कौटिल्य का मण्डल सिद्धान्त
कौटिल्य का मण्डल सिद्धान्त
(MANDAL SYSTEM)
कौटिल्य ने अपने मण्डल सिद्धान्त में अनेक राज्यों के समूह या मण्डल में विद्यमान राज्यों द्वारा एक-दूसरे के प्रति व्यवहार में लायी जाने वाली नीति का वर्णन किया है। इस सिद्धान्त में मण्डल केन्द्र ऐसा राजा होता है जो पड़ोसी राज्यों को जीतकर अपने में मिलाने के लिए प्रयत्नशील है। कौटिल्य ने ऐसे राजा को ‘विजिगीषु राजा’ (लिजय की इच्छा रखने वाला राजा) कहा है। उसकी मान्यता है कि एक राजा का पड़ोसी राज्य स्वाभाविक रूप से उसका शत्रु राज्य होता है। विजिगीषु राजा के राज्य की सीमा से लगा हुआ जो राज्य होगा, वह, अरि (शत्रु) राज्य होता है। विजिगीषु के राज्य से अलग किन्तु उसके पड़ोसी राज्य से मिला हुआ राज्य विजिगीषु का मित्र होता है और मित्र राज्य से मिला हुआ राज्य अरि मित्र होता है। कहने का आशय यह है कि अपने निकटतम पड़ोसी राज्य का राजा शत्रु उसके आगे का मित्र और उससे आगे का अरि मित्र, इसी प्रकार से क्रम चलता है। ये पाँच राज्य तो विजिगीषु के सामने वाली या आगे की दिशा में होते हैं।
इसी प्रकार कुछ राज्य उसके पीछे की दशा में होते हैं। विजिगीषु के पीछे पाणिग्राह (पीछे का शत्रु) आक्रान्दा (पीठ का मित्र), पार्णािग्राहासार (पार्णािग्राह का मित्र) और आक्रान्दासार (आक्रान्दासार का मित्र) चार राजा होते हैं। पाणिग्राह पड़ोसी होने के कारण ही विजिगीषु का शत्रु होता है। इन दस प्रकार से राज्यों के अतिरिक्त दो अन्य प्रकार के भी, ,राज्य हैं-मध्यम तथा उदासीन । मध्यम ऐसा राज्य है जिसका प्रदेश विजिगीषु तथा अरि राज्य दोनों की सीमा से लगा हुआ है। मध्यम राज्य दोनों की, चाहे वे परस्पर मित्र हों या शत्रु हों, सहायता करने में समर्थ होता है और आवश्यक होने पर दोनों का अलग अलग मुकाबला कर सकता है। उदासीन राजा का प्रदेश विजिगीषु, अरि तथा मध्यम इन तीनों की सीमाओं से परे होता है। वह बहुत प्रबल होता है, उपर्युक्त तीनों के परस्पर मिले होने की दशा में वह उनकी सहायता कर सकता है, उनके परस्पर न मिले होने की दशा में वह प्रत्येक का मुकाबला कर सकता है। इस प्रकार 12 राज्यों का यह समूह राज्य मण्डल कहलाता है। इसे निम्नलिखित चित्र से भली-भाँति समझा जा सकता है।
मण्डल सिद्धान्त के आधार पर कौटिल्य ने इस बात का निर्देश दिया है कि एक विशेष राज्य के कौन मित्र हो सकते हैं और कौन शत्रु । राजा की अपनी नीति और योजना इस तथ्य को दृष्टि में रखते हुए ही निर्धारित करनी चाहिए।
कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित मण्डल सिद्धान्त आंशिक रूप में ठीक है। उदाहरणार्थ, वर्तमान समय में भारत की सीमाएँ पाकिस्तान और चीन से लगी हुई हैं और बहुत कुछ सीमा तक इसी कारण इन राज्यों के साथ भारत के मतभेद बने हुए हैं तथा भारत के प्रति मतभेदों की इस समानता के कारण पाकिस्तान और चीन परस्पर मित्र हैं। इसी प्रकार भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान तीनों देशों के पारस्परिक सम्बन्धों को भी मण्डल सिद्धान्त के आधार पर समझा जा सकता है। लेकिन वर्तमान समय में जबकि व्यापार और आर्थिक हित तथा विचाराधारा सम्बन्धी भेद भी संघर्ष के कारण होने लगे हैं, उस समय मात्र सीमाओं के आधार पर राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों की व्यवस्था की जा सकती है।
मण्डल सिद्धान्त के सम्बन्ध में डॉ० अल्तेकर का विचार है कि “प्राचीन विचारक यह जानते थे कि युद्धों को पूर्ण रूप से समाप्त नहीं किया जा सकता है, अतः उन्होंने इसके खतरों को कम करने के लिए एक ऐसे सिद्धान्त का समर्थन किया जिसके अनुसार देश में विद्यमान अनेक छोटे-बड़े राज्यों में शक्ति का विवेकपूर्ण सन्तुलन बना रह सके और युद्ध न हो।”
कौटिल्य की षाड्गुण्य नीति
(SIX-FOLD POLICY)
पड़ोसी राज्य और विशेषतया अन्य विदेशी राज्यों के प्रति व्यवहार के सम्बन्ध में कौटिल्य ने षाड्गुण्य अर्थात् 6 लक्षणों वाली नीति का प्रतिपादन किया। इसके 6 लक्षण हैं- सन्धि, विग्रह (युद्ध), यान (शत्रु का वास्तविक आक्रमण करना), आसन (तटस्थता), संश्रय (बलवान का आश्रय लेना), और द्वैधीभाव (सन्धि और युद्ध का एक साथ प्रयोग।
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सन्धि
