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दलीय प्रशासन और सार्वजनिक प्रशासन में कौन ज्यादा निपुण है

दलीय प्रशासन और सार्वजनिक प्रशासन में कौन ज्यादा निपुण है

क्या दलीय प्रशासन में सार्वजनिक प्रशासन की अपेक्षा अधिक निपुणता पाई जाती है?

(Is Private Administration more efficient than Public Administration)

जैसा कि प्रोफेसर ह्वाइट ने कहा है कि 200 वर्ष पूर्व लोक प्रशासन में से आतंक की दुर्गन्ध आती थी परन्तु आज उसकी माँग उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। आज वह सभ्यता का सूचक है। औद्योगिक विकास तथा राज्य के लोकहितकारी सिद्धान्त ने लोक प्रशासन की आवश्यकता को बढ़ा दिया है। आज लोक प्रशासन का सम्बन्ध मनुष्य से उस समय से होता है जब वह बालक के रूप में माँ के गर्भ में प्रवेश पाता है। उसके पैदा होने की तिथि से लेकर मरने तक का लेखा-जोखा राज्य को रखना पड़ता है। प्रोफेसर डोनहम (Donham) ने तो यहाँ तक भी कहा है कि यदि हमारी सभ्यता का पतन होता है तो इसका मूल कारण हमारे प्रशासन की असफलता होगी। यद्यपि सर जोशुआ स्टैम्प ने एक बार कहा था कि इस विषय में मेरा मस्तिष्क बिल्कुल स्पष्ट है कि प्रशासकीय कर्मचारी समाज को प्रेरणा देने वाला होगा। प्रत्येक मंजिल पर वह मार्गदर्शन, प्रोत्साहन तथा परामर्श का देने वाला होना चाहिए। परन्तु लोक प्रशासन के आलोचक इसकी आलोचना भी निम्नलिखित आधारों पर करते हैं :

  1. लोक प्रशासन के आलोचकों का यह कहना है कि जिन व्यक्तियों की नियुक्तियाँ मंत्रिमंडल द्वारा की जाती है वे सब राजनैतिक नियुक्तियाँ होती हैं, क्योंकि मंत्रिमंडल के ऊपर व्यवस्था का पूर्ण उत्तरदायित्व होता है।
  2. लोक प्रशासन के कर्मचारियों में रुचि तथा प्रारम्भिक का सर्वथा अभाव पाया जाता है, क्योंकि उनमें व्यक्तिगत लाभ का प्रश्न ही नहीं पाया जाता। सरकार के कार्य को वे अपना कार्य नहीं समझते।

