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एम एन राय और मार्क्सवाद

मानवेन्द्र नाथ राय और मार्क्सवाद

मानवेन्द्र नाथ राय और मार्क्सवाद

(M. N. Roy and Marxism)

भारत के लिए बाहर से शस्त्रास्त्र जुटाने के अभियान में असफल होने पर राय इधर-उधर घूमते हुए अमेरिका पहुँचे जहाँ उन्हें भारत से निष्कासित व्यक्तियों के साथ कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ। अमेरिका में रहते हुए तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक पहलुओं के अध्ययन के साथ ही उन्होंने मास तथा अन्य समाजवादी लेखकों की रचनाओं का भी पर्याप्त अध्ययन किया। फलस्वरूप समाजवाद के प्रति उनका आकर्षण बढ़ने लगा। जब अमेरिका महायुद्ध में सम्मिलित हो गया तो वहाँ भारतीय राष्ट्रवादियो को जर्मन एजेण्ट समझा जाने लगा और उनमें से अनेक को गिरफ्तार कर लिया गया। राय से भी पूछताछ हुई, पर इसके पहले कि उन्हें गिरफ्तार किया जाता, वे मैक्सिको पलायन कर गए। अब राय एक परिवर्तित व्यक्ति थे जिन्होंने बिना किसी हिचक के रूढ़िवादी मार्क्सवाद को स्वीकार कर लिया और बहुत शीघ्र ही मार्क्सवाद के द्वन्द्ववाद और वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त पर अधिकार जमा लिया। मैक्सिको में उन्होंने समाजवादी शक्तियों को संगठित करने में रुचि ली और बहुत कुछ उन्हीं के प्रभाव से मैक्सिको के समाजवादी आन्दोलन को अन्तर्राष्ट्रीय दिशा में मोड़ा गया। उन्हीं के प्रयत्नों से रूस के बाहर सर्वप्रथम मैक्सिको में साम्यवादी दल की स्थापना हुई।

एक मार्क्सवादी के रूप में राय का द्वितीय जीवनकाल 1917 से 1946 तक रहा जिसमें प्रारम्भिक चरण में अर्थात् 1917 से 1930 तक उन पर रूढ़िवादी साम्यवाद का रंग चढ़ा रहा, अगले चरण में 1930 से 1939 के दौरान वे एक रेडिकल काँग्रेसी (Radical Congressman) रहे और तीसरे चरण में अर्थात् 1940 से 1946 के दौरान उनकी चिन्तन शैली एक मौलिक लोकतन्त्रवादी (Radical Democrat) की रही। राय का मार्क्सवादी स्वरूप सदा एक-सा न रहा बल्कि समय के साथ उसमें परिवर्तन आते गए। उन्होंने लेनिन, स्टॉलिन आदि साम्यवादी महारथियों के विचारों और क्रिया-कलापों का अन्धानुकरण नहीं किया। फलस्वरूप रूसी साम्यवाद के साथ उनके मतभेद बढ़ते चले गए और 1928 में वे ‘कॉमिन्टर्न’ से निष्कासित कर दिए गए। वास्तव में रूसी साम्यवादी यह बर्दाश्त नहीं कर सके कि राय मार्क्सवाद को अपनी व्याख्या करे अथवा मार्क्सवाद की आलोचना करें या रूसी साम्यवादियों द्वारा ग्रहण की गई मार्क्सवादी व्याख्याओं पर आक्षेप करें। 1930 में छद्मनाम से भारत लौटने के बाद उन्हें कानपुर षड्यन्त्र केस के सिलसिले में लगभग 5 वर्ष का कारावास भोगना पड़ा और तब 1936 में वे भारतीय राजनीति में खुलकर कूद पड़े । काँग्रेस में रहते हुए उन्होंने गाँधीवादी नेतृत्व को न केवल ठुकराया बल्कि उसे अव्यावहारिक भी बताया। राय ने अहिंसा की धारणा में अविश्वास ) प्रकट किया क्योंकि इससे लोगों की क्रान्तिकारी भावना के मर जाने का भय था । असन्तुष्ट राय ने काँग्रेस के भीतर ही ‘लीग ऑफ रेडिकल काँग्रेसमेन’ का संगठन किया और 1940 में काँग्रेस को सर्वथा त्याग कर अपनी ‘रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी’ स्थापित की। इस सम्पूर्ण समय में उन पर मार्क्सवादी प्रभाव छाया रहा, तथापि वे रूढ़िवादी या परम्परावादी मार्क्सवादी नहीं बने रह सके । ज्यों-ज्यों स्वतन्त्र चिन्तन के क्षेत्र में वे बढ़ते गए त्यों-त्यों वे मार्क्सवादी प्रभाव से हटते गए और आगे चलकर एक मौलिक मानववादी (Radical Humanist) के रूप में उन्होंने जिन सिद्धान्तों और विचारों का विकास किया उनके द्वारा वे मार्क्सवाद से एकदम अलग ही हो गए। अग्रिम पंक्तियों में हम देखेंगे कि राय ने मार्क्सवाद की किन आधारों पर आलोचना की और यदि मार्क्सवाद को अपना समर्थन दिया तो कहाँ तक ?

