(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});

अरविन्द घोष का राष्ट्रवाद

अरविन्द घोष का राष्ट्रवाद (Aurobindo’s Nationalism)

अरविन्द घोष का राष्ट्रवाद

भारतीय राष्ट्रवाद के इतिहास में अरविन्द का स्थान बहुत ही ऊँचा और महत्वपूर्ण है। सक्रिय राजनीति के क्षेत्र में वे लगभग 4-5 वर्ष ही रहे, लेकिन इतनी सी अवधि में उन्होंने राष्ट्रवाद को वह स्वरूप प्रदान किया जो अन्य कोई व्यक्ति प्रदान नहीं कर सका। प्रारम्भ में वह उन राष्ट्रवाद के प्रणेता बने और बाद में पाँडिचेरी चले जाने के बाद उनका राष्ट्रवाद पूरी तरह आध्यात्मिक धरातल पर प्रतिष्ठित हो गया। लेकिन दोनों ही अवस्थाओं में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध रहा, अन्तर केवल यह था कि द्वितीय अवस्था आगे चलकर पूरी तरह मुखरित हुई।

यह भी पढ़े-

अरविन्द के समकालीन उदारवादी नेता निःसन्देह देशभक्त थे, लेकिन उनका राष्ट्रवाद उस अभिनव राष्ट्रवाद से बहुत निम्न स्तर पर था जिसका प्रसार अरविन्द तथा उनके साथियों ने किया । उदार-पंथियों का राष्ट्रवाद एक बौद्धिक चरित्र लिए हुए था जिसे देशभक्ति की संज्ञा देना ही उचित होगा । उदारवादी नेता आमूलचूल राष्ट्रवाद नहीं थे। उन्हें भारत से प्रेम था और भारत के हित के लिए वे कष्ट भी सह रहे थे। किन्तु उनकी इच्छा यूरोपीय शिक्षा, यूरोपीय संगठन और सामग्री को लेकर भारत को एक छोटा-सा इंग्लैण्ड बना देने की थी। राष्ट्र में आत्म-चेतना उत्पन्न करने की ओर उनका विशेष ध्यान नहीं था। इसके विपरीत अरविन्द और उनके साथियों ने अपेक्षाकृत बहुत ऊँचे राष्ट्रवाद की नींव रखी, देशवासियों में स्वाभिमान भरा, उनके पुरुष को जगाया और उनके सामने भारत की आत्मा का चित्र स्पष्ट किया। अरविन्द के राष्ट्रवाद विचार तिलक, लाजपतराय आदि से भी गहरे थे। जहाँ अन्य उग्रवादी नेताओं की राष्ट्रीयता स्वाधीनता के लिए एक राजनीतिक चीख-पुकार थी वहाँ अरविन्द की राष्ट्रीयता एक धार्मिक भावना से ओतप्रोत थी अर्थात् ईश्वर की वाणी मानव-आत्मा की अभिव्यक्ति में थी।

अरविन्द के लिए उनका राष्ट्र भारत केवल एक भौगोलिक सत्ता या प्राकृतिक भूमि-खण्ड मात्र नहीं था। उन्होंने स्वदेश को माँ माना, माँ के रूप में उसकी भक्ति की, पूजा का। उन्होंने देशवासियों को भारत माता की रक्षा और सेवा के लिए सभी प्रकार के कष्टों को सहने की मार्मिक अपील की। उन्होंने कहा कि भारत माता सदियों तक अपनी सन्तानों को पालने में झुलती रही है और उनका पालन पोषण करती रही, पर दुर्भाग्य से आज भी वह विदेशी अत्याचारों की बेड़ियों में जकड़ी कराह रही है और उसका स्वाभिमान नष्ट हो चुका है। माता के सपूतों का कर्त्तव्य है कि वे माँ की गुलामी बेड़ियाँ काट फेंके। अरविन्द ने लिखा-‘”राष्ट्र क्या है ? हमारी मातृभूमि क्या है? वह भूखण्ड नहीं है, वाक्विलास नहीं है और न मन की कोरी कल्पना है। वह महाशक्ति है वो राष्ट्र का निर्माण करने वाली कोटि-कोटि जनता की सामूहिक शक्तियों का समाविष्ट रूप है।” अरविन्द ने राष्ट्रवाद को एक धर्म बताया जो ईश्वर के पास से आया है और जिसे लेकर हमें जीवित रहना है। उन्होंने घोषणा की कि राष्ट्रीयता को दबाया नहीं जा सकता, यह तो ईश्वरीय शक्ति की सहायता से निरन्तर बढ़ती रहती है। राष्ट्रीयता अथवा राष्ट्रवाद अजर-अमर है। यह कोई मानवीय वस्तु नहीं है बल्कि प्रत्यक्ष ईश्वर है और ईश्वर को मारा नहीं जा सकता।

