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केन्द्र-राज्य वित्तीय सम्बन्ध

केन्द्र-राज्य वित्तीय सम्बन्ध

केन्द्र-राज्य वित्तीय सम्बन्ध

प्रत्येक संघात्मक संविधान इस प्रकार की व्यवस्था करता है कि वित्त के सम्बन्ध में संघ-सरकार और इकाई सरकारें परस्पर स्वतंत्र रहें तथा उनके पास अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के लिए पर्याप्त साधन हों। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 264 से 291 में केन्द्र तथा राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों का उल्लेख है। केन्द्र और राज्यों में राजस्व-वितरण की व्यवस्था बहुत कुछ भारत सरकार अधिनियम, 1935 का अनुसरण भी है। ऐसा करते समय संविधान निर्माताओं ने किसी कठोर सिद्धान्त को लागू न करके लचीलेपन के तत्त्वों का समावेश किया है। संविधान में बदली हुई परिस्थितियों के अनुकूल समय-समय पर वित्त-स्थिति पर पुनर्विचार करने और संशोधन एवं परिवर्तन का सुझाव देने के लिए एक वित्त आयोग की स्थापना का उपबन्ध भी किया गया है। विश्व के किसी भी संघात्मक संविधान में इस तरह की कोई विस्तृत व्यवस्था नहीं पाई जाती, जिसके माध्यम से संघ और इकाइयों में राजस्व वितरण का समयानुकूल समायोजन और वितरण होता रहे। यह व्यवस्था भारत का अपना मौलिक योगदान है। जिसने केन्द्र और राज्यों के जटिल वित्तीय सम्बन्धों का एक प्रकार से सरलीकरण’ कर दिया है। संघ और राज्यों के मध्य राजस्व साधनों के विभाजन के सिद्धान्त के आधार हैं-कार्यक्षमता, पर्याप्तता और ‘उपयुक्तता। इस तीनों उद्देश्य की एक साथ प्राप्ति कठिन कार्य है, अतः हमारे संविधान में समझौतावादी प्रवृत्ति अपनाई गई है। तदनुसार विषय को दो भागों में विभक्त किया गया हैं-प्रथम, संघ एवं राज्यों के मध्य राजस्व का विभाजन एवं द्वितीय, सहायक अनुदानों का वितरण। संविधान की सातवीं अनुसूची में केन्द्र और राज्य सरकारों की आय के साधनों का उल्लेख किया गया है। इसकी सूची 1 में संघ-सरकार तथा सूची 2 में राज्य सरकारों का प्रावधान है। संघ एवं राज्यों के मध्य वित्तीय सम्बन्धों का विवेचन इस प्रकार हैं-

  1. विधि के प्राधिकार के बिना करारोपण का निषेध-

    अनुच्छेद 265 में स्पष्ट उल्लिखित है “विधि के प्राधिकार के सिवाय कोई कर न तो आरोपित और न एकत्र किया जाएगा। इसका अर्थ यह है कि कोई भी कर केवल विधि द्वारा ही आरोपित और एकत्र किया जा सकता है, किसी कार्यपालिकीय आदेश द्वारा नहीं। साथ ही कर आरोपित करने वाली विधि वैध होनी चाहिए अन्यथा कर भी अवैध होंगे। यदि संविधान के किसी उपबन्ध द्वारा करारोपण का निषेध है तो वह कर-विधि अवैध होगी। उदाहरणार्थ, वह कर-विधि नहीं मानी जाएगी जो संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समता के मूल अधिकार का उल्लंघन करती हो। यह ध्यान रखने वाली बात है कि इस अनुच्छेद 265 में निहित व्यवस्था केवल करों के संबन्ध में लागू होती है, शुल्क के संबंध में नहीं।

  2. संघ और राज्यों में राजस्व वितरण-

    अनुच्छेद 268 संघ और राज्यों में राजस्व के वितरण की व्यवस्था करता है। राज्य-सूची के विषयों पर राज्यों को कर लगाने का अनन्य अधिकार है और संघ सूची के विषयों पर केन्द्रीय सरकार को। समवर्ती सूची में केवल कुछ ही करों का उल्लेख है।

