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प्राचीन भारत में राजशास्त्र

प्राचीन भारत में राजशास्त्र

प्राचीन भारतीय राजशास्त्र की आलोचनाएँ

(Criticism of the Ancient Indian Political Thought)

अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने प्राचीन भारतीय राजशास्त्र की कई आधारों पर आलोचना की है, जिसका उद्देश्य उसके स्वतन्त्र अस्तित्व का खण्डन करता है।

आलोचना का सर्वप्रथम आधार यह है कि हिन्दुओं ने राजनीति को धर्मशास्त्र व आध्यात्मवाद से स्वतन्त्र नहीं किया।

डनिंग के शब्दों में, “भारतीय आर्यों ने अपनी राजनीति को धार्मिक और आध्यात्मवादी पर्यावरण से, जिसमें कि यह आज भी गड़ी हुई है, कभी भी स्वतन्त्र नहीं किया।”

जर्मन विद्वान् मैक्समूलर ने कहा, “भारतीयों को राष्ट्रीयता की भावना का पता न था एकमात्र क्षेत्र, जिसमें कि भारतीय मस्तिष्क ने कार्य करने, रचना करने और पूजा करने की स्वतन्त्रता पायी, धर्म और दर्शन का क्षेत्र था।”

डॉ० घोषाल ने भी लिखा है कि “कुछ समय पूर्व तक भारतीयों की मानसिक प्रवृत्ति पर यह आरोप लगाया जाता था कि धर्म ने भारतीय मन पर ऐसा अनन्य अधिकार किया हुआ था कि वह राज्य के विचार की धारणा से वंचित रहा।”

प्राचीन भारत के राजशास्त्र पर दूसरा आरोप यह लगाया गया है कि भारत में केवल पूर्वात्य स्वेच्छाचारी शासन ही था। हेनरी मेन ने लिखा है कि “पूर्व के बड़े साम्राज्य मुख्यत: कर एकत्रित करने वाली संस्थाएँ थीं। कुछ प्रयोजनों के लिए और समय-समय पर वे अपनी प्रजाओं पर सबसे अधिक हिंसात्मक ढंग व बल का प्रयोग करते थे, परन्तु उन्होंने सामयिक आदेशों से भिन्न कानून लागू नहीं किये, न ही वे प्रथागत कानूनों को न्यायिक ढंग से लागू व प्रशासित करते हैं।”

इन आरोपों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि पाश्चात्य आलोचक ऐसा मानते हैं कि भारतीय मस्तिष्क की गतिविधि धार्मिक व दार्शनिक विचारों में समाप्त हो गयी, जिसके परिणामस्वरूप भारत में राष्ट्रीयता की भावना का कोई विकास न हो सका और राज्य के बारे में कोई धारणा न बन सकी।

फिर भी ‘राजनीतिक दर्शन’ के विद्वान लेखक मैक्सी ने राजनीतिक विचारों व क्षेत्र में भारत के योगदान के विषय में इस प्रकार लिखा है:

“हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत का राजनीतिक इतिहास यूरोप के इतिहास से अधिक प्राचीन है और राजनीतिक विचारों से निष्फल नहीं है। अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता की अनेक शताब्दियों में भारतीय उपमहाद्वीप ने प्रायः सभी प्रकार के छोटे और विशाल राज्यों के उदय और पतन को देखा । यहाँ ग्रामीण गणतन्त्र से लेकर चन्द्रगुप्त व अशोक के मौर्य साम्राज्य थे। ये साम्राज्य ब्रिटेन के वर्तमान भारतीय साम्राज्य से अधिक विस्तृत थे और अपने काल में विश्व के महान् राज्य थे। उनके मित्र और यूनान से कूटनीतिक सम्बन्ध थे। यह विश्वास नहीं होता कि इतनै दीर्घकाल में अपनायी गयी परिवर्तनशील और विभिन्न प्रकार की राजनीतिक प्रक्रियाओं ने राजनीतिक विचारों को जन्म न दिया हो। दुर्भाग्यवश मैक्समूलर के समय से यह मिथ्या विचार बन गया है कि हिन्दुओं के साहित्य में मुख्यतः अस्पष्ट आदर्शवाद, अव्यावहारिक आध्यात्मवाद और परलोक सम्बन्धी युक्तिहीन बातों का ही विवेचन है। इसके अतिरिक्त एक-दो प्राचीन हिन्दू लेखकों के इधर-उधर से लिये हुए उद्धरणों को भूल से हिन्दुओं के सम्पूर्ण विचारों का प्रतीक मान लिया गया है। संस्कृत साहित्य में सभी प्रकार के विचार मिलते हैं और राजनीतिक ग्रन्थों का भी स्थान है ।” गैटेल ने भी स्पष्ट स्वीकार किया है कि हिन्दू राज्य धर्मतन्त्रात्मक न थे। राज्य धार्मिक संगठन से स्वतन्त्र था और पुजारी प्रशासन कार्यों में हस्तक्षेप न करते थे राजनीतिक दर्शन को ज्ञान की एक पृथक् शाखा माना गया, उसका विस्तृत साहित्य है और उसके रचयिता राजशास्त्र को सबसे महत्वपूर्ण शास्त्र मानते हैं।

