अरविन्द घोष (Aurobindo Ghosh)
आधुनिक भारत के महापुरुषों में महर्षि अरविन्द का नाम ध्रुव-तार के समान चमकता है। भारत की आत्मा का जो गहन ज्ञान उन्हें था, वह सम्भवतः रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द और गाँधी जैसे महापुरुषों में भी नहीं था। रोम्या रोलाँ ने अरविन्द को ‘भारतीय विचारकों का सम्राट्’ एवं ‘एशिया तथा यूरोप की प्रतिभा का समन्वय’ कहकर पुकारा है तो डॉ० फ्रेडरिक स्पजलबर्ग ने उन्हें “हमारी इस वसुन्धरा का मार्ग-दर्शक नक्षत्र और हमारे युग का पैगम्बर” कहा है। वर्तमान भारत के राजनीतिक विचार-क्षेत्र में अरविन्द एक महान् राजनीतिक चिन्तक थे। राष्ट्रीय आन्दोलन की गूढ़ और आध्यात्मिक महत्व देने, उसके सामने पूर्ण स्वराज का प्रेरणाप्रद आदर्श रखने, भारत के विशिष्ट सांस्कृतिक परम्परा के तेज में नव-जीवन अनुप्राणित करने, स्वतन्त्रता के आदर्श की प्राप्ति के लिए एक राजनीतिक योजना तैयार करने तथा सारे अन्तर्राष्ट्रीय और मानव-एकता के आदर्श के मुख्य प्रसंग में रखने का सर्वाधिक श्रेय उन्हीं को है। राजनीतिक जीवन में उल्का के समान तेजस्वी होने के बाद अपने जीवन के अन्तिम 40 वर्ष अरविन्द ने पाण्डिचेरी में व्यतीत किये और आध्यात्मिक क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी महानता प्रस्थापित की। उनका आश्रम संसार भर के दार्शनिकों और आध्यात्मिक अन्वेषियों का आकर्षण केन्द्र बन गया।
अरविन्द घोष का जीवन-परिचय
(Life Sketch of Aurobindo Ghosh)
अरविन्द घोष का जन्म 15 अगस्त 1872 को कोलकाता में हुआ था। अरविन्द घोष (1872-1950) के पिता डॉ० कृष्णधन पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के विशेष भक्त थे। उन्होंने अपने सभी बच्चों को पढ़ाने के लिए पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली का अनुसरण किया । प्रारम्भ में अरविन्द दार्जिलिंग के लवरेटो कॉन्वेन्ट स्कूल में पढ़े और तब लगभग 7 वर्ष की आयु से 21 वर्ष की आयु तक उन्होंने इंग्लैण्ड में ग्रीक तथा लैटिन के प्राचीन साहित्य का गम्भीर और सूक्ष्म अध्ययन किया। उन्होंने महान् अंग्रेज कवियों को पढ़ा और होमर से लेकर गेटे तक यूरोप के कुछ महान् आचार्यों की राचनाएँ मूल भाषाओं में पढ़ीं। पिता के आग्रह पर 1890 में वे आई० सी० एस० की प्रतियोगिता परीक्षा में बैठे और सभी लिखित परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुए। लेकिन घुड़सवारी की परीक्षा में सम्मिलित न होकर जान बूझकर उन्होंने अपने आपको अयोग्य करार दिया, क्योंकि उन्हें सरकारी नौकरी करने की कोई इच्छा न थी।
यद्यपि अरविन्द का लालन-पालन पूर्ण पाश्चात्य ढंग से हुआ तथापि भीतर ही भीतर भारतीय संस्कृति से सम्बद्ध कुछ गम्भीर तत्व उनके हृदय में काम करते रहे और आगे चलकर वे भारतीय राष्ट्रवाद के महानतम सन्देशवाहक तथा भारतीय आध्यात्मवाद के महानतम पुजारी सिद्ध हुए। इंग्लैण्ड के आवास काल में भी उनके हृदय मे राष्ट्रवाद और देशभक्ति की ज्वाला धधकती रही। 1893 मे भारत लौटने पर 1906 तक उन्होंने विभिन्न स्थितियों में बड़ौदा नरेश की सेवा की। इस अवधि में वे प्राचीन भारतीय साहित्य, धर्म और दर्शन का गहरा अध्ययन करते रहे। बड़ौदा राज्य की सेवा में अन्तिम वर्षों में वे बड़ौदा कॉलेज में प्राध्यापक बने और बाद में वाइस-प्रिन्सिपल के पद पर पहुंच गए। उन्होंने उपनिषदों तथा गीता का गम्भीर अध्ययन किया और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि प्राचीन भारत के इन ग्रन्थों में तत्वज्ञान सम्बन्धी समस्याओं का बौद्धिक व तार्किक विवेचन नहीं है, अपितु उनमें गम्भीर, तीव्र और गूढ आध्यात्मिक अनुभूतियों के उद्गार भरे पड़े हैं। रामकृष्ण और विवेकानन्द के वेदान्तिक समन्वय का उन पर विशेष प्रभाव पड़ा।