  1. मार्क्सवाद में दो परस्पर विरोधी और असंगत प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं। एक प्रवृत्ति शोषण की निन्दा करती है तो दूसरी प्रवृत्ति द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और वर्ग-संघर्ष पर बहुत अधिक बल देती है। राय को मार्क्स की प्रथम उदार प्रवृत्ति ही रुचिकर थी जिसने कि मार्क्स को संसार में शोषित और पीड़ित वर्ग का प्रमुख हितैषी बना लिया था। रूस के साम्यवादी भी यद्यपि हर प्रकार के शोषण की निन्दा करते थे, लेकिन उनका विशेष आग्रह मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और वर्ग-संघर्ष था। राय का कहना था कि इस प्रवृत्ति में निष्ठा का अर्थ सर्वाधिकारवाद अथवा तानाशाही का विकास है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के प्रेमी राय ने मार्क्सवादियों अथवा रूसी साम्यवादियों की सर्वाधिकार प्रवृत्ति को पसन्द नहीं किया। राय को इस बात पर गम्भीर आपत्ति रही कि साम्यवादी व्यक्तिगत मतभेदों के प्रति अत्यधिक असहिष्णुता रखते हैं और व्यक्ति की अवहेलना करते हैं। स्वाभाविक है कि अपनी इन मान्यताओं के कारण राय रूसी साम्यवादी शासन का समर्थन नहीं कर सके और धीरे-धीरे साम्यवादी आन्दोलन तथा मार्क्सवाद से अलग हो गये।
  2. राय मार्क्सवाद की वैज्ञानिक पद्धति के प्रशंसक थे, उसे कट्टरपंथ का रूप देना उन्हें रुचिकर न था। अतः स्वाभाविक था कि लेनिन और उसके अनुयायियों से, जो कि मार्क्सवाद को एक कट्टरपंथ बनाने के पक्ष में थे, राय की नहीं पटी। उन्हें इस प्रकार के विचारों के प्रति कोई लगाव न था कि मार्क्स की शिक्षाओं में कोई परिवर्तन किया जाए, मार्क्स के वाक्यों को ईश्वर-वाक्य मानते हुए उनका कट्टरता से पालन किया जाए। राय का चिन्तन प्रगतिशील था, उनकी रीति-नीति वैज्ञानिक थी। इनका अभिमत था कि मार्क्सवाद को बदलती हुई परिस्थितियों के अनुकूल ढालने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। मार्क्सवाद को समय के अनुकूल एक सजीव और गतिशील दर्शन बनाना होगा जिसमें आवश्यक लचीलापन बना रहे। मार्क्सवाद की वैज्ञानिक पद्धति को निरन्तरता प्रदान करने के लिए उसका लचीला होना परम आवश्यक है। मार्क्सवाद को यदि कट्टरता और संकीर्णता के घेरे में बाँध दिया गया तो उसकी जीवन-शक्ति का ह्रास हो जाएगा।
  3. राय ने मार्क्स के द्वन्द्वात्मक दर्शन का पूरी तरह विरोध किया और इसे मानव-प्रगति के मार्ग में बाधक माना। द्वन्द्वात्मक पर प्रहार करते हुए उन्होंने अपनी पुस्तक ‘Reason, Romanticism & Revolution‘ में लिखा कि “द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया संसार को बदलने के लिए उन महानतम क्रान्तिकारियों के लिए भी कोई स्थान नहीं देती तो मार्क्सवादी दर्शन से सुसज्जित है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और समाजवाद के एक क्रान्तिकारी पुनर्निर्माण-कार्यक्रम के बीच कभी न दूर होने वाला विरोध मार्क्सवाद की एक आधारभूत भ्रान्ति है ।” राय ने मार्क्स के इस विश्वास से भी असहमति प्रकट की कि इतिहास उत्पादन-साधनों के विकास से उत्पन्न घटनाओं की श्रृंखला है।
