता है।

तिलक की आध्यात्मिक धारणाओं ने उनके राजनीतिक चिन्तन को विशेष रूप से प्रभावित किया। तिलक एक वेदान्तवादी थे और वेदान्त के अद्वैतवादी सिद्धान्त के आधार पर ही उन्होंने प्राकृतिक अधिकारों की राजनीतिक धारणा का निर्माण किया। वेदान्त दर्शन ने ही उन्हें स्वतन्त्रता की सर्वोच्चता का पाठ पढ़ाया। तिलक ने स्वतन्त्रता को व्यक्ति का दैवी अधिकार माना और स्पष्ट शब्दों में घोषणा की कि स्वतन्त्रता के अभाव में नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन सम्भव नहीं है। तिलक का कहना था कि विदेशी साम्राज्यवाद का कोई भी स्वरूप स्वतन्त्रता के लिए घातक है, क्योंकि वह राष्ट्र की आत्मा का विनष्ट कर देता है। अपने एक भाषण में तिलक ने स्वतन्त्रता को स्वशासन आन्दोलन (होम रूल आन्दोलन) की आत्मा बताया। उन्होंने कहा कि स्वतन्त्रता व्यक्तिगत आत्मा का जीवन है जिसे वेदान्त ने ईश्वर से भिन्न नहीं अपितु उसका समरूप माना है।

जैसा कि हम कह चुके हैं, तिलक के राजदर्शन में एक ओर हमें भारतीय चिन्तन की आधारभूत धारणाओं के दर्शन होते हैं तो दूसरी ओर आधुनिक पाश्चात्य राष्ट्रवादी एवं लोकतान्त्रिक विचारों का प्रभाव भी दिखाई देता है। जॉन स्टुअर्ट मिल ने राष्ट्रीयता की जो परिभाषा दी थी उससे तिलक सहमत थे। 1919 और 1920 में उन्होंने विल्सन की ‘आत्म-निर्णय की धारणा को स्वीकार करते हुए भारत में इसके व्यावहारिक प्रयोग की माँग की थी। तिलक मैजिनी और बर्क के विचारों से भी प्रभावित थे। संक्षेप में कहना चाहिए कि तिलक का राष्ट्रवाद का दर्शन आत्मा की सर्वोच्चता के वेदान्तिक आदर्श और मैजिनी, बर्क, मिल तथा विल्सन की धारणाओं का समन्वय था। इस समन्वय को तिलक ने ‘स्वराज्य’ शब्द द्वारा व्यक्त किया।

तिलक का चिन्तन आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पर आधारित था, अतः स्वाभाविक था कि उन्होंने स्वराज्य की नैतिक और आध्यात्मिक व्याख्या प्रस्तुत की। तिलक ने स्वराज्य को केवल एक अधिकार ही नहीं वरन् एक धर्म भी माना । राजनीतिक रूप में उन्होंने स्वराज्य का अर्थ स्वशासन (होम रूल) बताया, किन्तु नैतिक सन्दर्भ में इसका अर्थ आत्म-नियन्त्रण की पूर्णता माना जो कि सबसे बड़ा स्व-धर्म है। स्वराज्य का आध्यात्मिक महत्व बताते हुए तिलक ने कहा कि इसका आशय आत्मिक स्वतन्त्रता से है। स्वराज्य की प्राप्ति आत्मा की स्वतन्त्रता के आधार पर ही हो सकती है। वस्तुतः, तिलक ने राजनीतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार की स्वतन्त्रता की कामना की।