कौटिल्य के अनुसार किसी भी राजा के लिए सन्धि करने की नीति का उद्देश्य अपने शत्रु राज्य की शक्ति को नष्ट करना तथा स्वयं को बलशाली बनाना होता है।
उसके अनुसार शत्रु से भी उस समय सन्धि कर ली जानी चाहिए, जबकि शत्रु पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती हो और स्वयं को सबल तथा शत्रु को निर्बल करने के लिए कुछ समय प्राप्त करना आवश्यक हो । कौटिल्य के अनुसार सन्धि कई प्रकार की हो सकती है।
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विग्रह
विग्रह का अर्थ युद्ध है। इस नीति का अनुगमन राजा को तभी करना चाहिए जब राजा शत्रु को निर्बल देखे, स्वयं उसकी युद्ध व्यवस्थाएँ हों तथा वह अपनी शक्ति के बारे में पूर्णतया आश्वासत हो। विगृह नीति का अनुसरण करने के पूर्व राजा के द्वारा राज्यमण्डल के मित्र राज्यों की सहायता प्राप्त कर लेने की भी व्यवस्था कर ली जानी चाहिए। विग्रह नीति अपनाते हुए शत्रु के ऊपर आक्रमण करके राज्य की भूमि के भागों को तुरन्त अपने अधीन कर लिया जाना चाहिए।
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यान
यान का अभिप्राय वास्तविक आक्रमण है। इस नीति को तभी अपनाया जाना चाहिए जबकि राजा अपनी स्थिति को सुदृढ़ रखे और ऐसा प्रतीत हो कि आक्रमण के मार्ग को अपनाये बिना शत्रु को वश में करना सम्भव नहीं है। विग्रह और यान में मात्र स्तर का ही भेद है, यान विग्रह से कुछ आगे है।
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आसन
जब विजिगीषु और शत्रु समान रूप से शक्तिशाली हों तो राजा के द्वारा आसन अर्थात् तटस्थता की नीति अपनायी जानी चाहिए। आसन की नीति अपनाते हुए राजा के द्वारा शक्ति अर्जन की निरन्तर चेष्टा की जानी चाहिए।
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संश्रय
संश्रय का अर्थ बलवान का आश्रय लिये जाने से है। यदि राजा शत्रु को हानि पहुँचाने की क्षमता नहीं रखता, साथ ही यदि वह अपनी रक्षा करने में भी असमर्थ हो, तो उसे बलवान राजा का आश्रय लेना चाहिए। पर यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि जिस राजा का आश्रय लिया जा रहा है, वह शत्रु से अधिक बलशाली हो। यदि इतना बलवान राजा न मिले, तो सबल शत्रु की ही शरण ली जानी उचित है।
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द्वैधीभाव
वैधीभाव की नीति से कौटिल्य का आशय एक राज्य के प्रति सन्धि और दूसरे राज्य के प्रति विग्रह की नीति को अपनाने से है। जब अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक राज्य से सहायता लेने और दूसरे राज्य से लड़ने की आवश्यकता हो तो द्वैधीभाव नीति अपनायी जानी चाहिए।
कौटिल्य की विचारधारा का मूल यह है कि विशेष परिस्थितियों के अनुसार जो नीति उपयुक्त हो, वही अपनायी जानी चाहिए। कौटिल्य की राज्य विषयक अन्य विचारधाराओं की भाँति वैदेशिक सम्बन्धों के विषय में ये विचार भी यथार्थ तथा वास्तविक हैं, न कि कोरे स्वप्नलोकीय । वस्तुत: कौटिल्य की षाड्गुण्य नीति इतनी तार्किक है कि सभी राज्य कम-अधिक रूप में इस पर आचरण करते रहते हैं।
वैदेशिक नीति के सफल संचालन हेतु अन्य भारतीय आचार्यों की भैंति ही कौटिल्य ने भी साम, दाम, दण्ड और भेद इस प्रकार के चार उपायों का विधान किया है। कौटिल्य का मत है कि निर्बल राजा को समझा बुझाकर (साम द्वारा) अथवा कुछ सहायता देकर (दान द्वारा) वश में किया जाना चाहिए । भेद का अर्थ है, फूट डालना और कौटिल्य का विचार है कि सबल शत्रु राजा, जिसके विरुद्ध युद्ध में विजय नहीं प्राप्त की जा सकती हो, उसके प्रति भेद नीति को अपनाया जाना चाहिए। इसका तात्पर्य है कि सबल राजा को उसके अन्य मित्र राज्यों में मतभेद की स्थिति उत्पन्न की जानी चाहिए या सम्बन्धित राजा और उसके राज्य की अन्य प्रकृतियों (अमात्य, प्रजाजन, आदि) के बीच मतभेद की स्थिति उत्पन्न कर दी जानी चाहिए, जिससे सबल शत्रु राजा और उसका राज्य निर्बल हो जाए। भेद उत्पन्न करने का कार्य दूत और गुप्तचरों के माध्यम से किया जा सकता है। दण्ड का अर्थ है युद्ध और कौटिल्य का विचार है कि दण्ड के उपाय का अनुसरण तभी किया जाना चाहिए, जबकि अन्य तीन उपाय (साम, दाम और भेद) सार्थक सिद्ध न हों। दण्ड के उपाय को अन्त में ही अपनाने का सुझाव इसलिए दिया गया है कि इस उपाय को अपनाने में स्वयं राजा को क्षति उठानी होती है।
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