  4. राय ने कहा कि इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्या भी दोषपूर्ण है क्योंकि वह सामाजिक प्रक्रिया में मानसिक क्रिया को बहुत कम स्थान देती है। यदि मार्क्सवाद की धारणा को स्वीकार कर लिया जाए तो इहिहास में व्यक्ति की सृजनात्मक शक्ति (Creative Power) के लिए कोई स्थान नहीं रहता। हम इतिहास की व्याख्या केवल भौतिकवादी वस्तुवाद के आधार पर नहीं कर सकते । मानव-प्राणियों की बुद्धि तथा उनके संचित कर्म बड़े शक्तिशाली सामाजिक तत्व हैं। मानवेन्द्र नाथ राय ने मार्क्सवाद की नई व्याख्या करने का प्रयत्न किया। उन्होंने बताया कि इतिहास में वैचारिक और भौतिक दो समानान्तर प्रक्रियाएँ देखने को मिलती हैं। यह ठीक है कि चिन्तन एक शारीरिक प्रक्रिया है जो शरीर तथा परिवेश की परस्पर क्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न होती है, किन्तु एक बार उत्पन्न हो जाने पर विचार अपने निजी विकास-नियम का अनुसरण करते हैं। विचारों की गति तथा सामाजिक प्रक्रियाओं की द्वन्द्वात्मक गति के बीच परस्पर-क्रिया होती रहती है। किन्तु राय का स्पष्ट मत है कि किसी भी विशिष्ट ऐतिहासिक सन्दर्भ में सामाजिक घटनाओं तथा विचार-आन्दोलनों के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता। राय ने लिखा कि “दार्शनिक दृष्टि से इतिहास के भौतिकवादी प्रत्यय को बुद्धि की सृजनात्मक भूमिका को स्वीकार करना पड़ेगा। भौतिकवादी विचारों की वस्तुगत सत्ता से इन्कार नहीं कर सकता। विचार स्वयं नहीं होते, वे शारीरिक क्रिया से निर्धारित होते हैं।
  5. राय ने मार्क्स के वर्ग संघर्ष के समाजशास्त्र (Sociology of Class-Struggle) में भी सन्देह प्रकट किया। उन्होंने कहा कि यधपि मानव इतिहास में विभिन्न सामाजिक वर्गों का अस्तित्व अवश्य रहा और साथ ही उनमें खींचातानी भी रही है, लेकिन इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि सामाजिक एकता और बन्धन के तत्व विशेष प्रबल रहे हैं। इन शक्तिशाली तत्वों के कारण ही समाज मुख्य रूप से अब तक टिका हुआ है। यदि केवल वर्ग संघर्ष की ही प्रधानता होती तो मनुष्य सभी से लड़-भिडकर समाप्त हो जाते। इसके अतिरिक्त, आधुनिक समाज परस्पर विरोधी और ध्रुवीकृत क्षेत्रों में विभक्त नहीं हुआ है, जैसी कि मास ने भविष्यवाणी की थी। यह भी एक कारण है जिसमें मार्क्स की प्रस्थापना के प्रति सन्देह स्वाभाविक है।”
  6. राय ने मार्क्स की इस धारणा को भी गलत बताया है कि “मध्यम वर्ग (Middle Class) का लोप हो जायगा। मार्क्स की भविष्यवाणी के सर्वथा विपरीत मध्यम वर्ग का उल्टे विकास हुआ है और आर्थिक प्रक्रियाओं के विस्तार के साथ मध्यम वर्ग की संख्या बढ़ रही है। प्रथम महायुद्ध के बाद विश्व इतिहास में मध्यम वर्ग का जो साँस्कृतिक और राजनीतिक नेतृत्व रहा है, उसकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते ।”
  7. मार्क्सवाद के विरुद्ध राय की एक गम्भीर आपत्ति यह रही है कि उसमें नैतिक नियमों के चलने के लिए कोई स्थान नहीं है। मार्क्सवादी दर्शन व्यक्ति को अपेक्षित स्वतन्त्रता प्रदान नहीं करता। यह दर्शन व्यक्ति को केवल इस बात की स्वतन्त्रता देता है कि वह ऐतिहासिक आवश्यकता को समझ ले और स्वयं को उसके समक्ष प्रसन्नतापूर्वक स्थापित कर दे। राय ने कहा, स्वतन्त्रता की यह धारणा तो गुलामी की धारणा है जिस पर चलने से समाज ‘स्वेच्छापूर्ण गुलामी’ का समूह बन जाएगा। समाज के विकास में नैतिक शक्ति की अवहेलना करना मार्क्सवाद का निश्चय ही एक गम्भीर दोष है। “मार्क्सवादी आचार-नीति के विरुद्ध राय ने ऐसी मानवतावादी आचार-नीति का प्रतिपादन किया जो मनुष्य की सर्वोपरिता को महत्व देती है और स्वतन्त्रता तथा न्याय के मूल्यों में विश्वास करती है। राय ने मार्क्स की आचार-नीति को, जो वर्ग-संघर्ष को नैतिक आचरण की कसौटी मानती है, अस्वीकार करने के स्थान पर इस धारणा को मान्यता दी कि नैतिक मूल्यों में कुछ स्थायी तत्व भी हैं।”

