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विकासशील देशों में लोक प्रशासन तथा उसके समक्ष नई चुनौतियाँ

विकासशील देशों में लोक प्रशासन

विकासशील देशों में लोक प्रशासन

(Public Administration in Developing Countries)

प्रमुख रूप से विश्व तीन भागों में बँटा हुआ है—एंग्लो अमेरिकन देश जो पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित हैं, दूसरे वे देश हैं मार्क्सवादी तथा लेनिनवादी विचारधारा से प्रभावित हैं तथा तीसरे वर्ग में एशिया, लेटिन अमेरिका आदि के राज्य हैं जहाँ विकास की प्रक्रिया चल रही है। इन्हें विकासशील देशों के नाम से जाना जाता है, ये सबके सब नवोदित राष्ट्र हैं, वस्तुतः नूतन आर्थिक पहलुओं के साथ-साथ इनकी राजनीतिक व्यवस्था भी निर्माण की प्रक्रिया में है। इन राष्ट्रों को तीसरी दुनिया (Third World) के नाम से भी पुकारा जाता है। भारत, बंगलादेश, श्रीलंका, इण्डोनेशिया, अल्जीरिया, पाकिस्तान घाना, मोरक्को, मिस्र आदि विकासशील देश हैं। इन राष्ट्रों ने साम्राज्यवाद तथा तानाशाही शासन के विरुद्ध विद्रोह कर अपने को मुक्त कराया है। ये राष्ट्र अनेकों संकेटों से घिरे होने के कारण अपनी शासन प्रणाली का स्वरूप भी निश्चित नहीं कर सके हैं, इनकी राजनीतिक परम्पराओं की उत्पत्ति में अतीत का विशिष्ट हाथ है। इन देशों में शासकीय तंत्र कुछ ही विशिष्ट वर्गों के हाथों में सिमट कर रह गया है। पुरातन औपनिवेशिक शासन के प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होते हैं। इन राष्ट्रों में अतीत से हटकर एक नवीन समाज के सृजन की उत्कण्ठा अवश्य ही पाई जाती है। ऐसी शासन प्रणाली अपनाने की खोज में है जो पश्चिमी शासन व्यवस्था के समीप हो।

विकासशील देशों के अन्य लक्षण इस प्रकार हैं-

  1. अस्थिरता

    विकासशील राष्ट्रों में अस्थिरता की भावना पाई जाती है। इन देशों की राजनीतिक व्यवस्थाएँ जन असन्तोष, आर्थिक उत्पीड़न तथा बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था से ग्रस्त है। विविध धर्म, संस्कृतियाँ एवं राष्ट्रीयताओं के होने के कारण इन देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं पर विरोधी प्रभाव हुए हैं।

  2. वाहूय आक्रमण

    आन्तरिक सुरक्षा के साथ बाहरी आक्रमण की समस्या राजनीतिक व्यवस्था को झकझोरती रहती है, सरकारों का ध्यान अपने देशों की व्यवस्था रखरखाव में लगा रहता है। राजनीतिज्ञ अपनी कुर्सी सुरक्षित करने में लगे रहते हैं। ऐसे देशों में सरकार खतरों के घेरों में खड़ी दीख पड़ती है। निर्वाचनों की निष्पक्षता पर प्रश्न चिन्ह लगा रहता है। ऐसे देशों में बार-बार सरकार समस्याओं से निपटने के लिए सेना का प्रयोग करती है। लोकतंत्र अस्थायित्व के दौर से गुजर रहा है। भ्रष्टाचार लोकतंत्र के प्रश्रय में अपना भयानक रूप दिखाता रहता है।

  3. कागजी योजनाएँ

    विकासशील देशों ‘कागजी’ योजनायें तो बनती रहती हैं किन्तु उनकी क्रियान्वित संदिग्ध बनी रहती है। योजनाओं का आकर्षक प्रारूप उसकी सफलता का द्योतक नहीं है। उनकी योजनाओं के निर्माण में विदेशी ताकतों का सतत् हस्तक्षेप उनकी सफलता के संदिग्धता के कगार पर लाकर खड़ा करता है। विकासशील देशों की अपनी कुछ समस्यायें हैं।