तिलक का राष्ट्रवाद और पुनरुत्थानवाद

तिलक की राष्ट्रीयता पुनरुत्थानवादी और पुनर्निर्माणवादी थी। उन्होंने वेदों और गीता से आध्यात्मिक शक्ति तथा राष्ट्रीय उत्साह ग्रहण करने का सन्देश दिया और भारत की प्राचीन स्वस्थ परम्पराओं के आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद की स्थापना करनी चाही। 13 दिसम्बर, 1919 को ‘मराठा’ के अंक में उन्होंने लिखा-“सच्चा राष्ट्रवादी पुरानी नींव पर ही निर्माण करना चाहता है। जो सुधार पुरातन के प्रति घोर असम्मान की भावना पर आधारित है, उसे सच्चा राष्ट्रवादी रचनात्मक कार्य नहीं समझता। हम अपनी संस्थाओं को अंग्रेजियत के ढाँचे में नहीं ढालना चाहते, सामाजिक तथा राजनीतिक सुधार के नाम पर हम उनका अराष्ट्रीयकरण नहीं करना चाहते।” तिलक ने भारतीयों में यह भावना भरने की अथक् चेष्टा कि वे वेदों और गीता के महान् सन्देशों से नई शक्ति और नई स्फूर्ति ग्रहण करें क्योंकि तभी राष्ट्र वह आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त कर सकेगा जिसके बल पर ब्रिटिश नौकरशाही से लोहा लेकर स्वराज्य की स्थापना सम्भव होगी। सुधार के नाम पर प्राचीन का अनादर करना तो राष्ट्रीयता के पतन का सूचक है। यदि भारत में सच्ची राष्ट्रीयता का प्रसार करना है तो प्राचीन संस्कृति का पुनर्जागरण अनिवार्य है।

तिलक ने राष्ट्रवाद को एक आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक धारणा बताया। उन्होंने कहा कि प्राचीन काल में आदिम जातियों के मन में अपने कबीले के प्रति जो भक्ति रहती थी उसी का आधुनिक नाम राष्ट्रवाद है। इस राष्ट्रवाद का सम्बन्ध तीव्र संवेगों और अनुभूतियों से होता है। पहले जो आत्मिक प्रभाव और लगाव एक क्षेत्र विशेष तक सीमित थे, वे अब राष्ट्रवाद के अन्तर्गत सम्पूर्ण राष्ट्र में व्याप्त हो गये हैं, यही कारण है कि आज राष्ट्रवाद की भावना किसी क्षेत्र विशेष के प्रति नहीं वरन् सम्पूर्ण राष्ट्र के प्रति अनुभव की जाती है। जो राष्ट्रवाद राष्ट्रीय एकता पर आधारित होता है वही सच्चा और स्वस्थ राष्ट्रवाद है। तिलक की मान्यता थी कि विभिन्न विचारधाराओं, जाति-भेदों, अस्वस्थ मत-मतान्तरों के कारण देश में राष्ट्रीयता की भावना उस तेजी से नहीं पनप सकती जिस तेजी से यह समान भाषा, समान धर्म और समान संस्कृति वाले देश में पनप सकती है। इसीलिए उन्होंने भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक तत्वों पर बारम्बार बल दिया। ये तत्व प्राचीन काल से ही भारत में विद्यमान थे पर अब आवश्यकता उन्हें फिर से जगाने और संगठित करने की थी।

तिलक की राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय एकता की भावना का एक सुन्दर चित्र उनकी जीवनी के यशस्वी लेखक श्री रामगोपाल ने इन शब्दों में खींचा है―