प्राचीन भारत के सांस्कृतिक विकास में राजनीति का महत्वपूर्ण स्थान था। प्राचीन भारतीयों को राजनीति के अनेक सिद्धान्तों का ज्ञान था। वेदों में वर्णित राजा, सभा व समिति जैसी लोकप्रिय संस्थाएँ, राजा का पदच्युत किया जाना आदि बातों से वैदिककालीन राजनीतिक जागृति का स्पष्ट दिग्दर्शन होता है। प्राचीन हिन्दुओं ने विज्ञानों और कलाओं का भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्गीकरण किया। एक वर्गीकरण के अनुसार प्राविधिक विज्ञान विधाएँ 32 और कलाएँ 64 थीं। 32 विज्ञानों में अर्थशास्त्र भी एक था।। उनका अभिप्राय आधुनिक अर्थशास्त्र और राजशास्त्र दोनों से था ।

प्राचीन भारत में राजशास्त्र में निष्णात् अनेक आचार्य हुए जिनके नामों का उल्लेख महाभारत व कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है। उनमें से कतिपय प्रमुख उल्लेखनीय नाम हैं-विशालाक्ष, इन्द्र, वृहस्पति, शुक्र, मनु, भारद्वाज, पाराशर, कात्यायन आदि। इसके अतिरिक्त धर्मसूत्रों, स्मृतियों आदि में भी राजधर्म प्रकरण में राजनीति के तत्वों का विवेचन किया गया है। रामायण व महाभारत में अनेक राजनीतिक विचारों एवं संस्थाओं का वर्णन है, जिनसे विकसित सिद्धान्तों का संकेत मिलता है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राजनीति का विवेचन लौकिक दृष्टि से और स्वतन्त्र विज्ञान के रूप में किया है।

विधि (कानून) की संकल्पना उन कसौटियों में से एक है जो राजनीति के धर्मनिरपेक्ष व लौकिक स्वरूप को बताती है। अनेक पाश्चात्य लेखकों का मत है कि राजनीति के हिन्दू लेखक कानून की सकारात्मक धारणा से अपरिचित थे। सकारात्मक कानून वह होता है जिसे प्रभावपूर्ण राजनीतिक अधिकारी निर्मित व लागू करता है। शुक्र नीति में एक स्थान पर कहा गया है कि कतिपय कानूनों को केवल राजा द्वारा ही लागू किया जाना चाहिए, जैसे नाप-तौल व सिक्कों के बारे में किसी भी प्रकार के मिथ्या व्यवहार की आज्ञा नहीं होनी चाहिए, घूस स्वीकार नहीं करनी है, चोरों को रक्षण प्रदान नहीं करना है आदि।

यह सच है कि संस्कृत साहित्य में राजनीतिक सिद्धान्तों एवं व्यवहारा पर अविरल सामग्री है। किन्तु कठिनाई यह है कि उनमें से बहुतों का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं हुआ। इसी कारण पाश्चात्य जगत् उनसे अनभिज्ञ है। सरकार ने स्पष्ट लिखा है कि संस्कृत साहित्य की प्रत्येक शाखा में राजनीतिक सिद्धान्तों और व्यवहार पर लेख है और राजनीति व लोक प्रशासन पर कई विख्यात विशिष्ट ग्रन्थ भी हैं जो यूरोपीय देशों के साहित्य में प्राप्त ग्रन्थों से सभी बातों में तुलना कर सकते हैं, परन्तु उनमें से अधिकतर का अंग्रेजी अनुवाद नहीं हुआ है और पाश्चात्य जगत् उनसे अपरिचित है।

सरकार के अनुसार भारतीय राजनीतिक विचारधारा के कतिपय प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार हैं:

  1. शासक का यह कर्त्तव्य है कि वह प्रजा का मत जाने।
  2. प्रजा का यह कर्त्तव्य है कि वह प्रशासन में सहयोग दे और सारे कानूनों का पालन करे।
  3. शासन के लिए ऐसे सभी कार्य करना उचित है जो सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार उपयोगी हों।
  4. शासकों को मन्त्रियों और परामर्शदाताओं से मार्ग-दर्शन ग्रहण करना व नियन्त्रित होना चाहिए।
  5. राजत्व एक लौकिक संस्था है जिस पर मन्त्रियों व जनता द्वारा संवैधानिक सीमाएँ व प्रतिबन्ध लगे हैं।
  6. शासितों को अत्याचारी शासन का विरोध करने और उसे उलट देने का अधिकार है।
  7. जहाँ तक सम्भव हो सके युद्ध मानवीय और वीरतापूर्ण ढंग से किया जाना चाहिए।
  8. राज्य के द्वारा ही धर्म और अर्थ की प्राप्ति हो सकती है।

