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जवाहरलाल नेहरू के विचारों के दार्शनिक आधार

नेहरू के विचारों के दार्शनिक आधार

जवाहरलाल नेहरू के विचारों के दार्शनिक आधार

(Philosophical Foundations of Nehru’s Thoughts)

नेहरू का चिन्तन उनके पिता मोतीलाल नेहरू, महात्मा गाँधी, ऐनीबेसेन्ट, ब्रुक्स, रसेल, कार्ल मार्क्स, कॉन्ट, स्पेन्सर, आइन्सटीन, ऑस्करवाइल्ड, मिल, बर्नार्ड शॉ आदि महानुभावों से प्रभावित था। मोतीलाल नेहरू अपने स्वभाव और विचारों से तार्किक और यथार्थवादी थे। पुत्र पर उनके विचारों की काफी छाप थी। नेहरू के चिन्तन और व्यवहार को प्रभावित करने में सबसे अधिक निर्णायक भूमिका महात्मा गाँधी की रही। गाँधी से उन्होंने सत्याग्रह, अहिंसा, शान्ति और नैतिकता से परिपूर्ण राजनीति का पाठ पढ़ा । गाँधी की शिक्षाओं के प्रति उनमें जीवन भर गहरा आकर्षण रहा, फिर भी वे गाँधी की शिक्षाओं और आदर्शों को अटल सिद्धान्तों के रूप में ग्रहण नहीं कर सके। गाँधी जैसी आस्तिकता उनमें पैदा न हो सकी। मृत्युपर्यन्त नेहरू मानवतावादी भावना से ओतप्रोत रहे, बड़े भावुक और विलक्षण बने रहे । न वे पूर्ण नास्तिक रहे न पूर्ण आध्यात्मिकतावादी और न ही पूर्ण भौतिकवादी। कार्ल मार्क्स के भौतिकवादी विचारों का प्रभाव उन पर अवश्य पड़ा, लेकिन वे पूर्ण भौतिकवादी कभी नहीं बन सके । उन्होंने भौतिक पदार्थ को ही अन्तिम सत्य नहीं माना | भौतिक विज्ञान के प्रति, विज्ञान का एक छात्र होने के नाते, उनकी प्रारम्भ से ही रुचि थी। आइन्स्टीन, प्लैंक तथा हैसेनबर्ग के भौतिकवादी शोधों का प्रभाव उनके चिन्तन पर पड़ा, लेकिन दृष्टि से उन्हें हम कॉण्ट की अपेक्षा स्पेन्सर के अधिक निकट पाते हैं। नेहरू ने यह नहीं माना कि कोई ऐसा जगत भी है जो हमारी दृष्टि अथवा हमारे मस्तिष्क के चिन्तन से परे है। ‘भारत की खोज’ में उन्होंने लिखा-

“प्रायः मैं इस विश्व की ओर देखता हूँ तो मुझे अज्ञात गहराइयों और रहस्यों का आभास होता है पर वह रहस्यमय चीज क्या है, यह मैं नहीं जानता। मैं उसे ईश्वर नहीं कहता क्योंकि ईश्वर का बहुत कुछ अर्थ ऐसा है जिसमें मेरा विश्वास नहीं है। मैं किसी देवता अथवा किसी अज्ञात सर्वोच्च सत्ता जिसका स्वरूप मानव जैसा हो, की कल्पनाओं की क्षमता अपने में नहीं पाता। एक व्यक्तिगत और सगुण ईश्वर का विचार मुझे बड़ा आजीब लगता है। बौद्धिक दृष्टि से मैं कुछ सीमा तक अद्वैतवादी विचारधारा का समर्थन करता हूँ और वेदान्त के अद्वैतवाद की ओर भी मेरा आकर्षण है, किन्तु वेदान्त तथा इस प्रकार के अदृश्य जगत के विषय में विचार मेरे मानव में भय उत्पन्न करते हैं।”

नेहरू पर बुद्ध और ईसा के विचारों का भी प्रभाव पड़ा। उन्होंने बुद्ध और ईसा के समान ही मानव आदर्शों और नैतिकता की शक्ति में विश्वास प्रकट किया। वास्तव में नेहरू जीवन पर्यन्त शान्ति और नैतिकता के उपासक रहे पर इसका यह आशय नहीं कि उन्होंने जीवन में किसी निष्क्रियता की सीख ली। नेहरू तो एक संघर्षमय जीवन के उपासक थे जिन्होंने अपने जीवन में कर्म को सदैव प्रधानता दी। बौद्ध दर्शन से प्रभावित हुए भी नेहरू ने इस बात का कभी समर्थन नहीं किया कि हम संसार का परित्याग कर दें अथवा मोक्ष की प्राप्ति के लिए शरीर को यातनाएँ दें।

“नेहरू किसी धर्म विशेष में विश्वास नहीं करते थे, लेकिन व्यवहार में बड़ी आध्यात्मिक वृत्ति के पुरुष थे। कभी-कभी वे अपने आप को प्रकृतिपूजक बताते थे और यह कहते हुए बड़ी प्रसन्नता का अनुभव करते थे। इसका केवल इतना ही अभिप्राय था कि वे धर्म के विधि-विधानपूर्ण स्वरूप, रूढ़िवाद और साम्प्रदायिक पक्ष के विरुद्ध थे। उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक था और वे सत्य को अनुभूति के माध्यम से प्राप्त करना चाहते थे।”

अन्त में, नेहरू मूलत: एक राजनीतिज्ञ थे, हॉब्स या रूसो या सिसरो की भाँति राजनीतिक दार्शनिक नहीं। राजनीतिक-शक्ति-सम्पन्न होने के कारण ही उन्हें इस बात के अवसर मिले कि वे अपने विचारों को व्यावहारिक जामा पहना सकें। फिर भी उन्होंने एक राजनीतिक दार्शनिक बनने की दिशा में कोई रुचि नहीं ली। डॉ० वी० पी० वर्मा के अनुसार, “अधिक से अधिक हम उन्हें एक सामाजिक आदर्शवादी कह सकते हैं जो साधारण व्यक्ति की भावनाओं के लिए एक जनतन्त्रीय दृष्टिकोण में आस्था रखता हो। नेहरू पर गीता का भारी प्रभाव था, गीता के कर्म के सन्देश को उन्होंने अपने जीवन में उतारा था और निभाया था। नेहरू ने अपने जीवन, विचारों और कार्यों से देशवासियों और सम्पूर्ण मानव जाति को यही सन्देश दिया कि फलाफल की चिन्ता किये बिना हम यलपूर्वक अपने कर्म में लगे रहें।”

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