“तिलक के प्रत्येक काम और प्रत्येक भाषण में एकता की भावना सर्वोपरि रहती थी, चाहे वह धार्मिक भाषण हो चाहे राजनीतिक, सामाजिक हो या कोई अन्य । वे जनता की राजनीतिक चेतना की ही नहीं वरन् गत और अनागत से संयोग से जनता की आत्मा को भी जानना चाहते थे। समाज सुधार आन्दोलन से अलग होने के फलस्वरूप उन्होंने पुराणपन्थी और धार्मिक भारत को जनतान्त्रिक राजनीति के पथ पर लाने के लिए विश्वस्त और अधिकारी नेता की अनोखी भूमिका निभाई। अपनी इस स्थिति के कारण वे नई राजनीतिक भावना का समन्वय ऐतिहासिक प्राचीनता की भावना तथा परम्परा से करने में सफल हुए।” तिलक ने यह भी बताया कि भारत में किस प्रकार एकता लाई जा सकती है। उन्होंने कहा “ये विभिन्न पन्थ वैदिक धर्म की शाखाएँ, प्रशाखाएँ हैं। यदि यह बात ध्यान में रखी जाए और इस विभिन्न मतों के बीच एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील हों तो यह एक महान् शक्ति बन सकती है। जब तक आपके बीच भेद हैं और आप विभाजित हैं, जबतक एक मत दूसरे मत से सामंजस्य तथा एकता का अनुभव नहीं करता, आप हिन्दुओं के रूप में आगे नहीं बढ़ सकते।”

लोकमान्य तिलक ने राष्ट्रवाद के विकास में सार्वजनिक उत्सवों को महत्वपूर्ण स्थान दिया। राष्ट्रीयता के आवेश को आध्यात्मिक रंग देने के लिए उन्होंने गणपति उत्सव को फिर से जाग्रत किया और साथ ही शिवाजी के रूप में उपासना का पन्थ भी शुरू किया। गणपति उत्सव द्वारा उन्होंने एक धार्मिक उत्सव को सामाजिक एवं राजनीतिक अर्थ दिया तथा शिवाजी उत्सव द्वारा राष्ट्रीय भावनाओं को उभारने और संगठित करने का काम किया। तिलक का कहना था कि उत्सव प्रतीक का काम करते हैं जिनसे राष्ट्रवाद की भावना पनपती है। उत्सवों का दोहरा महत्व है-एक ओर तो इनके माध्यम से एकता की भावना अभिव्यक्त होती है और दूसरी ओर उत्सवों में भाग लेने वाले व्यक्ति यह अनुभव करने लगते हैं कि उनके संगठन और उनकी एकता को किसी श्रेष्ठतर कार्य में लगाया जा सकता है। राष्ट्रीय उत्सव, राष्ट्रगान, राष्ट्रध्वज आदि देशवासियों के संवेगों और भावों में तीव्रता लाते हैं तथा उनकी राष्ट्रवादी भावना को प्रस्तुत नहीं होने देते। इसे राष्ट्रवाद का प्रतीकात्मक प्रदर्शन कहा जा सकता है जिससे सांस्कृतिक अभिवृद्धि होती है और समूह-राष्ट्रवाद का निर्माण किया। तिलक ने प्राचीन उत्सवों को किस प्रकार आधुनिक राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुकूल बना दिया, यह नि सन्देह उनकी राजनीतिक और नेतृत्व प्रतिभा का एक सुन्दर उदाहरण है।