    1. विशेष प्रबन्ध योग्यता का अभाव
    2. प्रशासकीय संरचना का अभाव विकासशील देशों की आकांक्षाएं बढ़ती रहती हैं किन्तु उनकी तुष्टि हेतु प्रशासनिक प्रभावशाली एवं उपयुक्तता प्राप्त नहीं कर पाया है।
    3. व्यावसायिक मानकों का अभाव प्रशासन अपने को समय एवं जन अपेक्षाओं के अनुकूल परिवर्तित नहीं कर पाया है। आर्थिक पिछड़ापन, विशेषज्ञों की कमी तथा शिक्षा का अभाव कुछ खटकने वाले कारक हैं। विकासशील देशों में मानकों का निर्माण एक दुर्लभ कार्य है।
    4. प्रशासकीय नेतृत्व का अभाव इन विकासशील देशों में प्रशासकों की मनोवृत्ति में कोई बदलाव नहीं आया है। कर्मचारी अपने को जन-सेवक समझते ही नहीं है। कुशल राजनीतिक नेतृत्व के अभाव में प्रशासकीय नेतृत्व में कमजोरी आई है। पंजाब की वर्तमान समस्या इसका अच्छा उदाहरण है जहाँ प्रशासन आतंकवादी गतिविधि को रोकने में असमर्थ सा रहा है। भ्रष्टाचार, बेईमानी, जोड़-तोड़ की राजनीति तथा लालफीताशाही ने प्रशासकीय नेतृत्व में अस्थिरता उत्पन्न की है।
    5. प्रशासनिक नैतिकता का अभाव विकासशील राष्ट्रों की एक महत्वपूर्ण समस्या प्रशासनिक नैतिकता का अभाव है। प्रशासकीय वर्ग नीतियों का प्रयोग अपने स्वार्थों के लिए करता है, जन-कल्याण की उपेक्षा की जाती है। भ्रष्टाचार ऐसे देशों में जन-जीवन का एक अंग बन गया है।
    6. प्रशासकीय उत्तरदायित्व का अभाव विकासशील देशों में नौकरशाही मनोवृत्ति से ग्रसित प्रशासकीय तंत्र का विकास हो रहा प्रशासक वर्ग अपने को जनता से दूर रहने में ही आत्मतुष्टि अनुभव करता है।
    7. विशिष्ट सेवाओं का अभावविकासशील देशों में अभी भी प्रशासन पर विशेषज्ञों के स्थान पर सामान्य प्रशासकों का प्रभुत्व बना हुआ है।

प्रशासकीय तंत्र पर आर्थिक विकास की जिम्मेदारियों के साथ-साथ सामाजिक न्याय के उत्तरदायित्व की भी जिम्मेदारी उसके ऊपर आ पड़ी है। भारतीय प्रशासन आर्थिक विकास के क्षेत्र में कितना सफल रहा है? यह एक विवाद का प्रश्न है किन्तु सामाजिक न्याय के क्षेत्र में प्रशासन वस्तुतः प्रभावशाली नहीं बन पाया है। हरित क्रांति, श्वेत क्रांति तथा औद्योगिक क्रान्ति की सफलता का श्रेय तो लोक प्रशासकों को मिल सकता है किन्तु उसी अनुपात में सफलता औद्योगिक विकास तथा भू-सुधार के क्षेत्र में भी मिली हो यह संदेहात्मक है। आय के साधन भी असमतल ही हैं। विकासशील देशों में लोक प्रशासन के समक्ष नवीन चुनौतियाँ हैं जिनके सम्बन्ध में लोक प्रशासन को अपने को सक्षम बनाना है।

नवीन चुनौतियाँ

(New Challenges in Public Administration in developing countries)

20वीं शताब्दी औद्योगिक एवं तकनीकी विकास तथा वैज्ञानिक अनुसंधानों की दृष्टि से कौतुहलपूर्ण है। नवोदित राष्ट्रों का झुकाव समाजवाद की ओर बढ़ा है। फलतः राज्य के वर्तमान स्वरूप में परिवर्तन न होकर उसके कार्यक्षेत्र का आशातीत रूप में विकास हुआ है। विकासोन्मुख राज्यों में ग्रामीण जनता अपने उत्थान के लिए तथा दलित वर्ग अपने विकास के लिए बहुत समय तक इन्तजार नहीं कर सकता। यदि राष्ट्रीय सरकारें समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को भौतिक सुखों से वंचित रखने की कोशिश करेंगी तो वे जनाक्रोश के भाजन बन जायेंगी, हमने 15 अगस्त को भारतीय स्वतन्त्रता की 40वीं वर्षगांठ मनाई। भारतीय प्रधानमंत्री ने अपने प्रसारण में कई नूतन चुनौतियों की ओर राष्ट्रीय नेताओं का ध्यान आकर्षित किया। विकासशील देशों के समक्ष बहुत सी चुनौतियाँ हैं-