संक्षेप में, प्राचीन भारत में राजनीति की चार विचारधाराओं का अस्तित्व था जो मनु, पाराशर, वृहस्पति और उष्णा के मानने वालों के समूह में विभाजित थे। द्वितीय, शासन कला पर कम से कम सात बड़े ग्रन्थ थे जिनकी रचना भारद्वाज, विशालाक्ष, पाराशर, नारद, भीष्म, वातव्याधि और बहुदन्ति द्वारा मानी जाती थी। अन्त में प्राचीन भारत में राजतन्त्र स्वेच्छाचारी नहीं वरन् सीमित था, राजाओं के निर्वाचन की भी प्रथा थी और वे मन्त्रियों तथा परामर्शदाताओं की सहायता से शासन करते थे। इसके अतिरिक्त वैदिक काल में सभा व समिति जैसी लोकप्रिय संस्थाएँ थीं तथा उत्तर वैदिककाल में गणतन्त्र भी थे।

प्राचीन भारत में राजशास्त्र का महत्व

(IMPORTANCE OF RAJSHASTRA IN ANCIENT INDIA)

प्राचीन भारत में राजनीति विषयक ज्ञान को चाहे किसी भी नाम से पुकारा जाता रहा हो, तथ्य यह है कि राजशास्त्र को बहुत अधिक महत्वपूर्ण समझा जाता था और प्राचीन ग्रंथों में अनेक स्थानों पर राजशास्त्र की महिमा का वर्णन करते हुए इसे सर्वोपरि ज्ञान की महिमा दी गयी है। कौटिल्य के अनुसार दण्ड-नीति चार प्रमुख विद्याओं में से

एक है, आनवीक्षिकी, त्रयी और वार्ता इन सभी विद्याओं की सुख-समृद्धि दण्ड पर निर्भर है। महाभारत में कहा गया है कि जिस प्रकार हाथी के पैर में सब का पैर आ जाता है उसी प्रकार राजशास्त्र में सभी शास्त्र आ जाते हैं। दण्ड-नीति के महत्व में भीष्म ने कहा है कि यदि दण्ड-नीति नष्ट हो जाय तो तीनों ही वेद लुप्त हो जायेंगे। शुक्र ने भी कहा है कि ब्रह्मा द्वारा रचित राजशास्त्र के सार को वशिष्ठ और मेरे जैसे अन्य लेखकों ने पृथ्वी के शासकों तथा अन्य व्यक्तियों की समृद्धि के लिए संक्षिप्त किया है। उन्होंने यह भी कहा है कि राजा को यत्नपूर्वक नीतिशास्त्र का अभ्यास करना चाहिए। इस शास्त्र के ज्ञान से राजा सुन्दर नीति में कुशल होता है और इसके बिना राजा अपने प्रमुख कर्त्तव्यों-प्रजा के पालन और दुष्टों के नाश का पालन नहीं कर सकता।

मनु के अनुसार दण्ड ही धर्म और राजा है, इसके द्वारा ही राजा प्रजा की रक्षा करता है और चारों आश्रमों में सभी व्यक्तियों से अपने-अपने कर्तव्यों का पालन कराता है। जब सब सोये रहते हैं दण्ड ही जागता रहता है। कामन्दक के अनुसार दण्ड-नीति में ही नीति व अनीति स्थित है।

प्राचीन भारत में राजशास्त्र एक संकुचित विषय न होकर विस्तृत विषय था । राज्य-विषयक मामलों को धर्म से पृथक् नहीं रखा गया था। धर्म का पालन राज्य पर निर्भर करता था। इसी कारण राजशास्त्र का महत्व अन्य सभी शास्त्रों से बढ़कर माना गया। राजशास्त्र में सामाजिक व्यवस्था, धर्म और राजा की सत्ता आदि के साथ साथ अन्य कई बातें भी सम्मिलित थीं। इनमें से मुख्य ये हैं अन्तर्राज्य सम्बन्ध, मित्र, उदासीन व शत्रु राजा और उनकी विशेषताएँ, आय व्यय, राष्ट्र, प्रजा के कर्त्तव्य, वृक्ष लगाना, मन्दिर बनाना, कानून व न्याय-पद्धति, दुर्ग, वन, सेना इत्यादि।

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