तिलक हिन्दू गौरव को डूबते नहीं देखना चाहते थे, पर इसका अभिप्राय यह भी नहीं है कि वे कोरे हिन्दू राष्ट्रवादी थे अथवा मुसलमानों के खिलाफ थे। जकारिया का आरोप है कि तिलक हिन्दुओं की मुस्लिम विरोधी बदले की भावना के प्रतिनिधि थे तो रजनी पामदत्त के अनुसार तिलक ने राष्ट्रीय चेतना के साथ-साथ हिन्दुत्व भावना का सम्मिश्रण कर दिया था और इसीलिए मुसलमानों ने राष्ट्रीय आन्दोलन से विमुखता ग्रहण की। वेलेन्टाइन शिरोल ने भी तिलक को अति परम्परावादी बताते हुए मुस्लिम विरोधी सिद्ध करने की चेष्टा की। लेकिन इस प्रकार के सभी आरोप मिथ्या हैं। इनसे तिलक के राजनीतिक चिन्तन और कार्यकलापों का सही चित्र प्रस्तुत नहीं होता। सच्चाई तो यह है कि तिलक एक महान् राष्ट्रवादी विचारक और देशभक्त थे जिनके हृदय में मुसलमानों के प्रति या अन्य धर्मावलम्बियों के प्रति कोई द्वेषभाव नहीं था। उनका अपराध केवल यही था कि वे एक यथार्थवादी राजनीतिज्ञ थे जो अन्याय के आगे सिर नहीं झुका सकते थे और जिन्हें सरकार की इस चाल से घृणा थी कि वह हिन्दुओं के हितों पर कुठाराघात करते हुए मुसलमानों का पक्ष ले, उन्हें हिन्दुओं के विरुद्ध उकसाए। तिलक की राष्ट्रवादी भावनाओं की प्रशंसा स्वयं जिन्ना, अंसारी और हसन इमाम ने की थी। तिलक के ही विवेकपूर्ण परामर्श के फलस्वरूप 1916 का लखनऊ समझौता सम्पादित हो सका था। तिलक ने ही मुसलमानों के खिलाफत आन्दोलन में सहयोग का प्रस्ताव किया था। अली बन्धुओं की मुक्ति का प्रस्ताव भी काँग्रेस में तिलक ने ही किया था। इन सभी तथ्यों से यही निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्तिगत जीवन में हिन्दू-प्रिय होते हुए भी और अंशतः पुनरुत्थानवादी होने पर भी तिलक को मुसलमानों या ईसाइयों से कोई द्वेषभाव नहीं था तथा एक राजनीतिक नेता की हैसियत से राष्ट्रीय मुक्ति के लिए उन्होंने सार्वजनिक नीति अंगीकार की थी।

तिलक ने राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में आर्थिक कारकों को भी पर्याप्त महत्व दिया। उन्होंने राष्ट्र की गरीबी का मुख्य कारण यह माना कि देश से विपुल धनराशि विदेशों में चली जा रही है। दाराभाई नौरोजी के ‘आर्थिक निष्कासन के सिद्धान्त’ से वे सहमत थे। तिलक ने ‘केसरी’ में अपने लेखों द्वारा यह स्पष्ट करने में कोई कसर नहीं रखी कि भारत का कच्चा माल विदेशों से पक्का बनकर जब लौटता है तो भारत की इस प्रकार लूट की जाती है और देश की पूँजी को किस तरह इंग्लैण्ड पहुँचा दिया जाता है। भारत में जो स्वदेशी आन्दोलन चला वह “आर्थिक दृष्टि से देश के प्रारम्भिक पूँजीवाद की वृद्धि और विस्तार

का आन्दोलन था।” तिलक ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया कि जब तक देश की राजनीतिक शक्ति विदेशी हुकूमत के हाथ में है तब तक देशी उद्योग-धन्धों को संरक्षण मिलना सम्भव नहीं है, लेकिन जनता स्वयं पहल करके संरक्षण की भावना को प्रोत्साहन दे सकती है। 1907 में इलाहाबाद में अपने एक भाषण में तिलक ने कहा कि, “हम विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करके अपने ढंग का संरक्षणार्थ आयात कर लगा सकते हैं।” तिलक ने अपने लेखों में स्वदेशी आन्दोलन के आध्यात्मिक, राजनीतिक और आर्थिक सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला और साथ ही तत्कालीन शिक्षा-पद्धति पर भी प्रहार किया से जो भारतीयों को कोई व्यावहारिक ज्ञान नहीं देती थी तथा देश के आर्थिक पतन की ओर गुमराह रखती थी।