  1. संघसरकार के राजस्व स्रोत इस प्रकार हैं

    कृषि आय को छोड़कर अन्य आय पर कर, सीमा-शुक्ल, निर्यात-शुक्ल, निगम-कर, तम्बाकू तथा भारत में निर्मित और उत्पादित कुछ वस्तुओं पर उत्पादन-शुल्क. कृषि भूमि के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति पर सम्पदा-शुल्क, हुण्डियों तथा चैकों और प्रॉमिजरी नोटों पर मुद्रांक शुल्क, स्टॉक एक्सचेंज पर कर, वायदा बाजार पर कर, रेल के जन-भाड़े और वस्तु भाड़े पर कर, रेल, समुद्र व वायु द्वारा ले लाई जाने वाली वस्तुओं पर कर अथवा यात्रियों पर सीमा शुल्क, विदेशी-ऋण, संघ सरकार की सम्पत्ति, कोई दूसरा कर जो राज्य–सूची या समवर्ती सूची में उल्लिखित न हो, आदि। निस्संदेह, राज्यों की तुलना में केन्द्र की आय के साधन और स्रोत बहुत अधिक हैं। राज्य केन्द्रीय सहायता की तरफ निहारते रहते हैं।

  2. राज्यसूची के अनुसार राज्य सरकारों के राजस्व के साधन ये हैं

    मालगुजारी, कृषि आय पर कर, कृषि भूमि के उत्तराधिकार पर कर, कृषि भूमि पर सम्पत्ति कर, भूमि और भवन कर, प्रति व्यक्ति कर, बिजली के उपयोग तथा विक्रय पर कर, स्थानीय क्षेत्र में प्रवेश करने वाली या बेची जाने वाली वस्तुओं पर कर, वाहनों पर कर, पशुओं और नौकाओं पर कर, समाचार-पत्रों के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं के विक्रय पर कर, समाचार-पत्रों में प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों के अतिरिक्त अन्य विज्ञापनों पर कर, स्टाम्प शुल्क आदि।

  3. समवर्ती सूची में निम्नलिखित कर हैं

    न्याय संबंधी स्टाम्प शुल्क के अतिरिक्त अन्य स्टाम्प शुक्ल। 2. समवर्ती सूची के विषयों में से किसी एक के संबंध में शुल्क (जिसमें किसी न्यायालय में लिया जाने वाला शुल्क शामिल नहीं है)।

उल्लेखनीय है कि राज्य-सूची में वर्णित विषयों पर लगाए गए करों को राज्य एकत्रित करके अपने पास रखते हैं जबकि संघ सूची में वर्णित विषयों पर लगाए गए कुछ कर पूर्णतया अथवा अंशतः राज्यों में वितरित कर दिए जाते हैं। संविधान में ऐसे चार प्रकार के संघीय करों का उल्लेख है जो पूर्णतया या आंशिक में राज्यों को सौंप दिए जाते हैं-

  1. संघ द्वारा आरोपित तथा संग्रहित किन्तु राज्यों को सौंपे जाने वाले कर

    अनुच्छेद 269(1) अनुसार निम्नलिखित शुल्क और कर भारत सरकार द्वारा आरोपित और संग्रहीत किए जाएंगे, किन्तु राज्यों को खण्ड (2) में उपबन्धित रीति से सौंप दिए जाएंगे-(1) कृषि भूमि के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति के उत्तराधिकर विषयक शुल्क, (2) कृषि भूमि के अतिरिक्त सम्पत्ति विषयक शुल्क, (3) रेल, समुद्र व वायु द्वारा ले जाए गए माल और यात्रियों का सीमा कर, (4) रेल भाड़ों, वस्तु पर कर, (5) शेयर बाजार और सटटा बाजार के सौदों पर मुद्रांक शुल्क के अतिरिक्त अन्य कर, (6) समाचार-पत्रों के क्रय-विक्रय तथा उनमें प्रकाशित विज्ञप्तियों कर एवं (7) समाचार-पत्र के अलावा अन्तर्राज्यीय व्यापार अथवा वाणिज्य के माल के क्रय-विक्रय पर कर।

  2. संघ द्वारा आरोपित किन्तु राज्यों द्वारा संग्रहीत तथा विनियोजित किए जाने वाले शुल्क