राय ने मार्क्सवाद की आलोचनाओं द्वारा अपने साम्यवादी सहयोगियों को क्रुद्ध कर दिया और साम्यवादी जगत में राय के लिए कोई स्थान न रहा। इसमें सन्देह नहीं कि मौलिक मानववाद (Radical Humanism) का विकास करते समय राय ने एक प्रकार से मार्क्सवाद का परित्याग ही कर दिया। मौलिक मानववाद को हम मार्क्सवाद का संशोधन नहीं वरन् मार्क्सवाद का परित्याग मानेंगे। ऐतिहासिक निर्णयवाद, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त में अविश्वास रखने वाले विचारक को मार्क्सवादी की संज्ञा देना भ्रामक होगा। राय ने इस बात पर भी कटु आक्षेप किया कि मार्क्सवादी समाजवाद ने जहाँ अपना लक्ष्य एक स्वतन्त्र, न्यायपूर्ण और समानतावादी समाज की स्थापना करना घोषित किया था वहाँ उल्टे इसने सोवियत रूस में एक ऐसी सर्वाधिकारवादी व्यवस्था को जन्म दिया जिसमें व्यक्ति सामाजिक यन्त्र का एक नगण्य छोटा-सा पुर्जा मात्र बन कर रह गया।

मार्क्सवाद की अनेक दृष्टियों से कटु आलोचना के बावजूद राय इसके कुछ पक्षों से सहमत रहे। उदाहरणार्थ राय ने मार्क्स के भौतिक द्वन्द्वात्मक से तो सहमति प्रकट नहीं की लेकिन लेनिन के भौतिकवाद से सहति प्रकट की। उन्होंने मार्क्स के इस विचार को भी स्वीकार किया कि भौतिकवाद समस्त ज्ञान का स्रोत है। उन्होंने मार्क्स के विचार और व्यवहार की अनुरूपता की प्रशंसा की, पर इन छोटी बातों पर मार्क्सवाद से सहमति के विचार पर हम राय को मार्क्सवादी नहीं मान सकते। हमें स्वीकार करना होगा कि राय अपने जीवन की संध्या में मार्क्सवाद से दूर हो गए और मौलिक मानवतावाद के निकट आते गए।

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