तिलक का राजनीतिक उग्रवाद और आक्रामक राष्ट्रवाद

लोकमान्य तिलक का राष्ट्रवाद बड़ा उग्र और तेजस्वी था तथा राजनीतिक क्षेत्रों में उन्हें उग्रवादी राजनीति तथा राष्ट्रीयता का अग्रदूत माना जाता है। तिलक ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी निरंकुश नीति को सहन नहीं कर सके। उन्होंने लॉर्ड कर्जन के निरंकुश कार्यों की ‘केसरी’ में बड़ी कठोर आलोचना प्रकाशित की। उन्होंने अपना यह स्पष्ट मत रखा कि ब्रिटिश सरकार पर प्रार्थनाओं और नम्र निवेदनों का कोई असर होने वाला नहीं है, अतः हमें अपनी मांगों को ‘हक’ (Right) के रूप में रखना चाहिए तथा दबावकारी उग्र साधनों (हिंसात्मक नहीं) का आश्रय लेकर विदेशी हुकूमत को यह सोचने पर मजबूर कर देना चाहिए कि भारतीयों की माँगों की उपेक्षा करना उचित नहीं है। 1905 में बंगाल विभाजन के अवसर पर तिलक को उग्र राष्ट्रवाद का बिगुल फूंकने का स्वर्ण अवसर मिला जिसका उपयोग उन्होंने राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने तथा एक ऐसे राष्ट्रव्यापी आन्दोलन का संचालन करने के लिए किया जिसमें सभी वर्ग और जातियों का योगदान हो और जो देश के हर नगर और गाँव तक फैला हो । बंग-भंग की घटना के बाद ही “लाल बाल पाल’ भारत में उग्र राष्ट्रीयता की त्रिमूति बन गये। पंजाब, महाराष्ट्र और बंगाल अब संगठित रूप में सरकार की रीति नीति पर उग्र रूप से आक्रमण करने लगे।

ब्रिटिश सरकार ने दमनकारी नीति अपनाई, पर उग्रवादी आन्दोलन तेजी पकड़ता गया। तिलक ने ‘स्वराज्य’ का मन्त्र फूंका। स्वराज्य प्राप्ति के लिए तिलक तथा उनके उग्रवादी साथियों ने मुख्यतः इन बातों पर जोर दिया (1) स्वदेशी (Swadeshi), (2) बहिष्कार (Boycott), (3) राष्ट्रीय शिक्षा (National Education), (4) निष्क्रिय प्रतिरोध (Passive Resistance)। यह कार्य नव राष्ट्रीय दल के माध्यम से किया जाने लगा जिसका मुख्य आधार तिलक थे। 1905 से 1909 तक इस दल ने राष्ट्रीय शिक्षा, दलित वर्ग-उत्थान, राष्ट्रीय पत्रों की स्थापना आदि के विभिन्न आन्दोलन चलाए। तिलक ने अपने प्रयासों से काँग्रेस को बहुत कुछ एक जन-आन्दोलन में परिणित कर दिया और स्वाधीनता संग्राम केवल शिक्षित वर्ग तक सीमित नहीं रहा बल्कि बच्चे बच्चे की जबान पर यह नारा गूंज गया । “स्वराज्य हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर रहेंगे।”

तिलक का उग्रवादी रुख काँग्रेस के उदारवादियों या नरमपंथियों से मेल नहीं खा सका। 1907 के सूरत-विच्छेद से पूर्व तिलक ने अपने एक भाषण में राजनीतिक उग्रता का परिचय देते हुए कहा-“हमारा उद्देश्य स्वशासन है और इसे यथासम्भव शीघ्र ही प्राप्त करना चाहिए। हमारा राष्ट्र आतंकवादी दमन के लिए नहीं है। आप लोग भीरु और कायर न बनें। जब आप स्वदेशी को स्वीकार करते हैं तो आपको विदेशी का बहिष्कार करना होगा हमारा उद्देश्य पुनर्निर्माण है, हमारा स्वराज्य का आदर्श विशिष्ट लक्ष्य है जिसे जन-समुदाय समझे। स्वराज्य में जनता का शासन जनता के लिए होगा। उदारपंथियों, डरिए मत । बहिष्कार दलित राष्ट्र के लिए एकमात्र साधन है। स्वराज्य और बहिष्कार के उपरान्त हमारा तीसरा आदर्श राष्ट्रीय शिक्षा है जिसके सम्बन्ध में पिछली काँग्रेस ने प्रस्ताव पास किया था।”