    अनुच्छेद 268 के अनुसार ऐसे मुद्रांक-शुक्ल तथा औषधीय एवं प्रसाधनीय सामग्री पर उत्पादन शुल्क, जो संघ सूची में वर्णित हैं, भारत सरकार द्वारा आरोपित किए जाएंगे, किन्तु ये शुल्क राज्य सरकार द्वारा वसूल किए जाएंगे और राज्य ही उनका विनियोजन करेंगे।

  3. संघ द्वारा आरोपित और एकत्रित कर, जिनका विभाजन संघ एवं राज्यों के मध्य होता है

    अनुच्छेद 270 के अनुसार कृषि-आय के अतिरिक्त आय-कर संघ द्वारा ही लगाया जाता है और उसी के द्वारा एकत्रित किया जाता है, पर समय-समय पर निर्धारित रीति के अनुसार उसका विभाजनसंघ और राज्यों के बीच होता है। आयकर में निगम-कर सम्मिलित नहीं हैं आयकर की प्राप्तियों का संघ और राज्यों के बीच वितरण वित्त-आयोग की सिफारिशों के अनुसार किया जाता है।

  4. संघ द्वारा ग्रहण और संग्रहीत उत्पादन-शुल्कों का वितरण-

    अनुच्छेद 272 के अनुसार संघ सूची में वर्णित औषधीय और प्रसाधन सामाग्री पर उत्पादन-शुल्क के अतिरिक्त अन्य संघ उत्पादन शुल्क भारत सरकार द्वारा ग्रहण और संग्रहीत किए जाएंगे, किन्तु इनके शुद्ध आगमों को संसद द्वारा निर्धारित विधि के अनुसार संघ एवं राज्यों में वितरित कर दिया जाएगा।

संविधान की उपर्युक्त व्यवस्थाओं से स्पष्ट है कि कर-निर्धारण की शक्ति का विभाजन इस तरह किया गया है कि केन्द्र राज्यों की सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में समन्वय स्थापित करने में समर्थ रहे। इसी को ध्यान में रखकर ही संविधान निर्माताओं ने केन्द्र को विस्तृत और लचीले आय-स्रोत प्रदान किए जबकि राज्यों की आय के स्रोत कुछ कठोर और सीमित रह गए, परन्तु इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि ग्रामीण क्षेत्रों से राजस्व का विशाल स्रोत राज्यों के लि मुक्त रहा है और इसे खेदजनक ही कहा जाएगा कि राज्य अपनी आय के इस स्रोत का पूर्ण लाभ उठाने की ओर से प्रायः उदासीन रहे हैं। इसका कारण राजनीतिक है। राज्य इस विशाल क्षेत्र की तरफ छेड़खानी करके अपने ‘वोट बैंक’ समाप्त नहीं करना चाहते। अगर राज्य सरकार द्वारा दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया गया होता तो राज्यों की स्थिति दूसरी ही होती तथा आज राज्य सरकारों को अपने समुचित विकास के लिए केन्द्र की ओर देखना नहीं पड़ता क्योंकि उनके पास स्वयं के विपुल साधन होते। फलतः केन्द्र राज्यों के संबंधों में तनाव देखने का नहीं मिलता।

  1. केन्द्रीय अनुदान (Grants in aid)-

    भारतीय संविधान में राज्यों को केन्द्रीय अनुदान प्रदान करने के सम्बन्ध में निम्नांकित व्यवस्थाएं की गई है-