अरविन्द ने दासता की बेड़ियों में जकड़ी तिरस्कृत भारत माँ को स्वाधीन करने की माँग की। उन्होंने कहा कि माँ को बेड़ियों से मुक्त करने के लिए हर सम्भव उपाय करना बेटों का कर्तव्य है। माँ की स्वतन्त्रता के प्रसंग में समझौते या सौदेबाजी की कोई बात नहीं उठती। हमारा केवल एक ही लक्ष्य हो सकता है और वह है-पूर्ण और अखण्ड स्वतन्त्रता । “राष्ट्रीय मुक्ति का प्रयत्न एक परम् पवित्र यज्ञ है, जिसमें बहिष्कार, स्वदेशी, राष्ट्रीय शिक्षा और अन्य कार्य छोटी-बड़ी आहुतियाँ हैं। इस यज्ञ का सुफल स्वतन्त्रता है जिसे हम देवी भारत माता को अर्पित करेंगे ।” अरविन्द ने कहा कि यदि किसी कमी के कारण हमारे कदम लड़खड़ाएँ, यदि किसी शंका के कारण हमारी आस्था डगमगा गई तो माता संतुष्ट नहीं होगी और प्रत्यक्ष दर्शन नहीं देगी।

अरविन्द ने राष्ट्रवाद को धार्मिक और आध्यात्मिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा-“राष्ट्रीयता क्या है ? राष्ट्रीयता एक राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है, राष्ट्रीयता एक धर्म है जो ईश्वर प्रदत्त है, राष्ट्रीयता एक सिद्धान्त है जिसके अनुसार हमें जीना है । राष्ट्रवादी बनने के लिए राष्ट्रीयता के इस धर्म को स्वीकार करने के लिए हमें धार्मिक भावना का पूर्ण पालन करना होगा। हमें स्मरण रखना चाहिए कि हम निमित्त मात्र हैं, भगवान् के साधन मात्र हैं।” अरविन्द ने भारत को अपने आध्यात्मिक अतीत का ज्ञान कराना चाहा और उन्हें यह देखकर सन्तोष भी हुआ कि देशवासियों में अपने अतीत के गौरव के प्रति आस्था जाग्रत होने लगी है। अरविन्द ने चेतावनी दी कि यदि हम अपना यूरोपीयकरण करेंगे तो हम अपनी आध्यात्मिक क्षमता, अपना बौद्धिक बल, अपनी राष्ट्रीय लचक और आत्म-पुनरुद्धार की शक्ति को सदा के लिए खो बैठेंगे। जन-साधारण को उन्होंने राष्ट्रवाद का आध्यात्मिक स्वरूप समझाया और जनता के मन में यह बात बैठा दी कि राष्ट्रवाद उदात्त तथा दैवी शक्ति का प्रतीक है। राष्ट्रवाद को ईश्वरीय आदेश और प्रेरणा बतलाकर अरविन्द ने राष्ट्रवाद में एक नवीन चेतना भर दी। उन्होंने देशवासियों को कहा कि आत्मा में ही शाश्वत शक्ति का निवास है और उसे जगाने पर अर्थात् आन्तरिक स्वराज्य प्राप्त कर लेने पर हमें सामाजिक दृढ़ता, बौद्धिक महत्ता, राजनीतिक स्वतन्त्रता, विश्व पर प्रभावकारिता-सब कुछ स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा । आत्म-शक्ति के संचार में ‘कठिन’ और ‘असम्भव’ जैसे शब्द लुप्त हो जायेंगे |

अरविन्द ने भारतीयों में राष्ट्रवाद के दैवी स्वरूप की झाँकी भर दी और उन्हें विश्वास करा दिया कि जब ईश्वरीय शक्ति से व्याप्त सम्पूर्ण राष्ट जाग्रत होकर उठ खड़ा होगा तो कोई भी भौतिक शक्ति उसका प्रतिकार नहीं कर सकेगी और संसार की कोई भी बाधा उसकी प्रगति को रोक नहीं सकेगी। एकता में महान् शक्ति है। यदि भारत के सब पुत्र मिलकर मातृभूमि की पुकार पर दौड़ पड़ेंगे तो एकता साकार हो उठेगी। अरविन्द ने राष्ट्रवाद को दैवी स्वरूप देते हुए बार-बार कहा कि बंग-भंग के स्फुलिंग से प्रज्वलित राष्ट्रीय आन्दोलन की ज्वाला ईश्वर प्रेरित और ईश्वर निर्देशित है। राष्ट्रीयता एवं परमात्मा से उद्भूत एक धर्म है। राष्ट्रीयता ईश्वर की शक्ति में अमर हो कर रहती है और उसका किसी भी शस्त्र से संहार नहीं किया जा सकता। अरविन्द का विचार था कि मानव जाति के आध्यात्मिक जागरण में भारत को अनिवार्य भूमिका निभानी है, उसे समस्त भू-खण्ड का एक दिव्य संदेश देना है। यह तभी हो सकता है जब भारत स्वाधीन हो। ‘पूर्ण स्वराज्य’ ही सच्चे भारतीय राष्ट्रवाद का लक्ष्य हो सकता है, उससे कुछ कम नहीं। प्रश्न किया जा सकता है कि अरविन्द ने ऐसे समय में देश की पूर्ण स्वाधीनता का नारा क्यों दिया जिस समय कि वह विचार ही नितान्त अव्यावहारिक और असाध्य माना जाता था। उनकी रचनाओं के अध्ययन से इसका द्वितीय उत्तर मिलता है-पहली बात तो यह है कि अपने आदर्शवादी और आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार वे मातृभूमि को देवी माता समझते थे और उसकी मुक्ति के लिए शक्ति-भर संघर्ष करना उसकी संतानों का परम् कर्त्तव्य मानते थे। दूसरी बात यह कि उनका विचार था कि भारत का स्वतन्त्र होना केवल उसी के हित में नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानव-जाति के हित में था। उनका विश्वास था कि भारत ‘राष्ट्रों के गुरु’ के रुप में अपनी पूर्व निश्चित आध्यात्मिक भूमिका तब तक नहीं निभा सकता जब तक उसके हाथ पैर बँधे हैं। अतः पहली आवश्यकता यह है कि भारत स्वतन्त्र हो । अरविन्द की मान्यता थी कि राजनीतिक स्वतन्त्रता भारत की सब प्रकार की उन्नति की अनिवार्य शर्त है। इसीलिए उन्होंने उदारपंथी नेताओं की भाँति छोटे-मोटे सुधारों को महत्व न देकर राजनीतिक स्वतन्त्रता को भारतीयों का लक्ष्य घोजित किया।