तिलक का विश्वास संगठन- शक्ति और आत्मनिर्भरता में था। उन्होंने जनता को आह्वान किया कि वह राजनीतिक आन्दोलन चला कर सरकार पर अधिक से अधिक दबाव डाले और मातृभूमि के लिए कष्ट एवं त्याग सहन करे। 2 जनवरी, 1906 को कलकत्ता में अपने एक भाषण में तिलक ने, घोषणा की-“प्राथनाओं और विरोध के दिन बीत गये हैं। हमारी प्रार्थनाओं को शासक कदापि नहीं सुनेंगे क्योंकि उनके पीछे दृढ़ संकल्प का अभाव है। शासन में तनिक परिवर्तन की आशा मत कीजिए। प्रार्थना, प्रसन्नता से प्रयत्न करना, प्रतिरोध (Prayer, Please and Protest) कोई ठीक काम नहीं करेंगे। क्या आप यह आशा करते हैं कि विशुद्ध निरंकुश तन्त्र से वे प्रबुद्ध तन्त्र की ओर बढ़ेंगे ?ब्रिटिश जनता को शिक्षा देना व्यर्थ है, केवल शब्दों से उन्हें आप सन्तुष्ट नहीं कर सकते। इसी के सहारे हम आगे बढ़ेंगे चाहे शासक कितनी ही अनसुनी कर दे। शासन से मोर्चा लेने के दो ही उपाय हैं स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा।”

तिलक ने उदारवादियों की सांविधानिक पद्धति की निष्फलता पर कई लेख लिखे और अपना यह दृढ़ मत व्यक्त किया कि सांविधानिक पद्धति ब्रिटेन जैसे देश में उपयुक्त हो सकती है जहाँ एक संविधान है, जहाँ “सरकार जनता के प्रति उत्तरदायी है और मतदाताओं का विश्वास खो देने पर गद्दी से उतार दी जाती है।” तिलक की मान्यता थी कि भारतीय अपना आन्दोलन कानून पर आधारित नहीं कर सकते क्योंकि देश पर अनुत्तरदायी और निरंकुश सरकार का शासन है जो कानून को अपने मनमाने ढंग से तोड़-मरोड़ सकती है। “भारतीय स्थिति का कठोर सत्य यही है कि जो कोई भी सरकार के विरुद्ध जायगा, उसे दण्डित करने का अधिकार सरकार को है जिसके सभी नियम-विनियम भारतीय दण्ड संहिता में मौजूद हैं।” तिलक ने घोषणा की कि राजनीति में दान-शीलता के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता और “हमारा उद्देश्य आत्मनिर्भरता है, भिक्षावृत्ति नहीं।” इतिहास में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता कि विदेशी शासक ने शासित राष्ट्र के हित में शासन किया हो और स्वेच्छा से उसे सत्ता में भाग दिया हो। इतिहास यही कहता है कि राजनीतिक अधिकार तो परिश्रम और त्याग से प्राप्त किये जाते हैं, उसके लिए लड़ना पड़ता है।

तिलक ने, उग्रवादी होने के बावजूद हिंसा और क्रान्ति को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया और न ही अनावश्यक रूप में सरकारी कानूनों की अवज्ञा के लिए लोगों को प्रेरित किया। उनका कहना था कि यदि सरकार राष्ट्रीय स्वतन्त्रता में किसी प्रकार की रुकावट पैदा नहीं करती तो सरकारी कानून तोड़ने का प्रश्न ही नहीं उठता । जहाँ उदारवादी विदेशी हुकूमत से याचना करते रहे वहाँ तिलक ने भारतीयों को यह प्रेरणा दी कि हमें अपने अधिकारों की प्राप्ति की सहायता नहीं करनी चाहिए, नीति का आश्रय लेना चाहिए। उनका कहना था कि हमें सरकार की सहायता नहीं करनी चाहिए, कर और मालगुजारी आदि की वसूली में सरकार से असहयोग करना चाहिए। तिलक ने अपने विचारों और कार्यों से सम्पूर्ण राष्ट्र में संघर्ष, बलिदान और कष्ट सहन करने की क्षमता का विकास कर दिया और लोगों को विश्वास दिला दिया कि यदि स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा आदि राजनीतिक हथियारों का पूरे जोश से प्रयोग किया जाय तो स्वराज्य मिल कर रहेगा।