  1. जनाक्रोश तथा हिंसा की बढ़ती हुई प्रवृत्ति (Violence)-

    भारत आन्दोलनों का भण्डार सा बनता जा रहा है। कहीं पर श्रमिक आन्दोलन, किसान आन्दोलन, वामपंथी आन्दोलन, अकाली आन्दोलन तो कहीं पर असम, खालिस्तान, गुजरात, तेलंगाना आदि भाषागत आन्दोलनों का आविर्भाव हुआ है, नक्सलवादी तथा खालिस्तानी आन्दोलन हिंसात्मकता तथा भय उत्पन्न करने में लीन हैं। आये दिन पंजाब में हत्याओं का तांता लगा हुआ है। पुलिस तथा सेना परेशान है। कल ही गृहमंत्री श्री बूटासिंह के 6 सम्बन्धियों की हत्या कर दी गई। श्रीमती गांधी स्वतः ही हिंसा की शिकार हुई, बैंकों का लूटा जाना तो नियम सा ही बन गया है। विकास कार्यों से हटकर प्रशासन का ध्यान शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखने में लगा रहता है। आतंकवाद से निपटने की चेतावनी सुनते जनता के कान भी बहरे हो चले हैं। विरोधी दल अब ‘राजीव हटाओ’ आन्दोलन की तैयारी में लगे हैं, तोड़-फोड़ तथा हिंसा की घटनाओं ने देश को अस्थिरता प्रदान की है। भूतपूर्व वित्त एवं रक्षामंत्री श्री वी0 पी0 सिंह की अध्यक्षता में जन मोर्चे का निर्माण हुआ है।

  2. क्षेत्रीय आर्थिक असन्तुलन (Regional Economic Imbalance)-

    लोक प्रशासन के समक्ष एक समस्या क्षेत्रीय आर्थिक सन्तुलन की भी है। पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात तथा तमिलनाडु आदि के राज्यों में आर्थिक प्रगति काफी तेजी से हुई है। इस्पात के बड़े उद्योग राउरकेला, भिलाई तथा दुर्गापुर स्थित उत्तरी भारत में ही हैं। पूर्वोत्तर क्षेत्र की जनसंख्या इस दृष्टि से उपेक्षित सी रही है। 1980 में विश्व बैंक से औद्योगिक विकास के लिए धनराशि प्राप्त हुई उसका केवल एक प्रतिशत भाग पूर्वोत्तर क्षेत्र के राज्यों का प्राप्त हुआ। इसकी महाराष्ट्र तथा गुजरात को 32% धनराशि प्राप्त हुई। असम में1% लोग गरीबी की रेखा से नीचे रहे हैं, लोक प्रशासन को समय रहते इस आर्थिक संतुलन को एक महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में स्वीकार करके क्षेत्रीय आर्थिक विसंगतियों को दूर करना होगा अन्यथा यह सामाजिक नासूर बनकर आन्दोलन की राजनीति को बल देगा।

  3. सामाजिक तनाव तथा अस्थिरता

    सामाजिक न्याय के अभाव में संकीर्ण राष्ट्रीयता तथा अस्थिरता उत्पन्न हुई है। देश दरिद्रता एवं निर्धनता के कगार पर बैठा हुआ है। पिछड़े वर्गों के घटिया किस्म के जीवन में असन्तोष साफ झलकता है, गरीबी के छोटे-छोटे टुकड़े (Pockets or patches of poverty) शहरों के इर्ग-गिर्द दिखाई देते हैं। सामाजिक जीवन तनावों से भरा हुआ है। भारतीयों का जीवन, असंख्य जनसंख्या एवं अभावों के बीच झुलस रहा है। मँहगाई जमाखोरी तथा बढ़ती हुई मँहगाई ने कमर तोड़ दी है। आम इनसान को जीना भी दूभर तथा मरना भी मुश्किल है। सम्पूर्ण देश में अलगाववादी (Separalist) तत्व सक्रिय होते जा रहे हैं, हमारी सरकार उन्हें विदेशी ताकतों की साजिश कहकर अपने उत्तरदायित्व से हट जाना चाहती है। पंजाब, असम में विघटनकारी तत्व पनप रहे हैं। हमारी अर्थव्यवस्था उद्देश्य एवं नियम विहीन स्वतन्त्रता को कम तथा नियंत्रणों को बढ़ाये जाती है। प्रशासन इनसे निपटने में अभी तक तो असफल ही रहा है। पंजाब में हत्याओं का दैनिक क्रम एक राष्ट्रीय अभिशाप बन गया है। आम आदमी अपने को असुरक्षित अनुभव करता है।

