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कौटिल्य

विष्णगुप्त कौटिल्य

कौटिल्य (400 से 300 ई० पू०)

प्राचीन भारत के राजशास्त्रियों में कौटिल्य का स्थान सबसे ऊँचा है और उसे शासन, कला तथा कूटनीति का सबसे महान् प्रतिपादक माना जाता है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र राजनीतिशास्त्र का ऐसा महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसका मुख्य प्रतिपादक विषय राजनीति से है। सलेटोरे के अनुसार, “प्राचीन भारत की राजनीतिक विचारधाराओं में सबसे अधिक ध्यान देने योग्य कौटिल्य की विचाराधारा है।” सलेटोरे ने चार कारणों से इस ग्रन्थ को महत्वपूर्ण माना है-प्रथम, इस ग्रन्थ में पूर्वगामी सभी ग्रन्थों का सार दिया हुआ है। कौटिल्य का उद्देश्य पूर्णतया यथार्थवादी था और अर्थशास्त्र की रचना इहलोक तथा परलोक की प्राप्ति के मार्गदर्शन हेतु की गयी। दूसरा, यह ग्रन्थ यथार्थवादी है तथा उन समस्याओं पर विचार करता जिनका सामना मनुष्य को भी इसी लोक में करना होता है। तीसरा, अर्थशास्त्र ने राजनीति को धर्म से पृथक् करके देखा । चौथा, इसके रचयिता ने भारत को एक सुदृढ़ और केन्द्रीयकृत शासन दिया, जिसके सम्बन्ध में पहले के विचारक अनभिज्ञ थे।

कृष्णाराव के अनुसार प्राचीन भारत की अर्थशास्त्रीय परम्परा का सबसे अधिक लोकप्रिय, पूर्णतः वैज्ञानिक और आरपूर्ण निर्वचन कौटिल्य का अर्थशास्त्र है। यह ग्रन्थ आर्य जाति की उस राजनीतिक बुद्धिमता का निचोड़ है जिसका निर्वचन और प्रतिपादन वृहस्पति, भारद्वाज आदि लेखकों ने किया है और जिसे कौटिल्य की अपूर्व बुद्धि ने प्रकाशमान किया। बाण ने अर्थशास्त्र को कूटनीति का विज्ञान और कला बताया है। अर्थशास्त्र के महत्व के सम्बन्ध में रामास्वामी का यह मत उल्लेखनीय है कि, “अर्थशास्त्र कौटिल्य से पूर्व की रचनाओं में इधर-उधर बिखरी हुई राजनीतिक बुद्धिमत्ता और शासन कला के सिद्धान्तों एवं कला का संग्रह है। कौटिल्य ने शासन काल के एक पृथक् और विशिष्ट विज्ञान की रचना करने के प्रयत्ल में उनकी नवीन रूप में व्याख्या की है।

कौटिल्य का जीवन-परिचय

(KAUTILYA : LIFE HISTORY)

कौटिल्य का कोई प्रामाणिक जीवन चरित्र नहीं मिलता है। इस सम्बन्ध में स्वयं कौटिल्य ने भी विशेष प्रकाश नहीं डाला है। फिर भी यह माना जाता है कि उनका जन्म लगभग 400 ई० पू० भारत की प्राचीन ऐतिहासिक नगरी तक्षशिला में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ था।

कौटिल्य का पूरा नाम विष्णगुप्त कौटिल्य था। अधिकांश भारतवासी उसे चाणक्य के नाम से भी जानते हैं। विदेशी आक्रमण से त्रस्त टूटे-फूटे और बिखरे हिन्दुस्तान को एकता के सूत्र में गूंथकर उसे एक दृढ़ राजनीतिक आधार प्रदान करने वाला कौटिल्य चन्द्रगुप्त का महामन्त्री था। यह भी एक विचित्र संयोग है कि पाश्चात्य राजनीतिक दार्शनिक अरस्तू के शिष्य की पराजय कौटिल्य के शिष्य द्वारा हुई। अपने शिष्य चन्द्रगुप्त को एक बहुत बड़ा सम्राट् बनाने का एकमात्र श्रेय कौटिल्य को ही है।