  1. संविधान के अनुच्छेद 275 द्वारा संसद को अधिकार दिया गया है कि वह उन राज्यों को, जिन्हें उसके अनुसार सहायता की आवश्यकता है, ऐसी राशि सहायक अनुदान के रूप में प्रदान करेगी जो संसद विधि द्वारा निर्धारित करे। भिन्न-भिन्न राज्यों के लिए भिन्न-भिन्न राशि तय की जा सकती है।
  2. अनुच्छेद 273 में पटसन अथवा पटसन से बनी हुई वस्तुओं पर निर्यात शुल्क से प्राप्त होने वाली कुल राशि का कुछ अंश असम, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल और बिहार राज्यों को सहायक अनुदान के रूप में दिये जाने की व्यवस्था है। केन्द्रीय अनुदान की राशि राष्ट्रपति वित्त आयोग के परामर्श से निर्धारित करता है।
  3. यदि राज्य केन्द्र की स्वीकृति से अनुसूचित आदिम जातियों के कल्याण के लिए कोई योजना प्रारम्भ करते हैं तो उसकी पूर्ति के लिए भी केन्द्र वित्तीय अनुदान प्रदान करता है। अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासनिक स्तर को ऊंचा उठाने के लिए भी केन्द्र द्वारा राज्यों को सहायक अनुदान दिए जाने का प्रावधान है।
  4. केन्द्र ऐसे विषय के सम्बन्ध में भी अनुदान दे सकता है जिस पर विधि-निर्माण का अधिकार संसद के पास सामान्यतया नहीं है। विवेकाधीन अनुदानों का अनुपात दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है और राज्यों के बजट सम्बन्धी घाटों की पूर्ति के लिए भी केन्द्र से अनुदान दिए जाते रहे हैं।

वित्तीय अनुदान एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण शक्ति है जिसके द्वारा केन्द्रीय सरकार को राज्य सरकारों पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रण रखने में सहायता मिलता है। इसके अतिरिक्त इसके माध्यम से केन्द्र राष्ट्रीय विकास की योजनाओं में संघ और राज्यों के बीच सहयोग और समन्वय ला पाता है। केन्द्र ने ‘स्वयं की क्षमता और राज्य-विशेष की आवश्यकता के सिद्धान्त के आधार पर यथासम्भव निष्पक्ष रूप में वित्तीय अनुदान दिए हैं। धन मांगने की कोई सीमा नहीं होती, पर धन दिए जाने की सीमा अवश्य होती है। राष्ट्रीय विकास योजनाओं के अन्तर्गत केन्द्र द्वारा राज्यों को बड़ी मात्रा में अनुदान मिले हैं और राज्यों की यह प्रवृत्ति रही है कि वे अपने यहां किसी बड़े उद्योग आदि की स्थापना के लिए केन्द्र पर दबाव डालते रहते हैं। केन्द्रीय सरकार ने राज्य सरकारों के आग्रह पर सदैव सहानुभूतिपूर्वक विचार किया है। उसका भरसक प्रयत्न रहा है कि राज्यों के राजस्व (आय-व्यय) में सन्तुलन लाने और विषमता की स्थिति में उन्हें व्यवस्थित करने में सहायता अनुदान प्रभावी सिद्ध हों। राज्यों की आवश्यकता की कसौटी के लिए न केवल उनकी वित्तीय आवश्यकता बल्कि कर-प्रयत्न, व्यय में मितव्ययता, सामाजिक सेवाओं का स्तर, विशिष्ट परिस्थितियां और राष्ट्रीय महत्त्व का दृष्टिकोण प्रमुख रहा हैं।

  1. केन्द्र एवं राज्य सरकारों के उधार लेने की शक्ति-

    संविधान के अनुच्छेद 292 के अनुसार केन्द्रीय सरकार संसद द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर भारत की संचित निधि की गारण्टी पर धन उधार ले सकती है और इन सीमाओं तक किसी ऋण की गारण्टी भी दे सकती है। अनुच्छेद 293 के अनुसार कोई भी राज्य भारत की सीमाओं के अन्दर राज्य विधान-मण्डल द्वारा नियत सीमाओं में रहते हुए राज्य की संचित निधि की गारण्टी पर धन उधार ले सकता है और इन्हीं सीमाओं के भीतर किसी ऋण की गारण्टी दे सकता है, लेकिन राज्यों को धन उधार लेने की शक्ति पर ये प्रतिबन्ध हैं कि- (i) कोई भी राज्य भारत के बाहर से कर्ज नहीं ले सकता, (ii) किसी भी ऐसे राज्य को केन्द्रीय सरकार तब तक धन उधार देने से इन्कार कर सकती है जब तक कि पिछला उधार दिया गया धन राज्य ने लौटा नहीं दिया हैं, एवं (iii) यदि पिछला कर्ज बकाया रहते हुए भी राज्य धन उधार लेने का आग्रह करे तो केन्द्रीय सरकार को अधिकार है कि वह उचित शर्तों के साथ धन उधार दे। भारत में राज्य सरकारें संघ सरकार के ऋण भार से दबी पड़ी हैं। अतः उन्हें संघ सरकार की शर्तों को अधिकांशतः मानना पड़ता है। केन्द्र में सत्तारूढ़ दल की सरकार पर विरोधी राज्य सरकारों का यह आरोप रहा है कि वह अनुदान के आधार जाता रहा है।