क्या तिलक क्रान्तिकारी अथवा हिंसावादी थे?

लोकमान्य तिलक ने राजनीतिक उग्रवाद का पोषण करते हुए हिंसा और क्रान्ति को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया। तिलक के विरोधियों ने और उनके राज-दर्शन के विदेशी व्याख्यताओं ने उन पर क्रान्तिकारी और हिंसावादी होने का आरोप लगाया है। शिरोल का आरोप है कि तिलक पहले व्यक्ति, थे जिन्होंने हत्याओं को जन्म देने वाले वातावरण का निर्माण किया। जॉन एस० हायलैण्ड के अनुसार तिलक शारीरिक शक्ति के प्रयोग के सिद्धान्त में विश्वास करते थे। ब्रेन्सन की दृष्टि में तिलक के उद्देश्यों का सार था स्वराज्य अथवा बम । लेकिन इस प्रकार के सभी आरोप तिलक के राजनीतिक चिन्तन और कार्य-कलापों की गलत व्याख्याएँ हैं। वास्तविकता यही है कि चाहे तिलक का महात्मा गाँधी के समान अहिंसा में विश्वास नहीं था और स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए एक साधन के रूप में हिंसा को उन्होंने सर्वथा त्याज्य नहीं माना, तथापि उन्होंने देशवासियों को क्रान्ति और हिंसा की ओर प्रेरित नहीं किया। एक व्यावहारिक राजनीतिज्ञ के रूप में तिलक ने सदैव यही अनुभव किया कि तत्कालीन परिस्थितियाँ भारत में हिंसात्मक और क्रान्तिकारी साधनों के प्रयोग के अनुकूल नहीं थीं। सशस्त्र क्रान्ति का समय अभी नहीं आया था और राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए हिंसात्मक कार्यवाहियों का आश्रय लेना सरकार के हाथों में खेलना था। तिलक का यद्यपि क्रान्तिकारियों से सम्पर्क था, लेकिन उन्होंने क्रान्ति को उकसाया नहीं बल्कि युवा क्रान्तिकारियों को सदैव संयत करने का प्रयास किया। हत्या और हिंसा को राजनीतिक साधन के रूप में ग्रहण करने से वे सदैव कतराते रहे।