अरविन्द का राष्ट्रवाद किसी भी रूप में कोई संकुचित राष्ट्रवाद नहीं था। उन्होंने भारत के स्वातन्त्र्य और जागरण पर जोर दिया क्योंकि उनकी दृष्टि में भारत का कार्य विश्व का कार्य और ईश्वर का कार्य था। अरविन्द कहा करते थे “राष्ट्रवाद मानव के सामाजिक तथा राजनीतिक विकास के लिए आवश्यक है। अन्ततोगत्वा एक विश्व संघ के द्वारा मानव की एकता स्थापित होनी चाहिए और इस आदर्श की प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक नींव का निर्माण मानव-धर्म और आन्तरिक एकता की भावना के द्वारा ही किया जा सकता है ।” अरविन्द ने अपने राष्ट्रवाद के आध्यात्मिक स्वरूप को भारत की प्राचीन संस्कृति के सोतों पर तो आधारित किया ही किन्तु साथ ही इसे मानवतावादी रूप भी दे दिया। उनका कहना था कि भारत शक्तिशाली और आक्रामक शक्ति बनने लिए प्रयत्नशील नहीं है वरन् अपने विशाल आध्यात्मिक खजाने को संसार को प्रदान करके मानवता को समानता और एकता के सूत्र में गूंथने के लिए प्रयत्नशील है। स्पष्ट है कि यदि अरविन्द राष्ट्रवाद का कुछ लोग संकीर्ण हिन्दू राष्ट्रवाद का अर्थ लगाते हैं तो यह बेअक्ली है। उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि अरविन्द की हिन्दू-राष्ट्र की अवधारणा भी बहुत ही उदात्त थी। उनका कहना था कि “हिन्दू धर्म शाश्वत है, यह सार्वभौमिक धर्म है जो सबको समेटता है। एक सीमित, संकीर्ण और साम्प्रदायिक धर्म तो अल्पकाल तक ही जीवित रह सकता है। पर हिन्दू धर्म में किसी प्रकार की संकीर्णता नहीं है। यही एक धर्म ईश्वर के सामीप्य पर बल देता है। यह धर्म इस सत्य को स्वीकार करता है कि ईश्वर सर्वव्याप्त है। इस धर्म में हमें सत्य की अनुभूति होती है।” प्रकट है कि अरविन्द की राष्ट्रीयता का दृष्टिकोण एकदम नयापन के लिए हुए था जो किसी संकीर्णता पर आधारित नहीं था। राष्ट्रीयता को उन्होंने सामाजिक विकास और राजनीतिक विकास में एक आवश्यक चरण माना था परन्तु अन्तिम अवस्था में उनका आदर्श मानवीय एकता का था। उन्हीं के शब्दों में “अन्तिम परिणाम एक विश्व राज्य की स्थापना ही होना चाहिए। उस विश्व राज्य का सर्वोत्तम रूप स्वतन्त्र राष्ट्रों का ऐसा संघ होगा जिसके अन्तर्गत हर प्रकार की पराधीनता, बल पर आधारित असमानता और दासता का विलोप हो जाएगा। उसमें कुछ राष्ट्रों का स्वाभाविक प्रभाव दूसरों से अधिक हो सकता है किन्तु सबकी परिस्थिति समान होगी।”

महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: wandofknowledge.com केवल शिक्षा और ज्ञान के उद्देश्य से बनाया गया है। किसी भी प्रश्न के लिए, अस्वीकरण से अनुरोध है कि कृपया हमसे संपर्क करें। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे। हम नकल को प्रोत्साहन नहीं देते हैं। अगर किसी भी तरह से यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है, तो कृपया हमें wandofknowledge539@gmail.com पर मेल करें।

About the author

Wand of Knowledge Team

Leave a Comment

error: Content is protected !!