  2. वित्त आयोग-

    संविधान के अनुच्छेद 280 के अन्तर्गत वित्त आयोग सम्बन्धी प्रावधान है। इसकी भी केन्द्र-राज्य सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वित्त आयोग मुख्यतः निम्नलिखित विषयों पर अपने प्रतिवेतन राष्ट्रपति को प्रस्तुत करता है-

  1. संघ और राज्यों के बीच उन करों की विशुद्ध प्राप्तियों के वितरण के सम्बन्ध में जो संघ एवं राज्यों में विभाजित होती हैं अथवा होंगी और राज्यों के बीच ऐसे करों की प्राप्ति के उस अंश के वितरण के बारे में जो राज्यों को प्राप्त करों में मतभेद होने पर।
  2. भारत की संचित-निधि में से राज्यों के राजस्व के लिए सहायता अनुदान के सिद्धान्तों के निर्धरित करने के बारे में।
  3. और भी विषयों के बारे में जो राष्ट्रपति, सुव्यवस्थित वित्त-व्यवस्था के हित में, आयोग को सौंपे।

देश की संघीय व्यवस्था में वित्त आयोग की भूमिका के महत्त्व का विश्लेषण करते हुए एम.वी. पायली ने लिखा है “वित्त-वितरण के प्रश्न को संघ तथा राज्यों के मध्य अन्य राजनीतिक विवादों से दूर रखने के श्रेय इसको प्राप्त है। वस्तुतः वित्त आयोग राज्यों तथा संघ के बीच एक ऐसे प्रत्यावरोध का कार्य करता है जो एक ओर निरन्तर अधिक वित्त की मांग करने वाले राज्यों के राजनीतिक दबाव से संघ की रक्षा करता है, दूसरी ओर आवश्यकताग्रस्त राज्यों को यथासम्भव सहायता प्रदान करने के लिए संघ को विवश करता है। संघ के लिए वित्त आयोग की सिफारिशों की उपेक्षा करना असम्भव-सा है।”

  1. अन्य वित्तीय व्यवस्थाएं-

    संविधान के अन्तर्गत कुछ ऐसे विशिष्ट उपबन्ध भी है जिनके अनुसार संघ और राज्य एक-दूसरे की सम्पत्ति तथा आय पर कर नहीं लगा सकते हैं। राष्ट्रपति की आपातकालीन वित्तीय शक्तियां केन्द्र की निर्णायक प्रधानता की परिचायक हैं। भारत के नियन्त्रण एवं महालेख परीक्षक द्वारा भी केन्द्रीय सरकार राज्यों पर अपना नियन्त्रण सुदृढ़ करने में समर्थ होती है। यह अधिकारी भारत सरकार और राज्य सरकारों के लेखा रखने के ढंग ओर हिसाब-किताब की जांच करता है। इस अधिकारी के माध्यम से ही संसद राज्यों की आय–व्यय पर अपना नियन्त्रण रखती है। साथ ही वित्तीय विषयों पर और भी अनेक उपबन्ध हैं।

भारतीय संविधान में केन्द्र-राज्य सम्बन्धोंके वित्तीय स्वरूप का सारगर्भित विश्लेषण करते हुए डॉ. एम. वी. पायली ने लिखा है कि “सारा वित्तीय ढांचा संघ तथा राज्यों के परस्पर सहयोग की भावना पर आधारित है ताकि संघ तथा राज्यों के मध्य वित्तीय सम्बन्धों में पूर्ण तालमेल रहे।” इस संबंध में यही कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र में केन्द्र की सर्वोच्चता निर्विवाद है और इसीलिए राज्य सरकारें वित्तीय अधिकारों की मांग करती रही हैं।

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