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प्राचीन भारतीय राजनीति की दार्शनिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि

प्राचीन भारतीय राजनीति 

प्राचीन भारतीय राजनीति की दार्शनिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि

पाश्चात्य विद्वानों द्वारा इस धारणा का प्रतिपादन किया गया है कि प्राचीन काल में भारतीयों की दृष्टि धर्मशास्त्र तथा आध्यात्मवाद पर केन्द्रित थी और भारतीय दर्शन से राजनीतिक चिन्तन का अभाव था। मैक्समूलर, प्रो० ब्लूमफील्ड और डनिंग जैसे विद्वानों द्वारा यह भ्रान्त धारणा विकसित की गयी कि भारत के हिन्दू साहित्य में संदिग्ध आदर्शवाद, अव्यावहारिक रहस्यवाद और पारलौकिक मूर्खतापूर्ण बातों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इस भ्रमपूर्ण विचार के लिए सबसे अधिक अंग्रेज औपनिवेशिक शासक जिम्मेदार थे। भारत के शासकों के रूप में वे भारत को किसी भी प्रकार के मौलिक राजनीतिक विचारों का श्रेय देने के लिए तैयार नहीं थे। इस तथ्य को स्वीकार करते हुए स्वयं मैक्सी ने लिखा है:

“पाश्चात्य व्याख्याकारों के हाथों यदि पूर्वीय व्यक्तियों (Oriental people) के राजनीतिक विचारों साथ सर्वाधिक दुर्व्यवहार हुआ है तो प्राचीन हिन्दू राजनैतिक विचारों के साथ । हिन्दू राजनैतिक संस्थाओं और विचारों के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान ऐसे स्रोतों से प्राप्त हुआ है जो किसी भी दशा में भारतीय जीवन और चरित्र के राजनैतिक पहलू पर निष्पक्ष विचार नहीं रख सकते । भारतवासियों को इस प्रकार दिखाया गया है कि वे अन्तर्निहित रूप से राजनीतिक उत्तरदायित्व के सर्वथा अयोग्य हैं।”

अज्ञानवश या जान-बूझकर भारतीय विचारकों या राजनीतिक दार्शनिकों की उपेक्षा की गयी है। प्लेटो और अरस्तू से शताब्दियों पूर्व भी भारत में राजनीतिशास्त्र पर पर्याप्त लिखा जा चुका था। भारतीय राजनीतिक दर्शन का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि यहाँ की सभ्यता, संस्कृति और धर्म हैं । वैदिक साहित्य में स्थान-स्थान पर ऐसा वृत्तान्त आता है जिसे देखने से तत्कालीन राजनीतिक विचारों एवं व्यवस्था का थोड़ा-बहुत परिचय प्राप्त होता है। ऋग्वेद के कुछ श्लोक राज्य शास्त्र के विषय पर प्रकाश डालते हैं। अथर्ववेद में राजनीति से सम्बन्धित अनेक श्लोक हैं। अरस्तू के समकालीन कौटिल्य, जिसे व्यावहारिक राजनीति का पिता कहा जाता है, के विचार इस बात के साक्षी हैं कि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारत किसी से पीछे नहीं था। भारतीय राजनीतिक दर्शन से सम्बन्धित प्राचीन ग्रंथ, परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव एवं इतिहास के मोड़ों के साथ अपना अस्तित्व खो बैठे। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि प्राचीन भारत में राजनीतिक चिन्तन की ओर विचारकों एवं लेखकों का ध्यान ही नहीं गया था। इस सम्बन्ध में गैटिल ने लिखा है, “भारत में राजनीतिक विचारों का काफी विकास हो सका। राजनीतिक दर्शन को ज्ञान की एक पृथक् शाखा माना गया। उसका विस्तृत साहित्य है और उसके रचयिता राजशास्त्र को सबसे महत्वपूर्ण शास्त्र मानते हैं।”

मैक्सी के शब्दों में, “हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत का राजनैतिक इतिहास यूरोप के इतिहास से अधिक प्राचीन है और राजनैतिक विचारों की दृष्टि से भी निष्फल नहीं है।” किन्तु भारतीय राजनीतिक दर्शन और संस्कृति का व्यवस्थित अध्ययन बहुत विलम्ब से 18वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में ही आरम्भ हुआ था। 1784 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के कुछ आचार्यों की पहल से बंगाल में जिस एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना हुई वह इस दिशा में एक परिवर्तन बिन्दु बन गयी थी। इसका कारण शायद पूँजीवाद का उदय एवं उसके साथ-साथ विज्ञान और संस्कृति के ज्ञान से प्रेरित ज्ञान-पिपासा थी। कदाचित ब्रिटिश शासकों के हितों ने भी इसे आवश्यक बनाया। वे, जो अपनी सत्ता को सुदृढ़ करने के लिए भारत की परम्पराओं और उसके इतिहास का परिचय प्राप्त करना चाहते थे। 19वीं शताब्दी के आरम्भ में दर्शन और धर्म के बहुत से प्राचीन ग्रंथों का संस्कृत से अंग्रेजी तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद कर लिया गया था। तदन्तर भारतीय दर्शन और धर्म तथा प्राचीन भारत की भिन्न-भिन्न दार्शनिक प्रणालियों पर कुछ महत्वपूर्ण मौलिक ग्रंथ रचे गये। इन ग्रंथों ने बहुत से भारतीय बुद्धिजीवियों की रुचि को अपने देश के इतिहास के प्रति उन्मुख किया और 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारतीय विद्वानों ने भारतीय दर्शन पर बड़ी संख्या में पुस्तकें लिखीं इससे हमें से महात्मा गाँधी तक भारत के राजनीतिक चिन्तन और विचाराधारा की एक अनवरत परम्परा मिलती है।

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