कौटिल्य ने नालन्दा के प्रख्यात विश्वविद्यालय में ज्ञानोपार्जन किया था। उसी विद्यालय में चन्द्रगुप्त मौर्य भी शिक्षा प्राप्त किया करता था। उस समय मगध में महानन्द का शासन था। शिक्षोपार्जन के पश्चात् चन्द्रगुप्त ने आचार्य कौटिल्य को प्रकाण्ड विद्धान् और दूरदर्शी जानकर अपनी सहायता के लिए बुलाया। क्योंकि यद्यपि चन्द्रगुप्त राज्य में युवराज पद का अधिकारी था किन्तु राजनीतिक कारणों से सम्राट् ने उसका न्यायोचित अधिकार मानने से इनकार कर दिया था। कुशल राजनीतिज्ञ कौटिल्य ने चन्द्रगुप्त की प्रार्थना स्वीकार की। कौटिल्य को चन्द्रगुप्त की प्रतिभा पर पूर्ण विश्वास था। इधर एक घटना ने कौटिल्य को महाराज नन्द का घोर शत्रु बना दिया।

महानन्द ने श्राद्ध के लिए अपने मन्त्री शक्टार के द्वारा कुछ ब्राह्मणों को आमन्त्रित किया । शक्टार जो कि सम्राट के किसी दुर्व्यवहार के कारण पहले ही रुष्ट था, चाहता था कि किसी ऐसे ब्राह्मण को बुलाया जाय जो अत्यन्त क्रोधी हो । शक्टार ने सुना था कि कौटिल्य अत्यन्त क्रोधी ब्राह्मण है। अतः उसने श्राद्ध पर कौटिल्य को आमन्त्रित किया। कौटिल्य के बैठने के लिए एक उच्च आसन दिया गया। जब राजा ब्राह्मणों के दर्शनार्थ उपस्थित हुआ और एक कुरुप तथा भद्दे ब्राह्मण को उच्चासन पर विराजमान देखा तो शक्टार से पूछा-“इस चण्डाल को यहाँ क्यों लाया गया है ।” ब्राह्मण इस अपमान को सहन न कर पाया। वह अपने आसन से उठा और अपनी शिखा खोलते हुए उसने प्रतिज्ञा की-“अब मैं शिखा बन्धन तब तक नहीं करूँगा जब तक नन्द को समूल नष्ट न कर दूं।” और उसी समय से कौटिल्य अपने कार्य में जुट गया। उसने नन्द वंश का विनाश कर न केवल चन्द्रगुप्त को सम्राट् बनाया अपितु अखिल भारतीय मौर्य साम्राज्य का शिलान्यास भी किया । चन्द्रगुप्त ने उसे अपना महामन्त्री नियुक्त किया। सम्भवतः इसी काल में उसने ‘अर्थशास्त्र’ की रचना की।

मौर्य साम्राज्य का महामन्त्री होते हुए भी कौटिल्य जीवन भर एक आदर्श ब्राह्मण की तरह वीतराग तपस्वी ही बना रहा। विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस में कौटिल्य के रहन-सहन का वर्णन करते हए लिखा है कि “कुटिया के एक ओर गोबर के उपलों को तोड़ने के लिए पत्थर पड़ा हुआ था, दूसरी ओर शिष्यों द्वारा लायी गयी लकड़ियों का गठ्ठर पड़ा हुआ है। चारों ओर छप्पर पर सुखाई जाने वाली लकड़ियों के बोझ से घर झुका जा रहा था तथा इसकी दीवार भी जीर्ण दशा में है ।” संक्षेप में, कौटिल्य के जीवन में शाही शान-शौकत नहीं थी। विद्वानों का अनुमान है कि कौटिल्य अत्यन्त परिश्रमी, त्यागी, साधु, प्रवृत्ति का और आजीवन ब्रह्मचारी बना रहा।

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