1893 से 1905 के बीच बड़ौदा आवास काल में अरविन्द ने अपने राजनीतिक सिद्धान्तों का विकास किया। इस दौरान उनके राजनीतिक विचारों के तीन रूप प्रत्यक्ष हुए-उदारवादी काँग्रेस के आलोचक का रूप, अंग्रेजों के आलोचक का रूप और उनके अपने राजनीतिक कार्यक्रम का स्पष्ट रूप। 1905 से पहले उन्होंने सक्रिय राजनीति में भाग नहीं लिया। लेकिन 1905 में बंगाल-विभाजन की घटना ने देश के विभिन्न भागों में राष्ट्रीयता की प्रबल लहर जाग्रत कर दी और अरविन्द सक्रिय रूप से राष्ट्रीयता आन्दोलन कूद पड़े। 1905 से 1910 के बीच उनका राजनीतिक जीवन उल्का के समान तेजस्वी में सिद्ध हुआ और वे उग्रवादी दल के प्रतिष्ठित नेता बन गये । राष्ट्रीय आन्दोलन में उन्होंने रूस के आतंकवादी ढंग के आक्रामक प्रतिरोध का निश्चय किया। 1908 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। यद्यपि आरोपों से मुक्त हो गये लेकिन बन्दी जीवन में ही उनमें महान् परिवर्तन हुआ। वे आध्यात्मवाद की ओर पहले ही झुके हुए थे, कारागार में उनका आध्यात्मिक दृष्टिकोण प्रस्फुटित और वैश्विक हो गया। उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब वे स्वयं को योग की आत्म-विद्या में लगाएँगे। इस निश्चय का ही यह परिणाम निकला कि 1910 में एकाएक उन्होंने राजनीति को तिलांजलि देकर अध्यात्म का मार्ग अपना लिया। “अरविन्द के पाण्डिचेरी में पलायन और धर्म के लिए राजनीति तथा राष्ट्रीय आन्दोलन का परित्याग करने के निर्णय के साथ खुले आन्दोलन (युद्धोन्मुखी राष्ट्रवादी आन्दोलन) का अन्त हो गया ।” पाण्डिचेरी में अरविन्द का आश्रम शीघ्र ही संसार भर के दार्शनिकों और आध्यात्मिक अन्वेषियों का आकर्षण केन्द्र बन गया।
उल्लेखनीय है कि स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय भाग लेने के जीवन को त्याग कर अरविन्द ने पाण्डिचेरी में आध्यात्म और योग-मार्ग का अनुसरण किया, किन्तु उनके इन दोनों कार्यों में कोई पृथकता नहीं थी। अरविन्द की राष्ट्रभक्ति में कोई कमी नहीं आई थी। ईश्वरीय आदेश का पालन करने के लिए पाण्डिचेरी जाकर वे आध्यात्म मार्ग के राही बने और वहाँ भी आध्यात्म शक्ति तथा योग के साधनों और उपायों से देश की स्वतन्त्रता के लिए काम करते थे। अपने देशवासियों को उच्चतर आध्यात्मिकता के लिए तैयार करना उनका लक्ष्य था, क्योंकि उनका विश्वास था कि भारत का लक्ष्य सम्पूर्ण मानवता को जागृत करके चेतना के एक उच्चतर स्तर पर लाना है। अरविन्द की मान्यता थी कि भारत की स्वतन्त्रता और एकता अवश्य मिलकर रहेगी तथा इस लक्ष्य की सर्वोत्तम सिद्धि योग द्वारा हो सकती थी।
मृत्यु
पाण्डिचेरी में अरविन्द ने महान् योग साधना और साहित्यिक क्रिया का जीवन व्यतीत किया तथा अनेक महान् कृतियों की रचना की जिनमें उनकी प्रकाण्ड विद्वता, आध्यात्मिक शक्ति और दार्शनिकता झलकती है। पाण्डचरी में ही 5 दिसम्बर, 1950 को इस महापुरुष का देहान्त हो गया।
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