  4. बढ़ती हुई जनसंख्या

    जनसंख्या में वृद्धि एवं जन-स्वास्थ्य की दुरावस्था की विविध समस्याएँ समाज को विभिन्नता की ओर ले जा रही हैं। जनसंख्या वृद्धि से सारा राष्ट्र चिन्तित है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं, मलेरिया उन्मूलन, नेत्र शिविर, दुग्ध उत्पादन आदि सुविधाओं का विकास किया गया है किन्तु प्रयासों के अनुपात में सफलता पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। इसका कारण है भ्रष्टाचार तथा जन सहयोग में उदासीनता।

  5. भ्रष्टाचार

    देश को भ्रष्टाचार जर्जर बनाये डाल रहा है। आये दिन राष्ट्र बोफोर्स काण्डों से पीड़ित रहता है। लोकप्रिय पत्रकार श्री खुशवन्त सिंह ने शनिवार के अपने कालम में उल्लेख किया था कि श्री गोर्बाच्योब रीगन तथा राजीव गाँधी भगवान के पास पहुंचे और उन्होंने बारी-बारी एक ही प्रश्न पूछा कि उनके देश में से भ्रष्टाचार कब समाप्त होगा। भगवान ने गोर्बाच्योब से कहा कि 26 वर्ष प्रतीक्षा करो, रीगन से कहा कि अभी एक शताब्दी और इन्तजार करना होगा, जब राजीव गाँधी इसी प्रश्न को लेकर पहुँते तो भगवान रो पड़े और बोले जिस समय तक भारत में से भ्रष्टाचार समाप्त होगा मेरा ही अस्तित्व नहीं रहेगा। भ्रष्टाचार तो हमारे रक्त में समा गया है। नेताओं तथा पदाधिकारियों का यह जन्म सिद्ध अधिकार बन गया है। यह कैसे समाप्त हो पायेगा यह समझ से बाहर है।

  6. कृषि, नियोजन, सिंचाई आदि

    हरित क्रान्ति की उपलब्धियाँ सराहनीय रही हैं। इस दिशा में प्रशासकों का कार्य श्लाघनीय कहा जा सकता है। प्रशासन के समक्ष एक बहुत बड़ी चुनौती है कीमतों को बढ़ने से किस प्रकार रोका जाय? उच्च जीवन स्तर तथा कमरतोड़ मँहगाई के बीच तालमेल कैसे रखा जा सकता है? आर्थिक नियोजन इसका एक सक्रिय सहायक है। पंचवर्षीय योजनाओं में हमें कितनी सफलता मिली है, उसके प्रतिशत का सही अनुमान लगाना कठिन है। आज सारा देश या तो बाढ़ से पीड़ित अथवा अकाल से। ऐसा अकाल तो एक शताब्दी में भी नहीं पड़ा। राजस्थान तथा आन्ध्र तो अकाल की समस्याओं के गणित का अच्छा खासा अनुभव प्राप्त कर चुके हैं। सिंचाई के साधनों में भी क्षेत्रीय असंतुलन है।

अतः प्रशासन के समक्ष नूतन चुनौतियाँ हैं। एक और बड़ी चुनौती है साम्प्रदायिकता की। आये दिन हिन्दू मुस्लिम दंगे जन जीवन को विक्षिप्त किये रहते हैं। मेरठ में साम्प्रदायिकता का नग्न रूप हमें देखने को मिलता है। राम जन्म भूमि तथा बाबरी मस्जिद के प्रश्न को लेकर देश में साम्प्रदायिक तनाव उत्पन्न रहते हैं। केन्द्रसरकार इससे निपटने के लिए एक व्यापक कार्यक्रम तैयार करने की तलाश में है। अतः आज विकास कार्यक्रमों में प्रशासन की एक महत्वपूर्ण भूमिका है।

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