तिलक कहा करते थे कि संसार मे तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं जिन लोगों में सात्विक गुण की प्रधानता होती है वे आध्यात्मिक और नैतिक चिन्तन में संलग्न रहना पसन्द करते हैं, जिनमें राजसिक तत्व की प्रधानता होती है वे राजनीतिक आन्दोलन और प्रचार-कार्यों में जुट जाते है तथा जिनमें तामसिक गुण प्रमुख होता है वे हिंसात्मक कार्यवाहियों का मार्ग अपनाते हैं। तिलक का तामसी व्यक्तियों की क्रान्तिकारी और हिसात्मक कार्यवाहियों से लगाव नहीं था। तिलक का कहना था कि “हम न तो चाहते हैं और न हम में इतनी शक्ति है कि हम सरकार के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति के लिए उठ खड़े हो । इतिहास साक्षी है कि गुलाम जनता कितनी भी असहाय क्यों न हो वह एकता, साहस और दृढ़ निश्चय के बल पर हथियार उठाए बिना ही अपने मदोन्मत्त शासकों को परास्त कर सकती है।” तिलक ने किसी एक साधन से बँधे न रहकर विभिन्न और उग्र साधनों तथ दबावकारी नीति के प्रयोग का समर्थन किया, लेकिन हिंसा और क्रान्ति को तत्कालीन भारतीय परिस्थितियों के सन्दर्भ में उचित नहीं समझा। 1906 में उन्होंने नासिक में जनता से स्पष्ट शब्दों में अपील की कि कभी किसी प्रकार की हिंसात्मक कार्यवाहियाँ न की जाएँ। उन्होंने कहा कि भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन अभी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है और यदि इस समय हिंसात्मक क्रान्ति का विकास किया गया तो नौकरशाही सरकार उसे कुचल देगी। तिलक निष्क्रिय प्रतिरोध के लिए जनता को तैयार करने और सशस्त्र क्रन्ति के लिए मैदान करने की दोनों कार्यों को परस्पर संयुक्त नहीं करना चाहते थे, क्योंकि यदि ऐसा किया जाता है तो सरकार को शान्तिपूर्ण आन्दोलन को कुचल देने का पूरा बहाना मिल जाता।

तिलक और क्रान्ति तथा हिंसा के सन्दर्भ में अपना मूल्यांकन प्रकट करते हुए डॉ० वर्मा ने लिखा है कि “तिलक ने भारतीय राष्ट्रवाद की नींव का निर्माण किया और अशान्ति तथा राजद्रोह की भावना तीव्र की किन्तु वे क्रान्तिकारी नहीं थे। पर यदि क्रान्ति का अर्थ आधारभूत परिवर्तन हो तो यह कहा जा सकता है कि तिलक विद्यमान ऐतिहासिक स्थिति में गम्भीर परिवर्तन चाहते थे। चूँकि तिलक सामाजिक व्यवस्था में आधारभूत परिवर्तन चाहते थे, अतः इस व्यापक अर्थ में उन्हें क्रान्तिकारी कहा जा सकता है। किन्तु वे सामाजिक शास्त्रों में प्रयुक्त संकीर्ण अर्थ में क्रान्तिकारी नहीं थे। उन्हें बाकुनिन, क्रोपोटकिन अथवा लेनिन आदि क्रान्तिकारियों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, और न वे सशस्त्र विद्रोह में विश्वास करने वाले किसी दल के नेता थे। उनका सन्देश यह नहीं था कि किसी ऐसे दल के नेतृत्व में सामूहिक हिंसा संगठित की जाय जो प्रशिक्षित हो और क्रान्ति के अग्रगामी दल का काम करता हो। उनका विचार था कि भारत जैसे पूर्णत: निशस्त्रीकृत और विघटित समाज में सशस्त्र क्रान्ति राष्ट्रीय इतिहास को गति प्रदान नहीं कर सकती।” पुनश्च “तिलक ने निरन्तर यही तर्क दिया कि मैं राष्ट्रवादी हूँ और अपने देश से प्रेम करता हूँ, किन्तु मैं ऐसी किसी योजना से परिचित नहीं हूँ जिसका उद्देश्य वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को हिंसात्मक तरीके से उलट देना हो।” तिलक ने नीति और लाभकारिता को ध्यान में रखते हुए क्रान्तिकारी अस्त्रो के प्रयोग की अनुमति नहीं दी, पर साथ ही यह भी है कि उन्होंने क्रान्तिकारी तरीकों की कभी नैतिक आधार पर निंदा नहीं की। वास्तव में तिलक का क्रान्ति में अविश्वास नहीं था पर देश की तत्कालीन परिस्थितियों में वे क्रान्तिकारी साधनों को उचित नहीं समझते थे और इसीलिए इसका उन्होंने कभी उपदेश भी नहीं दिया।

इसका शेष भाग यहाँ से पढ़ें (Part II)

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