विलोबी (Willoughby) के अनुसार इन आक्षेपों को किसी भी रूप में कम नहीं किया जा सकता, यद्यपि इनमें अतिशयोक्ति है। इन आक्षेपों के सम्बन्ध में विचार करने से पूर्व एक बात स्पष्ट करनी होगी कि दलीय प्रशासन की तुलना उस व्यक्तिगत व्यापारी से नहीं की जा सकती जो स्वयं ही निर्माता तथा संयोजक भी हैं और जो अपनी बनाई हुई वस्तुओं को अपनी दुकान पर अधिक मूल्य लेकर बेचता है। उदाहरण के लिए सुनार, जो सोने की वस्तुओं को स्वयं बनाता है और स्वयं ही उन्हें ऊंचे दामों पर बेच देता है। यह व्यक्ति गत व्यापार का एक प्रकार हुआ जिसके साथ लोक प्रशासन की तुलना नहीं की जा सकती। दलीय प्रशासन का दूसरा प्रकार बड़े उद्योग-धन्धों में देखने में आता है। इन बड़े व्यापारों का संचालन कई व्यक्तियों द्वारा होता है जो डाइरेक्टर्स कहलाते हैं। ये अपने कार्यों में दक्ष नहीं होते। मंत्रिमंडल के सदस्यों की भांति इनमें से एक मुख्य प्रशासक (Chief manager) होता है, जो संचालकों की इच्छाओं को कार्य रूप में परिणत करता है। लोक प्रशासन की तुलना इस प्रकार के व्यापारिक प्रशासन से भी हो सकती है। जब हम लोक प्रशासन की तुलना द्वितीय प्रकार के व्यापारिक प्रशासन से करते हैं तो बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स तथा व्यवस्थापिका के सदस्यों के सदृश्य प्रत्येक बात के सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान नहीं रखते। उन्हें उन व्यक्तियों से सहायता लेनी पड़ती है जो उस काम में दक्ष होते हैं। यही बात व्यवस्थापिका के सम्बन्ध में सत्य है। मंत्रिमंडल के सदस्यों का दक्ष होना आवश्यक नहीं है क्योंकि उनका सम्बन्ध सामान्य प्रशासन से है न कि विशिष्ट से। वे तो केवल नीति निर्धारित करते हैं और फिर मंत्रिमंडल के उत्तरदायित्व की प्रणाली के अनुसार उनके ऊपर व्यवस्थापिका द्वारा नियंत्रण रखा जाता है। यदि मंत्रिमंडल दक्ष होने लगे तो उनका दृष्टिकोण व्यापक नहीं हो सकता और वे प्रत्येक प्रश्न को एक ही पहलू से देखते रहेंगे। इस दिशा में भी लोक तथा दलीय प्रशासन में कोई अन्तर नहीं है। हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स के सदस्यों की दशा मंत्रिमंडल के सदस्यों की अपेक्षा अधिक अच्छी होती है।

दूसरी आलोचना के सम्बन्ध में भी यही कहा जाता है। आलोचकों का यह कहना गलत है कि लोक प्रशासन के कर्मचारियों में व्यक्तिगत लाभ की अनुपस्थिति में कार्य करने की प्रेरणा तथा प्रारम्भिक का अभाव पाया जाता है। उनका यह कहना है कि व्यक्तिगत मुनाफे के अभाव में लोक प्रशासन के कर्मचारी कार्यों में अधिक रुचि नहीं लेते। सरकारी बस में चाहे एक भी यात्री क्यों न हो परन्तु उसे जाना पड़ता है। ड्राइवर उसको अपना काम न समझ कर रास्ते में मिलने वाले यात्रियों के बैठाने की कोशिश नहीं करता। बहुत-सा सरकारी सामान केवल इसलिए बिगड़ जाता है कि कर्मचारी उसकी पर्वाह नहीं करते। सरकारी भवनों के बनने से पूर्व ही उनमें मरम्मत की आवश्यकता होती है। व्यक्तिगत मुनाफे के अभाव में केवल उत्पादन ही खराब नहीं होता वरन् कर्मचारियों में सक्रियता मर जाती है। परन्तु यह बात उस व्यक्तिगत व्यापार के सम्बन्ध में चाहे सत्य हो जहाँ पर कि स्वयं मालिक वस्तुओं का क्रय-विक्रय करता है। वास्तविकता यह है कि व्यक्तिगत प्रशासन में कर्मचारियों में इतना उत्साह और सक्रियता नहीं होती जितनी कि हम सोचते हैं। व्यक्तिगत महत्व को कम नहीं किया जा सकता परन्तु प्रश्न यह होता है कि क्या कार्य करने के लिए प्रेरणा का अन्य कोई स्रोत नहीं हो सकता। क्या सर्वथा ही हम कार्य व्यक्तिगत लाभ के लिए करते हैं? कभी-कभी हम सामाजिक हित को ध्यान में रखकर कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं। स्वार्थ अथवा व्यक्तिगत हित का सिद्धान्त प्रत्येक स्थिति में सत्य नहीं माना जा सकता। अतः अलोचकों का यह कहना कि लोक प्रशासन कर्मचारियों में प्रारम्भिक का अभाव होता है, निःसंदेह गलत है।

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